Friday, March 20, 2015

भारतीय शिक्षा का आइना हैं बिहार से आई नकल की तस्वीरें

बिहार में नकल की तस्वीरें और वीडियो देखकर देश सोच रहा है कि बिहार ऐसे पढ़ता-बढ़ता है। तस्वीरें दिखें, सामने आती हैं तो उत्तर प्रदेश के लोगों को भी ऐसी ही लजाना पड़ता हो। मुझे बचपन में इलाहाबाद के गांव के एक स्कूल में ऐसे ही नकल कराने का वाकया बड़े अच्छे से याद है। लगभग इसी तरह खिड़कियों से नकल की पुर्ची फेंकना और बीच-बीच में, कानून व्यवस्था कायम है का अहसास दिलाने के लिए, पुलिस वालों का डंडा लेकर नकल कराने वालों को दौड़ाना। बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम करीब डेढ़-दो महीने के लिए गांव जाते थे। हम सभी भाई-बहन इलाहाबाद में रहते—पढ़ते थे। नकल जैसी संस्थागत व्यवस्था से परिचय नहीं था। इसका मतलब ये भी नहीं है कि कभी नकल ही नहीं किया। हां, पढ़ाई के दौरान दो बार छोड़कर कभी नकल नहीं किया। एक बार वाला परिणाम अच्छा हुआ निराशाजनक रहा। एलएलबी में दाखिले के लिए की गई नकल काम नहीं आई। दोबारा वाली नकल काम आई। लेकिन, गांव में छेउंगा में जो विद्यालय था, वहां की पढ़ाई अद्भुत तरीके से होती थी। ऐसे ही सब जिस बोरे पर बैठते थे। उसी बोरे के नीचे पेपर में लिखे प्रश्नों के उत्तर खोजने का जुगाड़ होता था। उसमें भी ज्यादा जुगाड़ी/प्रतिष्ठित जुगाड़ी लोगों की तो पूरी कॉपी बाहर जाकर अंदर आ जाती थी। हां, उत्तर प्रदेश में अब बहुतायत में ये हाल नहीं है। लेकिन, ये किसे भूला होगा कि उत्तर प्रदेश में नकल विरोधी कानून भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार की जड़ में मट्ठा डालने में अहम भूमिका में था। सवाल ये है कि कौन लोग हैं जो, अपने बच्चों को इस तरह से पास कराकर डिग्री दिला देना चाहते हैं। सवाल ये है कि कौन सी सरकार और अधिकारी हैं, जिन्हें इस संस्थागत नकल व्यवस्था का पता नहीं है। सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ बिहार की समस्या है। या ये यूपी-बिहार की समस्या है। अच्छा है कि मीडिया में बहुतायत उत्तर प्रदेश-बिहार के लोग हैं और वो खुद की बुराई करने में पीछे नहीं रहते। तो, देश देख रहा है कि देश कैसे पढ़ रहा है, कैसे पास हो रहा है और कैसे डिग्री ले रहा है।

लेकिन, क्या ये समस्या सिर्फ यूपी-बिहार की है। ऐसा होता तो उत्तर प्रदेश-बिहार के पढ़ने में कमजोर लड़के दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, गुजरात जाकर कैसे डॉक्टर, इंजीनियर बनकर चले आते हैं। और ये आज से नहीं हो रहा है। इसीलिए जब इस तरह के पढ़ाकुओं में से ही कोई पढ़ाने वाला बन जाता है तो, क्या हाल होता है। हाल ये होता है कि नकल की तस्वीरें दिखा रहे टीवी चैनलों के कैमरे जब शिक्षकों से पूछते हैं कि गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस में अंतर क्या है तो, वो खिसिया रहे होते हैं। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तक का नाम नहीं जानते। कई लोग तो राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बता देते हैं। ये बिहार की या यूपी की समस्या नहीं है। ये समस्या से आंख मूंद लेने की समस्या है। अगर ऐसा नहीं होता तो, दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों, विद्यालयों में भारत क्यों नहीं है। मेरा निजी मत इस मामले में साफ है कि डिग्री के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा पाने का पैमाना भी इसकी बड़ी वजह है। हां, सचिन का हाईस्कूल ही पास होना किसी को सताता नहीं है। लेकिन, बगल का कोई बच्चा हाईस्कूल ही पास हो तो देखिए, गजब हो जाएगा। जब बुनियाद मजबूत नहीं होगी तो, हाईस्कूल पास या फेल, किस काम का। लेकिन, इस पर कौन सी सरकार सोच रही है। राज्य सरकारों के स्कूल आर्थिक कमजोरों को पढ़ने का अहसास कराने और इसी तरह नकल करके डिग्री पाने की संस्था बनकर रह गई हैं। और कमाल तो ये सरकारी स्कूलों की इसी बुनियाद को अब निजी शिक्षण संस्थाओं में नकल कारोबार बना दिया गया है। विद्यालय विद्या के लिए नहीं डिग्री बांटकर और कारोबार बढ़ाने के लिए खुल रहे हैं। और ये सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इसलिए बिहार की तस्वीरों पर हंसने की जरूरत नहीं है। ये तस्वीरें भारत की उस बेबुनियाद प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद का सजीव चित्रण है, जिस पर गांव के बहुतायत बच्चे अपनी डिग्री की इमारत बनाते हैं। इस डिग्री के बूते उन गांव के बच्चों का देश बनाने की व्यवस्था में हिस्सेदारी होना तो लगभग असंभव ही है। फिर कैसे गांव के उन नकल कराकर डिग्री दिलाने वाली फैक्ट्रियों को बंद कराने के बारे में कोई चिंता कर सकता है। हां, सालाना दूसरी खबरों की तरह इस तरह की तस्वीरों का भी रुदन हो सकता है। टीवी पर बैठकर शिक्षा व्यवस्था पर चिंतित हुआ जा सकता है। बिहार को गरियाया जा सकता है। लगे हाथ उत्तर प्रदेश को भी। आखिर देश की सारी अव्यवस्था की जड़ तो यूपी-बिहार ही है। ऐसे लगता है कि यूपी-बिहार देश में नहीं होता तो, देश गजब, अद्भुत, अकल्पनीय होता। बस हमारा काम हो गया है।

