Wednesday, January 28, 2015

तरक्की के मोर्चे पर चीन का मुकाबला

भारतीय शेयर बाजार इन दिनों उसैन बोल्ट से भी तेज रफ्तार से दौड़ रहा है। इस तेजी के पीछे अगर कोई एक वजह सबसे बड़ी है तो वो ये है कि भारत चीन की पीछे छोड़ने वाले है। चीन को लेकर सिर्फ भारत के ही लोगों का नहींदुनिया का कुछ ऐसे ही आकर्षण भाव है। इसीलिए जब आईएमएफ की ये रिपोर्ट आई कि चीन की तरक्की की रफ्तार को भारत पीछे छोड़ने वाला है तो फिर दुनिया भर में भारत में निवेश के लिए होड़ लग गई है। छिपाकर रखी रकम भी लोग भारतीय शेयर बाजार में लगाने दौड़ पड़े हैं। लेकिन, आईएमएफ के इस ताजा अनुमान को जरा सलीके से समझा जाए। आईएमएफ कह रहा है कि 2016 तक भारत की तरक्की की रफ्तार चीन से ज्यादा हो जाएगी। इसे दूसरी तरह से समझें तो वो ऐसे है कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से तरक्की करने वाले देश अगले दो सालों में बन जाएगा। 2016 में आईएमएफ भारत की तरक्की की रफ्तार6.5% देख रहा है। और साथ ही अनुमान लगा रहा है कि चीन की तरक्की की रफ्तार घटकर 2016 तक 6.3 प्रतिशत ही रह जाएगी। ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अभी चीन 7.4 प्रतिशत की रफ्तार से तरक्की कर रहा है। और ये सरकार के साढ़े सात प्रतिशत के अपने अनुमान से कम रह गया है। अब आईएमएफ के अनुमान को मानें तो इसी साल चीन की तरक्की की रफ्तार तेजी से घटकर 6.8 प्रतिशत रह जाएगी। और अगले साल 6.3 प्रतिशत ही रह जाएगी। और बस इसी आधार पर भारतीय शेयर बाजार झूमने लगा है। शेयर बाजार के दोनों सूचकांक रिकॉर्ड तेजी पर हैं।
  
शेयर बाजार की इस तेजी के पीछे दुनिया खासकर पश्चिम की ये नजर महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है कि भारत, चीन को पीछे छोड़ देगा। लेकिन, 2016 में साढ़े छे प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार के साथ भारत को चीन से आगे देखने वाले हमारी नजर ये भी जा रही है कि चीन की हाल की 7.4 प्रतिशत की तरक्की की जो रफ्तार दिख रही है। वो पिछले दो दशकों से सबसे कम है। मतलब पिछले दो दशकों से चीन साढ़े सात प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से तरक्की करने वाला देश रहा है। और लंबे समय तक वो डबल डिजिट ग्रोथ यानी दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार पर टिका रहा है। अब इस तथ्य को थोड़ा और विस्तार दें तो ये आसानी से समझ में आ जाएगा कि भारत के लिए अभी लंबी यात्रा बची हुई है। भारत अगर लगातार औसत 8 प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार बनाए रखने में कामयाब हो सके और चीन की तरक्की की रफ्तार घटकर औसत पांच प्रतिशत रह जाए तो भी भारत को चीन की बराबरी करने में बत्तीस साल लग जाएंगे। कम से कम दोनों देशों के बीच का जीडीपी का फासला तो यही बताता है। जीडीपी के लिहाज से देखें तो चीन की अर्थव्यवस्था भारत से दस गुना ज्यादा है। चीन की अर्थव्यवस्था साढ़े दस ट्रिलियन डॉलर की है तो भारतीय अर्थव्यवस्था 2013 के अंत तक दो ट्रिलियन डॉलर से भी कम की थी। ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का सपना देख रहे हैं। लेकिन, सिर्फ तरक्की की रफ्तार के आधार पर चीन की बराबरी और इस आधार पर होने वाला निवेश पता नहीं कितना कारगर होगा।