Thursday, March 19, 2015

बारंबार खारिज हुए विचारकों का विचार मंथन

Press Club of India and Media Studies Group की वैकल्पिक राजनीति के भविष्य पर चिंता करने जुटे विद्वानों का मुंह सूख गया जब, एक नौजवान ने इनसे पूछ लिया कि जब आपको वंदेमातरम् और भारत माता की जय की वजह से देश की एकता को खतरा दिखता है तो आप कौन सी वैकल्पिक राजनीति की चर्चा करने यहां आए हैं। दरअसल कहने को तो ये वैकल्पिक राजनीति के भविष्य की चर्चा करने जुटे थे। लेकिन, पूरी चर्चा दरअसल आम आदमी पार्टी की टूटन या कह लें कि इनके पैमाने पर आम आदमी पार्टी का खरा न उतर पाना और नरेंद्र मोदी के अगले पाँच साल तक प्रधानमंत्री पद से हटाने का कोई जुगाड़ न मिल पाने का रुदन ही थी। ऐसे में नौजवान का सवाल सबके लिए संकट बन गया। ये अभी भी बेवकूफी कर रहे हैं। इनकी नजर में क्रांति का रास्ता बस इनका ही है। और वैकल्पिक राजनीति का रास्ता भी। इनको समझना चाहिए कि नौजवान अब इनकी भावनात्मक क्रांति का बस्ता ढोने तैयार नहीं है। ये नौजवान अब आपके कुतर्क में साथ नहीं देगा साथी। लाल सलाम को अब ये मजाक में ही बोलता है। गंभीरली नहीं लेता। आप गंभीर होइए। झुट्ठो गंभीर होने से अब बात बिगड़ेगी ही। सचमुच कुछ वैकल्पिक राजनीति करना चाहते हैं तो विकल्प बेहतर दीजिए। उसी सड़े गड़े, खारिज किए जा चुके विकल्प को विकल्प बताकर बेचिएगा तो, कैसे बात बनेगी। ये कुछ वैसा ही हुआ जैसे अमेरिका में खराब कर्ज को बार-बार रीपैकेज करके फिर से बेच दिया जाता था। और वो कर्ज दुनिया की मुसीबत बन गया। वैसे ही भारत का वामपंथ भी हो गया है। जो बार-बार उसी खारिज विचार को बेचने की कोशिश में लगा है। नाना प्रकार की पैकेजिंग में बांधने पर भी वो नहीं बिका। और ये वैकल्पिक राजनीति के भविष्य का रास्ता बता रहे हैं।

 17 मार्च को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में हुई इस चर्चा के वक्ताओं को नाम ये रहे। इसमें Prof Arun Kumar (JNU) देर से पहुंचे थे। Nandita Narayan (President, DUTA), N.D. Pancholi (Advocate, Supreme court), Dr. Phoolchand Singh (Social scientist & Media trainer), Prof Rizwan Kaisar (Jamia Milia Islamia), Prof. Manindra Thakur ( JNU), Dr. Pradeep Kant Chaudhari (India for Democracy), Preside: Nadeem Kazmi, S.G (PCI), Coordination: Anil Chamadia (MSG)

Wednesday, March 18, 2015

भ्रष्टाचार की बुनियाद हिलाने वाले विनोद राय

सिर्फ 33 कोयला खदानों की नीलामी से दो लाख करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आने से साफ है कि नीतियों के आधार पर सरकार चलने से भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सकती है। अगर हम देश नीतियों के आधार पर चलाएंगे तो हम देश अच्छे से चला सकते हैं। देश को भ्रष्टाचार मुक्त कर सकते हैं। हम रिश्वत मुक्त तंत्र बना सकते हैं। हमने ये जिम्मेदारी उठाई है और हम देश को उसी रास्ते पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। 33 कोयला खदानों की नीलामी से दो लाख करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये कहा। लेकिन, जब कोयला खदानों के आवंटन में गड़बड़ियों की तरफ सीएजी ने इशारा किया था तो, कम ही लोगों को ये भरोसा रहा होगा कि कोयला खदानों के आवंटन में सरकारी हितों को इस तरह से दरकिनार किया गया है। जब सीएजी विनोद राय ने कोयला खदानों के आवंटन से देश के खजाने में एक लाख छियासी हजार करोड़ रुपये का नुकसान होने का अंदेशा जताया था तो, ज्यादातर आर्थिक विद्वान इसे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालने वाली रिपोर्ट बता रहे थे। अर्थव्यवस्था के जानकार यही मान रहे थे कि सीएजी का ये आंकलन पूरी तरह से अनुमानों पर तैयार किया गया है। और इस तरह की रिपोर्ट से निवेश का माहौल खराब होगा। यहां तक कि सीएजी विनोद राय के ऊपर राजनीतिक झुकाव तक के आरोप लग रहे थे। यूपीए सरकार के मंत्री सीधे-सीधे सीएजी विनोद राय को धमकी देने वाले अंदाज में बात कर रहे थे। भला हुआ कि सितंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय को सीएजी की रिपोर्ट सिर्फ कल्पना नहीं लगी और सर्वोच्च न्यायालय ने सभी 204 खदानों का आवंटन रद्द कर दिया। उन्हीं 204 खदानों में से 33 खदानों की नीलामी सरकार ने की है। उन्हीं 33 खदानों की नीलामी से सरकार के खजाने में दो लाख करोड़ रुपये आ गए हैं। अब इस नीलामी की रकम सामने आने के बाद सचमुच ये बात साबित हो रही है कि सीएजी के आंकड़े कल्पना के आधार पर तैयार किए गए थे। लेकिन, सीएजी की कल्पना की उड़ान भी बड़ी छोटी थी। सीएजी की रिपोर्ट में एक लाख छियासी हजार करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया था। जबकि, सिर्फ 33 खदानों ने सरकार के खजाने में दो लाख करोड़ रुपये डाल दिए हैं।

 

इस बात पर बहस हो सकती है कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में कौन-कौन सी बातें थीं जिन्होंने देश में बदलाव का मानस तैयार किया। और इतना तो तय है कि वो कोई एक दो घटनाएं या व्यक्ति नहीं थे। वो ढेर सारी घटनाएं, संस्थाएं और व्यक्ति थे। बहुत से कारक मिले, जिससे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना और उसी वजह से यूपीए दो से तीन के राह में नरेंद्र मोदी आकर खड़े हो गए। लेकिन, सच्चाई यही है कि अगर आज नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के तौर पर ये कह पा रहे हैं कि न खाऊंगा न खाने दूंगा तो, इसकी बुनियाद संस्था के तौर पर सीएजी और व्यक्ति के तौर पर विनोद राय ने रखी थी। वो सीएजी संस्था और व्यक्ति विनोद राय ही थे, जिन्होंने भ्रष्टाचार की बुनियाद पर बहुत कसकर चोट की थी। ये सीएजी विनोद राय ही थे जिन्होंने बिना किसी बात की परवाह किए एक के बाद एक ऐसी रिपोर्ट बनाई जिससे देश को पता चला कि दरअसल यूपीए एक और दो की नीतियां किस तरह से भ्रष्टाचार की बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर रही हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि विनोद राय ये सब इसके बावजूद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बेहद स्वच्छ छवि वाले मनमोहन सिंह बैठे हुए थे। यहां तक कि सीबीआई के समन के बावजूद ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बेईमान नहीं हो सकते। ये धारणा अभी भी पक्के तौर पर लोगों के दिमाग में बैठी हुई है। सोचिए जरा जिस समय सीएजी विनोद राय ने स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले पर रिपोर्ट पेश की थी। सोचिए उस समय मनमोहन सिंह की बेहद ईमानदार छवि के सामने इतने बड़े भ्रष्टाचार की रिपोर्ट देना कितने साहस का काम रहा होगा। विनोद राय ने वो साहस दिखाया।

  

स्पेक्ट्रम घोटाले पर सीएजी की रिपोर्ट पर तत्कालीन संचार मंत्री कपिल सिब्बल की जीरो लॉस थियरी तो सबको याद ही होगी। सीएजी की रिपोर्ट कह रही थी कि स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ है। इसी घोटाले में संचार मंत्री रहे ए राजा से लेकर डीएमके की कनिमोझी तक जेल जा चुकी हैं। पहले आओ पहले पाओ की नीति में ढेर सारी अनियमितताएं की गईं, ये भी अब सामने आ चुका है। लेकिन, तब सीएजी की रिपोर्ट पर तत्कालीन संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने शास्त्री भवन में बुलाई गई पत्रकार वार्ता में पत्रकारों के सामने इस तरह से तथ्य पेश किए कि लगा सीएजी ने कपोल कल्पना के आधार पर रिपोर्ट पेश कर दी है। और ये रिपोर्ट सिर्फ और सिर्फ देश के आर्थिक तरक्की के माहौल को झटका देने का काम करेगी। दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार की राह में सीएजी विनोद राय की रिपोर्ट बाधा की तरह दिख रही थी। ईमानदार छवि वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मंत्रियों ने यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि सीएजी विनोद राय और पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के निजी संबंधों की वजह से सीएजी सरकार को सांसत में डालने वाली रिपोर्ट तैयार कर रहा है। लेकिन, अब न तो यूपीए की सरकार है, न उनके बड़बोले मंत्री और न ही उनके बेबुनियाद तथ्य। तथ्य ये साबित हुआ है कि सरकार को इस मंदी के दौर पर में स्पेक्ट्रम की नीलामी से भी एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा मिल चुके हैं। अब कोई ये नहीं कहेगा कि सीएजी ने यूपीए दो के समय देश की तरक्की की राह में बाधा खड़ी की थी। बल्कि, सच्चाई ये है कि अब अगर देश में तेजी से तरक्की का माहौल बन रहा है और इस माहौल के साथ भ्रष्टाचार करने में लोगों को डर लगता है तो, इसकी बुनियाद सीएजी विनोद राय ने रखी थी। ऐसी बुनियाद जिस पर देश में कम से कम भ्रष्टाचार वाला तंत्र तैयार किया जा सकता है। जिस तंत्र को तैयार करने की बात प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वो तंत्र सीएजी की रिपोर्ट की बुनियाद से ही बनना शुरू हुआ है। मेरा मानना है कि जब भी देश में हुए इस बड़े बदलाव की बात होगी तो, सीएजी विनोद राय को भी याद किया जाएगा।