भारत आठ प्रतिशत के ऊपर की तरक्की की रफ्तार को साल भर भी संभालकर नहीं रख पाया था। हालांकि, उसके पीछे सबसे बड़ी वजह डॉक्टर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली सरकार का नीतियों के स्तर पर बेहद लचर रवैया रहा। हाल ये था कि सुधारों को सबसे बड़े पैरोकार और लागू करने वाले वित्तमंत्री के प्रधानमंत्री रहते मनमोहन सिंह के सामने ही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बचकाने तरीके से तीन सब्सिडी वाले सिलिंडर देकर मनमोहनॉमिक्स को शीर्षासन करा दिया। परिणाम ये कि भारत दुनिया की नजर में तो छोड़िए खुद भारत के उद्योगपतियों, निवेशकों की नजर में सबसे जोखिम भरा लगने लगा। भारत के बड़े कारोबारी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर चेता रहे थे कि यही हाल रहा तो हम अपना कारोबार देश से समेटकर विदेश चले जाएंगे। ऐसे में नरेंद्र मोदी जैसा एक नेता आया जो दुनिया को भारत में आकर कारोबार करने को कह रहा है। मेक इन इंडिया कैंपेन की खिलाफत करने वाले ये कह सकते हैं कि जब दुनिया के बाजार मेड इन चाइना के ठप्पे से दबे, भरे पड़े हैं। तो फिर मेक इन इंडिया कहां ठहरेगा। लेकिन, नरेंद्र मोदी के किसी भी अभियान की खिल्ली उड़ाने वालों को एक छोटा सा उदाहरण ध्यान में रखना चाहिए। वो ताजा उदाहरण है प्रधानमंत्री जनधन योजना। जनधन योजना को नीचे तक कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है, जाएगा। इस पर चर्चा आगे होगी। और सफलता, असफलता की कहानी भी उसी समय लिखी जाएगी। लेकिन, एक सरकार के कार्यक्रम को इस तरह से जनता में हाथोंहाथ लिया जाए और वो अभियान गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल हो जाए तो अभियान के महत्व को समझना होगा। एक और उदाहरण है। वो उदाहरण है वाइब्रेंट गुजरात समिट का। किसी राज्य का अपने राज्य की नीतियों को बताकर दुनिया से निवेश जुटाने का, यहां तक कि देश की ही दूसरे राज्यों से निवेश जुटाने का ये अनूठा अभियान है। और कितना निवेश आया, कम आया या ज्यादा आया। इसपर तो बहस होती है, होती रहनी चाहिए।  लेकिन, इसका राज्य की तरक्की में कितना महत्व है और आज इसे किस तरह से हर राज्य अपने राज्य की खूब के तौर पर दिखा रहा है। इससे तो इनकार नहीं किया जा सकता। इसीलिए शायद आईएमएफ का तरक्की का अनुमान और नरेंद्र मोदी का ऐसे समय में प्रधानमंत्री होना, दोनों ऐसी बातें हैं जिन्होंने शेयर बाजार को पंख लगा दिए हैं। मेक इन इंडिया को जिस पैमाने पर प्रधानमंत्री बेच रहे हैं और अमेरिका और जापान के कारोबारी जिस तरह से भारतीय बाजार को अपना मुख्य कारोबारी केंद्र बनाने की तैयारियां कर रहे हैं। वो सचमुच दुनिया का कारोबारी नक्शा बदलने वाला है। इसमें संदेह नहीं है। डॉक्टर मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्री सिद्धांतों की जिस तरह से मिट्टी पलीद करके कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने सामाजिक सुरक्षा का लबादा ओढ़ा था। वो इतना खोखला और भविष्य को मुंह चिढ़ाने वाला था कि न सामाजिक सुरक्षा गरीबों को मिल सकी और न ही देश में गरीबों को रोजगार देने वाले उद्योगों की रफ्तार पटरी पर आ सकी। इसीलिए जब नरेंद्र मोदी की सरकार आई तो कई बातें बिना वजह अच्छे नतीजे देने लगीं। सच्चाई यही है कि इन अच्छे नतीजों में से बहुत की बुनियाद डॉक्टर मनमोहन सिंह के समय में ही रखी गईं थीं। हालांकि, ये लोकतंत्र में होता रहता है कि एक सरकार के अच्छे फैसले या बुरे फैसले का असर उसके बाद आने वाली सरकार के हिस्से में जाए। लेकिन, अच्छे फैसलों पर अपनी छाप छोड़ने का काम जिस तेजी से नरेंद्र मोदी की सरकार कर रही है। उसमें लोग भूल ही जाएंगे कि सब्सिडी बिल धीरे-धीरे घटाने का काम डॉक्टर मनमोहन सिंह की ही सरकार ने किया था। और अब उसी के आधार पर सरकार खजाने की सेहत दुरुस्त हो रही है। इसपर किस्मत के धनी नरेंद्र मोदी को तेजी से गिरती कच्चे तेल की कीमतों वाले समय में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला है। जाहिर है आंकड़े दिखाकर भले ये साबित करने की कोशिश कोई भी करे लेकिन, जनता बार-बार तर्क नहीं देखती, सुनती।