Sunday, March 15, 2015

हिंदुस्तान के भले के लिए बीजेपी-पीडीपी गठजोड़ बने रहना जरूरी

मसरत आलम की रिहाई के बाद लगा कि अब जम्मू कश्मीर के साथ देश का भ्रम भी बना रहने वाला है। वो भ्रम ये कि देश में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ हिंदुओं की पार्टी है और इसका किसी भी ऐसी पार्टी के साथ गठजोड़ नहीं हो सकता जो, मुसलमानों के वोट के भरोसे ही राजनीति करती हो। मतलब साफ है कि ये भ्रम नहीं पक्की धारणा बन चुकी है कि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ हिंदुओं और वो भी कट्टर किस्म के हिंदुओं के ही मतों से जीतने वाली पार्टी है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी को गठजोड़ करने के लिए पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना के अलावा देश में कोई पक्का सहयोगी नहीं मिल सकता। सहयोगी मिलेगा भी तो तभी जब तक भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के सामने कमजोर गठजोड़ की अगुवा हो, जिसमें राज्य की लड़ाई की वजह से जनता दल यूनाइडेट जैसे सहयोगी भारतीय जनता पार्टी को मिलते हैं। यही कुल मिलाकर देश की राजनीतिक स्थिति थी और काफी हद तक अभी भी है। इसीलिए 282 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत में भारतीय जनता पार्टी की सरकार होने के बावजूद बीजेपी को विपक्षी हिंदुओं और वो भी सिर्फ कट्टर हिंदुओं से आगे की पार्टी मानने को तैयार नहीं हैं। या ये कहें कि दूसरी पार्टियां डर रही हैं कि अगर बीजेपी की सिर्फ और सिर्फ कट्टर हिंदुओं के मतों से जीतने वाली पार्टी की छवि न बनी रही तो राजनीति कठिन हो जाएगी। तब सिर्फ धार्मिक भावनाओं को भड़काकर राजनीति नहीं की जा सकेगी। और इसीलिए सब पुरजोर कोशिशश में लगे रहे कि किसी तरह बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ टूट जाए।

पहली नजर में देखें तो पीडीपी-बीजेपी का गठजोड़ किसी तरह से होने लायक नहीं था, है। दोनों को वोट देने वाले दो ध्रुव पर रहते हैं। पीडीपी वाला कश्मीर पाकिस्तानी भावना के साथ जुनूनी दिखता है तो, बीजेपी वाला जम्मू-लद्दाख हिंदुस्तान के साथ जुनूनी दिखता है। पीडीपी का पुराना इतिहास तथ्यों के साथ ये साबित करने के लिए काफी है कि पीडीपी आतंकवादियों के साथ सहानुभूति ही नहीं रखती है, सीधे पीडीपी नेताओं का आतंकवादियों के साथ जुड़ाव है। और आतंकवादी संगठन शेख-उमर अब्दुल्ला की सरकार पर मुफ्ती सरकार को अपने नजदीक पाते हैं। भारतीय जनता पार्टी जो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा से राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे- के आधार पर खड़ी पार्टी है। इसीलिए ये गठजोड़ भला कैसे हो सकता है। और हो भी गया तो कितने दिनों तक चलेगा, ये बड़ा सवाल है। लेकिन, अब जब मसरत आलम की रिहाई की खबरें पूरी तरह से साफ हो रही हैं तो लग रहा है कि ये गठजोड़ अभी टूटता नहीं दिख रहा है। और इस गठजोड़ का होना हिंदुस्तान के हित में है। देश की सड़ी-गड़ी लकीर पर हो रही राजनीति के शुद्धीकरण के लिए बेहद जरूरी है। वो लकीर जो हिंदू-मुसलमान को राजनीतिक तौर पर दो ध्रुवों पर खड़ा करके ही राजनीति करने देती है। वो लकीर जो धर्म के बाद जाति और पुराने इतिहास के सहारे वहीं खड़े रहने देना चाहती है। इसीलिए जरूरी है कि जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठजोड़ बना रहे। और इस गठजोड़ की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो गठजोड़ के जरिए मिले इस मौके का इस्तेमाल सिर्फ जम्मू कश्मीर ही नहीं देश में दो ध्रुवों पर खड़ें हिंदू मुसलमान में गठजोड़ कराने का रास्ता बनाए। और ये रास्ता बनता भी दिख रहा है। अच्छा हुआ कि गठजोड़ टूटने के पहले ही साफ हो गया कि मुफ्ती मोहम्मद सईद का अकेला फैसला नहीं था मसरत आलम को छोड़ने का। दरअसल मसरत आलम को तो पहले ही छूट जाना चाहिए था। ये रास्ता इसलिए भी बनता दिख रहा है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती बार-बार ये कह रहे हैं कि वो उसी नीति पर कश्मीर को आगे ले जाना चाहते हैं जिसकी कोशिश प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने शुरू की थी। ये विश्लेषण का विषय है लेकिन, मैं निजी तौर पर जितना समझ पाता हूं कि लालकृष्ण आडवाणी जब हिंदू हितों के रक्षक नेता बने तो वो सिर्फ हिंदुओं की बात, संगत करते थे। जबकि, अटल बिहारी वाजपेयी जब हिंदू हिंतों के रक्षक नेता बनते थे तो, उनके मन मस्तिष्क में ये साफ रहता था कि हिंदू हित तभी बचेंगे जब मुसलमान भी ये बात समझेंगे और मुसलमान ये बात तभी समझेंगे जब उन्हें ये लगेगा कि हिंदू मतों से जीतने वाली पार्टी उनके हितों पर डाका नहीं डालने वाली। और काफी हद तक ये काम अटल बिहारी वाजपेयी ने किया भी। शायद दूसरा पांच साल उनको मिला होता तो देश की राजनीति की बीमार लकीर काफी हद तक स्वस्थ हुई होती। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। देश की तरक्की के दूसरे मोर्चे पर भी जो बेहतर काम 1999-2004 के दौरान हुए, उनका भी असर ठीक से देश समझ नहीं सका।