व्यवहार में अगर महंगाई घट रही है। पेट्रोल, डीजल, सब्जी, फल सस्ते मिल रहे हैं तो वो सरकार की तारीफ करने ही लगती है। और कमाल की बात ये है कि आईएमएफ की तारीफ के पीछे बड़ी वजह सरकार का पेट्रोलियम सब्सिडी को घटाना मुख्य वजह है। आईएमएफ की मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टीना लगार्डे का मानना है कि भारत सरकार बेहतर काम कर रही है। इस बेहतरी की बुनियाद में वो संभावना है जो साल 2014-15 में भारत सरकार का एनर्जी बिल 60 प्रतिशत घटता दिखा रहा है। नरेंद्र मोदी की सरकार उन मोर्चों पर खास तेजी से काम कर रही है जिसकी वजह से दुनिया ने भारत को देखने की नजर बदल ली थी। फिर वो पेट्रोलियम सब्सिडी हो, इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को मंजूरी की बात हो या तेजी से फैसले लेने की। इसीलिए जब आईएमएफ ये कहता है कि 2016 तक भारत, चीन को तरक्की की रफ्तार में पीछे छोड़ देगा। तो दुनिया की नजर बदल जाना स्वाभाविक है। स्वाभाविक है कि भारतीय शेयर बाजार तेज रफ्तार से भागने लगें। और स्वाभाविक ये भी है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका चीन चिंतित हो जाए। और वहां के अखबारों में भारतीयों के चीन से मुकाबले की इच्छा पर चुटकियां ली जाने लगें। लेकिन, सच्चाई यही है कि भले चीन हमसे दस गुनी ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाए। लेकिन, सच्चाई यही है कि दुनिया को भारत का ताकतवर होना डराता नहीं है। चीन का ताकतवर रहना डराता है। इसीलिए दुनिया भारत के साथ खड़ी होना चाहती है। दिख भी रही है। बस एक बात नरेंद्र मोदी की सरकार को ध्यान में रखना होगा कि चीन की वामपंथी सरकार ने कारोबार के लिए हर समझौता कर लिया। चीन दस ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा की अर्थव्यवस्था बना दिया। लेकिन, चीन के साथ दुनिया का रिश्ता संदेह का ही है। जबकि, भारत का दुनिया से रिश्ता भरोसे का है। हमें चीन का मुकाबला नहीं करना है, बराबरी भी नहीं करनी है। क्योंकि, चीन की कारोबारी बराबरी करने के लिए उसकी बुराइयों की भी बराबरी जाने-अनजाने हो जाएगी। भारत को नरेंद्र मोदी बीस ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाएं। बस एक बुनियादी बात तय होनी चाहिए कि महात्मा गांधी की ही बात ध्यान में रहे कि कतार में खड़े आखिरी आदमी का हक मारा नहीं जाएगा। वरना शेयर बाजार की ये तेजीआईएमएफ का ये भरोसा ध्वस्त होने में समय नहीं लगेगा।