अब वही मौका प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को मिला है। अच्छी बात ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस बार इस मौके को खोना नहीं चाहता। राम माधव ने जिस तरह से बीजेपी-पीडीपी का गठजोड़ बनाने की बुनियाद तैयार की, यही साबित करता है। इसलिए अब जब मुफ्ती सरकार की तरह से ये बयान आता है कि आगे से कोई भी फैसला बीजेपी की सहमति के बाद ही लिया जाएगा। अच्छा है गठजोड़ का सम्मान बचा रहा तो अनायास ही सही हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमान भी एक दूसरे का सम्मान धीरे धीरे करना सीख लेंगे। ये कितना जरूरी है इसे समझने के लिए एक और बेहतर तथ्य सामने आ गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पूर्व विधायक राजेश गर्ग की बातचीत की जो रिकॉर्डिंग सामने आई है। उसके बाद अरविंद केजरीवाल की जोड़तोड़ से सरकार बनाने की कोशिश और नैतिकता पर बहस हो रही है, होनी भी चाहिए। लेकिन, अरविंद केजरीवाल के मुंह से निकली एक बात बेहद खतरनाक है। वो खतरनाक बात है कि कांग्रेस के छे में से तीन विधायक मुसलमान हैं, वो किसी भी कीमत पर बीजेपी के साथ नहीं जा सकते। मतलब साफ है कि देश की राजनीति में मुसलमान विधायक सबसे ज्यादा सीटों वाली बीजेपी के साथ इसीलिए नहीं जा सकते क्योंकि, बीजेपी के साथ जाने पर मुसलमान उन्हें अगली बार मत नहीं देगा। यानी हिंदू मुलमान विभाजन की सबसे बड़ी जमीन भारतीय राजनीति के इसी स्थापित तथ्य की वजह से हैं। अरविंद केजरीवाल कहते थे कि हम राजनीति बदलने आए हैं। कितनी बदलने आए हैं, ये अब बहुत अच्छे से साफ हो रहा है। सोचिए कि अरविंद केजरीवाल सरकार बनाने के लिए किस कदर लगे हुए थे कि पूरी कांग्रेस तोड़कर नई पार्टी बनाकर उसके साथ गठजोड़ कर लेना चाहते थे। राजनीति बदलने वाले अरविंद केजरीवाल भी मुसलमानों को बीजेपी से अछूत बनाकर राजनीति में आसानी देख रहे थे। यानी देश की राजनीति बदलने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल भी हिंदू मुसलमान वाली राजनीति बदलने के पक्ष में नहीं हैं। उसकी वजह भी साफ है। पुरानी लकीर टूटी तो जनता देश की तरक्की की बात करने, पूछने लगेगी। रोजगार की बात करने लगेगी। जीवनस्तर बेहतर क्यों नहीं हुआ, ये पूछने लगेगी। इसीलिए हिंदुस्तान की भलाई के लिए जरूरी है कि जम्मू कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी का गठजोड़ चले और दोनों पार्टियों को राजनीतिक मजबूरी से जो मौका मिला है उसका इस्तेमाल लंबे समय में राजनीतिक मजबूरियों को खत्म करने में करें। अच्छा है कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी विकास के एजेंडे से हट नहीं रहे हैं। जाहिर है इसका परिणाम दिखने में समय लगेगा। लेकिन, हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमान गठजोड़ में से पूर्वाग्रह हटा तो बहुत कुछ बेहतर होगा।

Wednesday, March 11, 2015

पत्रकारिता से जी ऊब गया है!