Thursday, January 22, 2015

उस दिल्ली में मोदी इस दिल्ली में बेदी


भारतीय जनता पार्टी का ये फैसला उल्टा पड़ता दिख रहा है। या सीधे कहें कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह और अरुण जेटली का फैसला उल्टा पड़ता दिख रहा है। दिल्ली में हर ओर बीजेपी की ताजा-ताजा नेता से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार बन गईं किरन बेदी के पक्ष में माहौल बनने से पहले ही बिगड़ता दिख रहा है। टेलीविजन की स्क्रीन पर शुरुआत मनोज तिवारी के थानेदार नहीं नेता वाले बयान और हर्षवर्धन के देर से चाय पार्टी में पहुंचने से हुई। तो इसके बाद दिल्ली में आई भाजपा की सूची ने ऐसी ढेर सारी तस्वीरें टीवी न्यूज चैनलों को परोस दीं जिससे पक्का हो जाता है कि दिल्ली में नेता के तौर पर किरन बेदी को लाने का फैसला उतना बेहतर नीचे तक जाता नहीं दिख रहा। आखिर क्या जरूरत थी लगातार सफलता के ऊंचे मापदंड स्थापित करती जा रही मोदी-शाह की जोड़ी को चुनाव से ठीक पहले इस तरह का फैसला लेने की। और सबसे बड़ी बात ये कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यक्ष से देश वित्त मंत्री के पद पर आसीन अरुण जेटली ने भी इस दांव को खेलने की जमीन पक्की करने में पूरी मेहनत की। किरन बेदी आईं और आकर भी अरविंद केजरीवाल की सीट से चुनाव लड़ने से बच गईं। अरविंद केजरीवाल ने किरन बेदी को आमने-सामने बहस की चुनौती दी, उससे भी किरन बेदी ने किनारा कर लिया। भगोड़ा केजरीवाल किरन बेदी को भगाता दिख रहा है। फिर भी मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी को क्या जरूरत थी कि वो किरन बेदी पर ही भरोसा कर रहे हैं। सिर्फ भरोसा नहीं किया। ऐसा दांव खेला है जिसे हारने की जरा सी भी गुंजाइश बनी तो वो राजनीति हार जाएगी जिसने उस दिल्ली में नरेंद्र मोदी को अप्रतिम व्यक्तित्व वाले प्रधानमंत्री के तौर पर पूर्ण बहुमत से चुन लिया है।

दरअसल मुश्किल यहीं है कि मोदी-शाह की जोड़ी के फैसलों को राजनेता और विश्लेषक दोनों ही तय खांचों में बांधकर देखते हैं। इसीलिए लगता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने अरुण जेटली पुरजोर पैरोकारी के साथ अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है। लेकिन, ऐसा है नहीं। अब जरा किरन बेदी के आने के बाद और पहले के समीकरणों पर चर्चा कर लें। शुरुआत इसी से कि आखिर क्या सूझी थी बीजेपी को किरन बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने की। इसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक तर्क और जवाब है। वो तर्क है अरविंद केजरीवाल। अगर अरविंद केजरीवाल जैसा नेता दिल्ली में नहीं होता तो मोदी-शाह किसी कीमत पर यहां कोई चेहरा चुनाव के पहले घोषित नहीं करते। लेकिन, ये दिल्ली है। और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल है जो हर बात पर नंगा होने, करने को तैयार दिखता है। इस केजरीवाल की दिल्ली में स्थिति ये है कि लोकसभा चुनाव के समय भी नरेंद्र मोदी को मत देने वाला नौजवान, मध्य वर्ग भी कहता रहा कि उस दिल्ली (लोकसभा) में मोदी लेकिन, इस दिल्ली (विधानसभा) में अरविंद केजरीवाल। यही असल कहानी है किरन बेदी के मुख्यमंत्री के तौर पर मैदान में आने की। हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर को उदाहरण के तौर पर पेश करने वाले भूल जाते हैं कि वहां परंपरागत राजनीति और उसी से निकले राजनेता मुकाबले में थे। इसलिए नरेंद्र मोदी के अलावा किसी नेता की जरूरत नहीं थी। लेकिन, यहां अरविंद केजरीवाल है जो परंपरागत राजनीति के सारे स्थापित समीकरणों की ऐसी तैसी करके दिखा चुका है। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी मुकाबले में थे जो खुद सारे परंपरागत मापदंडों को उलट चुके हैं। इसलिए अरविंद पिट गए। लेकिन, दिल्ली विधानसभा में बिना किसी चेहरे के मोदी मैजिक मुश्किल में पड़ता दिख रहा था। इसीलिए किरन बेदी को लाना पड़ा।

किरन बेदी को लाकर भारतीय जनता पार्टी ने अरविंद के सामने बराबरी का मुकाबला खड़ा कर दिया है। बल्कि कई मामलों में किरन बेदी अरविंद की राजनीति को आसानी से पटकनी देती नजर आती हैं। किरन बेदी अरविंद केजरीवाल की हर उस कमजोरी को जानती हैं जो घर का भेदी ही जान सकता है। और उस पर यहां तो रावण विभीषण जैसी मजबूती कमजोरी भी नहीं है। अरविंद के पास न तो रावण जैसी अथाह ताकत है और न किरन बेदी के पास विभीषण जैसी कमजोरी है। इसलिए बराबरी के मुकाबले में घर का भेदी तोड़ लेना बड़ी सफलता है। इसके बाद बात दोनों की काबिलियत की। अरविंद केजरीवाल शानदार विद्यार्थी रहे हैं। इंडियन रेवेन्यू सर्विसेज के अधिकारी रहे हैं। लेकिन, विज्ञापनों में वो भले ही कहते रहें कि कमिश्नर की नौकरी को उन्होंने लात मार दी। सच्चाई यही है कि अरविंद केजरीवाल असिस्टेंट कमिश्नर की शुरुआती नौकरी में ही रहे और उस ओहदे पर रहते हुए उन्होंने कोई बड़ा चमत्कार नहीं किया। अरविंद ने इस्तीफा अपने रास्ते खोजने के तहत दिया। जबकि, किरन बेदी के साथ ये जगजाहिर है कि व्यवस्था ने उन्हें दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बनने दिया। इसलिए किरन बेदी ने इस्तीफा दिया। किरन बेदी जहां भी रही हैं, वहां खुद को स्थापित करती आई हैं। इसलिए इस पैमाने पर भी किरन बेदी अरविंद केजरीवाल से बीस ही बैठती हैं।