पत्रकारिता से जी ऊबने की बात लगभग हर उम्र का पत्रकार करता मिल जाएगा। शुरुआती से लेकर संपादक तक। ऐसा क्यों। इसका जवाब है मसरत आलम की रिहाई की घटना, जो साबित करती है कि दरअसल पत्रकारिता कहीं हो ही नहीं रही है। जबकि, इसकी देश को सख्त जरूरत है। लोकतंत्र के बेहतर रहने के लिए सख्त जरूरत है। सोचिए कि जाने कितने दिनों तक मसरत आलम की रिहाई पर चर्चा इस लिहाज से हुई कि पीडीपी बीजेपी के रिश्ते का क्या होगा। अब खबर आ रही है कि राष्ट्रपति शासन और उमर अब्दुल्ला के शासन के समय ये हुआ तो अब बहस बदल गई है। अभी भी ठीक से ये खबर कहां आ पाई है कि कितनी धारा उस पर लगी थी। कितने समय तक वो जेल में रहता। ऐसे ही दीमापुर जेल से आरोपी बलात्कारी को निकालकर मारने वाली खबर भी रही। दरअसल सबसे बड़े संकट में पत्रकारिता ही है। राजनीति, न्यायपलिका और कार्यपालिका में सुधार की बात हो रही है। दिख रही है। लेकिन, पत्रकारिता का संकट बढ़ रहा है। और इसके सुधरने के संकेत भी कम ही हैं। चमक में पहले से कई गुना ज्यादा पत्रकारिता में आ रहे हैं। लेकिन, कितने पत्रकारिता करने आ रहे हैं। कितने कभी कुछ नया लिखते दिखाते हैं। संपादक कहां हैं। क्या कर रहे हैं। मुनाफे का लक्ष्य तय कर रहे हैं। या अखबार के पन्ने से लेकर टीवी स्क्रीन तक की पैकेजिंग बेहतर करने में जुटे हैं। या संपादक उनका बखान करने वालों पर पत्रकार का ठप्पा लगाकर बाजार में छोड़ दे रहे हैं कि ये पत्रकार का ठप्पा लगे लोग उन्हें महान संपादक बनाएं। संकट है पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा संकट है। मेरी मुश्किल ये है कि इस सबके बीच में पत्रकार ही बने रहने की इच्छा बलवती हुई जाती है। मतलब पत्रकारिता से बड़ा संकट निजी तौर पर मेरे लिए हैं।

 

Sunday, March 08, 2015

इस तरह का महिला सशक्तिकरण न हो!

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बेहद शानदार खबर है। खबर है कि जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने वहां की कंपनियों को अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में महिलाओं को कम से कम तीस प्रतिशत जगह देने का नियम बना दिया है। जर्मन संसद से इसे मंजूरी मिल चुकी है। सचमुच ये बहुत अच्छी खबर है। अब इसका इस्तेमाल जर्मन कंपनियां घर-परिवार की महिलाओं को ही बोर्ड में लाकर खानापूर्ति करेंगी या सचमुच इससे बोर्डरूम की तस्वीर कुछ बदलेगी। हालांकि, निजी तौर पर मैं आरक्षण पसंद नहीं करता। फिर वो किसी भी तरह का हो। लेकिन, सच्चाई यही है कि पुरुष हो, जाति हो, विशेष समाज हो या फिर कोई भी हो, जो मजबूत है उसके सामने कमजोर को मजबूत करने के लिएए या कहें कि मजबूत की बराबरी या उसके आसपास खड़ा करने के लिए उसी समाज को कुछ करना होता है। तो उस करने में आरक्षण भी एक कारगर तरीका है। और ये स्वस्थ समाज के लिए जरूरी भी है कि समाज में महिलाएं भी पुरुषों के आसपास हों। इससे वो बेहतर होते हैं, मानवीय होते हैं। सिर्फ पुरुषों या शायद सिर्फ महिलाओं को प्रभुत्व का समाज बड़ा खतरनाक होगा, है भी।
 
भारत में जातिगत आरक्षण है। महिलाओं को भी काफी जगहो पर आरक्षण मिला हुआ है, खासकर पंचायत चुनावों में। बार-बार विधानसभा और लोकसभा में भी महिला आरक्षण की चर्चा हो रही है। हालांकि, पार्टियां इसके साथ खड़ी दिखना चाहती हैं। लेकिन, जब पार्टी में महिलाओं को बराबरी का हक देने की बात होती है तो वो शायद ही कभी पूरी हो पाती है। यहां तक कि सबसे ताकतवर महिलाओं वाली पार्टियों – कांग्रेस (सोनिया गांधी), तृणमूलकांग्रेस (ममता बनर्जी), एआईएडीएमके (जयललिता), बहुजन समाज पार्टी (मायावती) और पीडीपी (महबूबा मुफ्ती) – में भी महिलाओं की हिस्सेदारी कितनी है। ये सब जानते हैं। पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिया गया है। और काफी महिलाएं इससे सशक्त भी हुई होंगी। लेकिन, बहुतायत कैसे सशक्त हुई हैं वो रास्ता वाया पुरुष ही है। ये इलाहाबाद के अखबार में छपा है। लालगोपालगंज के अध्यक्ष प्रतिनिधि की तस्वीर ऊपर चमक रही है। पंचायत अध्यक्ष जुलेखा जी की शकल भी नहीं दिख रही। सिर्फ नाम नीचे लिखा है। प्रतिनिधि महोदय अध्यक्ष जी के पति हैं। पंचायती राज में गजब महिला सशक्तिकरण है। मुझे लगता है कि 365 दिन का महिला सशशक्तिकरण का कुछ किया जाए वरना तो ऐसे ही महिला दिवस की तरह आरक्षण भी महिला सशक्तिकरण का एक धोखा भर बनकर रह जाएंगे।  