बात हो रही है कि किरन बेदी का तानाशाही रवैया भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को बर्दाश्त नहीं हो रहा है। और इससे पार्टी में बिखराव होगा। अगर ऐसा होता तो किरन बेदी से कई गुना ज्या तानाशाही होने का आरोप नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर लगता रहा है। फिर तो बीजेपी को कहीं परिदृष्य में होना ही नहीं चाहिए था। दरअसल तानाशाही और मजबूत नेतृत्व में फासला बड़ा हल्का होता है। इसलिए जिस राजनीति को विश्लेषक तानाशाही राजनीति कहते हैं। उसे पार्टी कार्यकर्ता कब मजबूत नेतृत्व मानने लगता है ये समझना कठिन है। एक और तर्क है कि किरन बेदी अरविंद के सामने न चुनाव लड़ रही हैं और न ही बहस कर रही हैं। तो पहले मामले पर ये कि मोदी-शाह की जोड़ी आज की राजनीति के मामले में सबसे समझदार फैसले लेने वाली है। ये स्थापित होता रहा है। अब सोचिए कि नई दिल्ली सीट से किरन बेदी लड़तीं तो भी जीतता तो कोई एक ही। और मान लीजिए कि बीजेपी को बहुमत मिल जाता लेकिन, सिर्फ नई दिल्ली सीट अरविंद केजरीवाल जीत जाते तो मोदी-शाह के किरन बेदी को नेता चुनने पर ही बड़े सवाल खड़े हो जाते। फिर से बीजेपी में मुख्यमंत्री बनने की अंधी दौड़ शुरू हो जाती। अब दूसरा परिदृष्य मान लीजिए कि अरविंद नूपुर शर्मा से हार गए या जीते भी बहुत मुश्किल से और बीजेपी सरकार बना लेती है। ऐसे में अरविंद को हर रोज किरन बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर झेलना पड़ेगा। और अरविंद के ऊपर जिस तरह से तानाशाही के आरोप लगाकर ढेर सारे आम आदमी पार्टी के नेता बाहर हुए हैं। उसमें अरविंद को किरन बेदी की तथाकथित तानाशाही को झेलना ज्यादा कठिन होगा। अब बात ये कि बहस से भाग रही किरन बेदी जनता की नजरों में कमजोर साबित होंगी और बीजेपी के चुनाव अभियान पर इसका असर पड़ेगा। इसका जवाब सबसे बेहतर भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी दे सकते हैं। वो लालकृष्ण आडवाणी ही थे जिन्होंने मौन रहने वाले डॉक्टर मनमोहन सिंह को लोकसभा चुनाव से पहले बहस की चुनौती दी थी। इरादा उनका भी वही था कि मैं बहस में मनमोहन सिंह को हराऊंगा और उसी आधार पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने का हक भी मेरा पक्का हो जाएगा। लेकिन, इतिहास गवाह है कि न तो मनमोहन सिंह ने बहस की। न लालकृष्ण आडवाणी बहस कर सके, बहस जीत सके और न ही प्रधानमंत्री बन सके। और किरन बेदी को लाने का फैसला गलत है इसके तर्क देने वाले ज्यादातर वो बीजेपी के नेता हैं जो कभी न कभी मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले बैठे थे। जाहिर है विकल्प ही नहीं है वाले सिद्धान्त के आधार पर दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने की आस रखे भाजपा नेताओं को  अब अनिद्रा की नियमित बीमारी हो गई है। इसलिए वो आधी नींद में बड़बड़ा रहे हैं कि किरन बेदी बीजेपी का बेड़ा गर्क करने आई हैं। लेकिन, टेलीविजन चैनलों के सर्वे साफ दिखा रहे हैं कि अब तक बीजेपी का सबसे बेहतर चेहरा रहे डॉक्टर हर्षवर्धन से भी ज्यादा उत्साह कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में किरन बेदी का चेहरा देखने पैदा हो रहा है। सच्चाई भी यही है कि बीजेपी के कार्यकर्ता किरन बेदी को और किरन बेदी बीजेपी को हमेशा अपना स्वाभाविक विकल्प मानते रहे हैं और उसी स्वाभाविक विकल्प को सही समय पर मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी ने सलीके की पैकेजिंग में परोस दिया है। फिलहाल ब्रांड केजरीवाल पहले से ज्यादा मुश्किल में हैं। वरना तो बीजेपी से पहले ही अरविंद ने जगदीश मुखी को बीजेपी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके उनके साथ लड़ाई भी जीत ली थी।  