Friday, March 06, 2015

भारतीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत

ये शायद भारतीय राजनीति में किसी ने कल्पना नहीं की होगी। भारतीय राजनीति को बदलने के दावे के दम पर देश की राजधानी की सत्ता हासिल करने वाली पार्टी में ऐसा होगा, ये तो बिल्कुल भी किसी की कल्पना में नहीं रहा होगा। वो भी इतनी जल्दी हो जाएगा, ये तो दूर-दूर तक किसी ने सोचा नहीं रहा होगा। हम राजनीति बदलने आए हैं। ये कहकर देश की राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को भ्रष्ट साबित करने के लिए हर हाल तक लड़ते दिखने वाले अरविंद केजररीवाल यहां पहुंच जाएंगे, इस बारे में सोचा नहीं गया था। लेकिन, ये हो गया है। भारतीय राजनीति को बदलने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने वो कर दिया जो परंपरागत राजनीति में बरसो से जमी जमाई पार्टियां भी करने से डरती हैं। आम आदमी पार्टी ने अपने दो प्रमुख संस्थापक सदस्यों, योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण, को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। हालांकि, अभी ये कहा जा सकता है कि पार्टी से दोनों को  निकाला नहीं गया है। लेकिन, ये निकाले जाने जैसा ही है। क्योंकि, अगर योगेंद्र और प्रशांत की भूमिका पार्टी में इतनी नहीं है कि वो पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति में रह सकें, तो ये निकाले जाने जैसा ही हुआ। ये कुछ इसी तरह से हुआ जैसे किसी कंपनी में शीर्ष स्तर पर बैठे अधिकारी से सारे अधिकार छीनकर उसे अगले एक-दो-तीन महीने में विकल्प तलाश लेने का रास्ता दे दिया जाता है। लेकिन, क्या देश के हजारों नौजवानों की आंखों में राजनीति बदलने का सपना दिखाने वाली पार्टी इस तरह से व्यवहार कर सकती है। क्या आम आदमी ने जिस तरह से योगेंद्र यादव को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए एक रिपोर्ट को आधार बनाया है, वो तरीका सही हो सकता है। इससे भी बड़ा सवाल ये है कि योगेंद्र यादव को बाहर करने के लिए उस रिपोर्ट को लिखने वाली पत्रकार से अरविंद केजरीवाल का बातचीत करना और उसे रिकॉर्ड करना लोकतंत्र को किधर ले जाएगा। ये दुस्साहस तो कांग्रेस ने अपने सर्वोच्च ताकत वाले मतलब इंदिरा गांधी के समय या फिर भारतीय जनता पार्टी के सबसे मजबूती के दौर मतलब नरेंद्र मोदी के समय में भी बीजेपी ने नहीं दिखाया।