Wednesday, January 21, 2015

पिताजी की बीमारी के बहाने



ये कठिन था। बेहद कठिन। पिता के किसी भी उम्र में हाथ छोड़ने की स्थिति की कल्पना भी असहज कर जाती है। इस बार जब इलाहाबाद जाना हुआ तो कुछ इसी स्थिति से मैं गुजरा। अच्छी बात ये रही कि पिताजी अब पूरी तरह स्वस्थ हैं। दिमाग में खून की बूंदों के जमने का सफलतापूर्वक ऑपरेशन हो गया। लेकिन, इस बहाने से मैंने अपने जीवन की सबसे लंबी यात्रा कर ली। वो यात्रा गिनने को तो 200 किलोमीटर की ही थी। रास्ता भी बेहद जाना-पहचाना था। इलाहाबाद से लखनऊ का रास्ता। लेकिन, जब यात्रा एंबुलेंस से हो रही हो और एंबुलेंस में बीमारी की अवस्था में पिता हो तो रास्ते से पुरानी पहचान भी जरा सा भी ढांढस नहीं बंधा पाती। इलाहाबाद के अस्पताल से जब लखनऊ के लिए निकलना हुआ तो सिर्फ दो ठिकाने बताए गए। ये था लखनऊ का पीजीआई या फिर सहारा का अस्पताल। दिमाग में खून की बूंदें जमने के ऑपरेशन के लिए वैसे तो इलाहाबाद में भी कई अच्छ डॉक्टर हैं। लेकिन, मुश्किल वही कि उसके साथ लगी सुविधाओं की कमी साफ नजर आती है। उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हर तरह से राजधानी लखनऊ के बाद सबसे बेहतर मौके वाला शहर है। वहां की ये स्थिति है। सवाल ये कि कोई भी सरकार खुद से या निजी उद्यमियों के सहयोग ये क्या ऐसा नहीं कर सकती कि अधिकतम 100 किलोमीटर की दूरी पर स्वास्थ्य लगभग सारी सुविधाओं वाला अस्पताल मिल सके।

इलाहाबाद में डॉक्टर थे। लेकिन, अच्छा अस्पताल न होने से हम लोग लखनऊ के लिए निकल पड़े। इलाहाबाद शहर से बाहर निकलते ही गंगा पुल के बाद ही लंबे जाम में हम फंस गए। करीब डेढ़ किलोमीटर लंबा जाम। कोई खास वजह नहीं। बस मामला इतना था कि दो तरफ से आने वाला यातायात वहां जुड़ रहा था। और इतना संभालने की सरकारी व्यवस्था और निजी समझ अब तक नहीं बन पाई है। एंबुलेंस को रास्ता न मिलने के ढेर सारे मौके देखे हैं। उस पर गुस्सा भी आया है। लेकिन, खुद एंबुलेंस में फंसे जब एंबुलेंस बंद करने की स्थिति आई तो गुस्से का वो अहसास भीतर तक सालने लगा कि हम खुद को सभ्य कह सकते हैं क्या। हालांकि, बात ये भी सच ही थी कि एंबुलेंस के आगे वाला बेहद संवेदनशील भी होता तो भी वो अपनी गाड़ी हटा नहीं सकता था।

इलाहाबाद से लखनऊ को जोड़ने वाली सड़क कम से कम हम लोगों के पढ़ने के वक्त तक राज्य की सबसे बेहतर सड़कों में मानी जाती थी। पिताजी को एंबुलेंस में लेकर जब हम निकले तब समझ में आया कि उत्तर प्रदेश में सड़कों का कितना बुरा हाल है। बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं इलाहाबाद को लखनऊ से जोड़ने वाली महत्वपूर्ण सड़क पर। उम्मीद की किरण बस यही है कि अब वो राष्ट्रीय राजमार्ग में शामिल हो गया है। इसलिए रायबरेली से लखनऊ की सड़क बेहतर हो गई है।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...