इंदिरा गांधी के ऊपर आपातकाल के समय पत्रकारों पर पाबंदी लगाने के ढेरों आरोप हैं। लेकिन, मुझे एक भी आरोप ऐसा ध्यान में नहीं आता है जिसमें इंदिरा गांधी ने कांग्रेस से किसी बड़े नेता को निकालने के लिए किसी रिपोर्ट को सहारा बनाया हो। और फिर उस पत्रकार के साथ बातचीत का टेप रिकॉर्ड किया गया हो। अगर किया भी रहा होगा तो वो चोरी छिपे हुआ होगा। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी पत्रकारिता पर इस तरह का संकट पहले शायद ही आया रहा होगा। संकट ये कि अब पत्रकार किसी नेता के साथ बात करते हुए डरे। पत्रकार नेताओं के निजी सचिवों, सहायकों के साथ बात करते हुए डरे। पत्रकार डरे कि उसका फोन नेता या उसका सहायक रिकॉर्ड करके उस बातचीत का इस्तेमाल दूसरे नेता को निपटाने में कर सकता है। अरविंद केजरीवाल के निजी सचिव की पत्रकार के साथ बातचीत रिकॉर्ड करने और उसी बातचीत का इस्तेमाल योगेंद्र यादव को आम आदमी पार्टी शक्तिशाली पार्लियामेंट्री अफेयर्स कमेटी से बाहर निकालने के लिए किया जाना भारतीय लोकतंत्र के अशुभ का बड़ा संकेत हैं। वीडियो, ऑडियों रिकॉर्डिग करके देश से भ्रष्टाचार भगाने का फॉर्मूला बताने वाले अरविंद केजरीवाल ने देश के नेताओं को मजबूती का एक और मंत्र दे दिया है। अरविंद ने बता दिया है कि राजनीति करनी है तो कैसे अपना एकक्षत्र राज स्थापित करने के लिए वीडियो, ऑडियो रिकॉर्डिंग का शानदार तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। ये सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, वाला अद्भुत मंत्र है। विरोधी नेता की छवि भी खराब हो गई, उसमें अपना पक्ष सार्वजनिक तौर पर रखने की ताकत भी न बचे और पार्टी के भीतर और बाहर खुद की छवि लोकतांत्रिक बनी रही। अरविंद की कही बात कि हम राजनीति बदलने आए हैं, साबित होती दिख रही है। राजनीति में ऑफ कैमरा, ऑफ रिकॉर्ड ब्रीफिंग से आगे पत्रकार की बातचीत रिकॉर्ड करके उसके इस्तेमाल करने जैसा बदलाव अरविंद ने कर दिखाया है। और सोचिए ये सब कितना पहले से तय रहा होगा कि चौदह फरवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए उन्होंने जनता के सामने खुद को महान भी साबित कर दिया। उऩ्होंने अपने लिए त्याग की मूर्ति और लोभ-लालच से मुक्त नेता का शानदार आवरण तैयार कर लिया। अरविंद ने कहा कि हमें दिल्ली की जनता ने पांच साल की सेवा के लिए जनमत दिया है। इसलिए हमें अहंकार नहीं करना है। पार्टी में कुछ लोग जो अहंकारी हो गए हैं। जो दूसरे राज्यों में भी चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं, उनको अहंकार से बचना होगा। मैं पांच साल दिल्ली की सेवा करूंगा। आम आदमी पार्टी दूसरा कोई चुनाव नहीं लड़ने जा रही है। मतलब साफ था दूसरे राज्यों में चुनाव लड़ने-लड़ाने और वहां हासिल सत्ता के जरिए आम आदमी पार्टी में सत्ता के नए केंद्र की कल्पना करने वाले सब अहंकारी हैं। और अहंकार मुक्त, त्याग मुक्त सिर्फ और सिर्फ अरविंद केजरीवाल हैं। जाहिर है अरविंद केजरीवाल को पता है कि इतनी छोटी सी पार्टी किसी और राज्य में अगर सत्ता में या विपक्ष में भी पहुंच जाती है तो, उस राज्य के नेता की हैसियत भी एक सत्ता के केंद्र के रूप में उभरेगी। इसीलिए अरविंद केजरीवाल इस मामले में एकदम साफ हैं। पार्टी में किसी और को अरविंद केजरीवाल से बड़ा या उसके आसपास भी ठहरने नहीं दिया जाएगा। इसमें बहस नहीं है कि आम आदमी पार्टी की असल ताकत अरविंद केजरीवाल ही हैं। लेकिन, ये भी सच है कि अगर प्रशांत भूषण, शांति भूषण और योगेंद्र यादव नहीं होते तो आम आदमी पार्टी इस तरह से देश में बदलाव का प्रतीक नहीं बन पाती। ध्यान से देखने पर ये भी समझ में आता है कि योगेंद्र यादव हों या फिर शांति भूषण-प्रशांत भूषण इनकी निजी या सार्वजनिक हैसियत में आम आदमी पार्टी के दिल्ली की सत्ता हासिल करने से शायद ही कोई इजाफा हुआ हो। हां, अरविंद केजरीवाल की निजी और सार्वजनिक हैसियत जरूर कई गुना बढ़ गई है। 11-8 से बाहर हुए योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की खबर में उन तीन मतों की चर्चा कम ही है, जो मतविभाजन में शामिल नहीं हुए। वोटिंग से बाहर होने के फैसले के बड़े निहितार्थ होते हैं। आम आदमी पार्टी के बेहद चर्चित, अहम चेहरे कुमार विश्वास और मयंक गांधी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएसी से बाहर निकालने के फैसले के समय बैठक से बाहर निकल गए। इसका मतलब साफ है कि उन्हें पता है कि योगेंद्र और प्रशांत के साथ ठीक नहीं हुआ है। और इससे भी ज्यादा अरविंद केजरीवाल की शैली में कल ऐसा उनके साथ भी हो सकता है, ये आशंका भी जरूर होगी। इसीलिए मैं योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के आम आदमी पार्टी की शक्तिशाली राजनीतिक मामलों की समिति से निकाले जाने के घटनाक्रम को भारतीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत मानता हूं। खासकर इसमें एक पत्रकार की अरविंद केजरीवाल के निजी सचिव के साथ हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग इस लोकतांत्रिक अशुभ की खतरनाक बुनियाद है। कमाल की बात ये भी है कि इस तरह के हथियार का इस्तेमाल वो लोग जायज ठहरा रहे हैं जो लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी पत्रकारिता से ही पहचान पाए हुए हैं। और इसी वजह से अरविंद केजरीवाल की पत्रकार विरोधी आम आदमी पार्टी में प्रमुख स्थिति में हैं। यहां तक कि बहुतायत स्वनामधन्य पत्रकार भी आम आदमी पार्टी को बदलाव का प्रतीक मानकर आंख मूंदकर अरविंद के कर्मों सत्कर्म बता रहे हैं। इन्होंने तब भी कुछ नहीं कहा था जब अरविंद की सरकार ने पत्रकारों को दिल्ली सचिवालय में घुसने से मना कर दिया था। इन्होंने तब भी कुछ नहीं कहा था जब दिल्ली के मंत्री गोपाल राय ने कहा था कि पत्रकार सिर्फ दलाली के लिए सचिवालय जाना चाहते हैं। ये अब भी चर्चा नहीं कर रहे हैं कि एक पत्रकार का फोन रिकॉर्ड करना और उसका इस्तेमाल पार्टी के दूसरे नेताओं को निपटाने के लिए करना लोकतंत्र के लिए कितना अशुभ संकेत है।

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