Monday, December 28, 2015

पट्टीदारी की झगड़ा ऐसे ही सुलझता है

शहरों में बसते जा रहे भारत के नौजवानों को ये बात शायद ही समझ में आएगी। क्योंकि, शहरी इंडिया के पास तो पड़ोसी से झगड़ा करने की छोड़ो उससे जान-पहचान बढ़ाने के लिए भी शायद ही वक्त होता है। इसलिए गांव में पट्टीदारी के झगड़े में एक—दूसरे की जान लेने पर उतारू लोग और अचानक एक-दूसरे को भाई बताने वाली बात कम हो लोगों को समझ आएगी। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देते-देते अचानक उनके घर पहुंचने और फिर उनकी नातिन के निकाह में शामिल हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे वही गांव-घर वाली पट्टीदारी याद दिला दी है। पट्टीदारी मतलब की पीढ़ी पहले एक ही रहे लोगों के बढ़ते परिवार का गांव में एक साथ रहना। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी तो कुछ इसी तरह का है। गांव में ऐसे ही भाई-भाई के बीच बंटवारा होता है। पीढ़ियां बढ़ते बंटवारा भी बढ़ता जाता है। और इस बढ़ते बंटवारे के साथ घटता जाता है एक दूसरे से प्रेम। घटती जाती है संपत्ति। फिर बढ़ता है झगड़ा। और फिर एक दूसरे की जान लेने से भी नहीं चूकते हैं गांववाले। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का हाल भी 1947 के बाद से कुछ ऐसा ही रहा है। जाहिर है हिंदुस्तान बेहतर हो गया। ज्यादा तरक्की कर गया। पाकिस्तान अपने नालायकों को काम में नहीं लगा सका। तो बड़े भाई की तरक्की से जलन बढ़ती चली गई। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के मामले में ये जलन बढ़ने की बड़ी वजह हिंदू होना और मुसलमान होना हुआ। और ऐसा हुआ कि लगने लगा कि ये झगड़ा कभी सुलझ नहीं सकता। अभी भी यही लग रहा है कि ये झगड़ा कभी नहीं सुलझेगा। भले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर तक बिना किसी औपचारिक कार्यक्रम के भारतीय प्रधानमंत्री चले गए हों। भले नवाज की नातिन की शादी में उसे आशीर्वाद, तोहफे भी दे आए हों। लेकिन, हिंदुस्तान-पाकिस्तान का झगड़ा जिस तरह का है। वो इसी तरह की गैरपरंपरागत सोच से सुधर सकेगा।

भारतीय प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का होना पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने के लिए शायद सबसे माकूल हो सकता है। पाकिस्तान की नजर में देखें, तो उनके लिए नरेंद्र मोदी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे के तौर पर दिखते हैं। ये वो चेहरा है जिसे दिखाकर हाफिज सईद जैसे आतंकवादी पाकिस्तान के लोगों को हिंदुस्तान के खिलाफ लड़ने के लिए आसानी से तैयार कर पाते हैं। मोदी के दौरे के बाद हाफिज सईद ने तुरंत जहर उगला कि इस यात्रा ने पाकिस्तान की आम जनता का दिल दुखाया है। मोदी का तहेदिल से स्वागत करने के नवाज शरीफ को पाकिस्तान की जनता को सफाई देनी चाहिए। निश्चित तौर पर पाकिस्तान की जनता के मन में हिंदुस्तान के लिए ऐसे बुरे ख्यालात बिल्कुल नहीं हैं और न ही हिंदुस्तान की जनता के मन में ऐसे बुरे ख्यालात पाकिस्तान की जनता के लिए हैं। एक छोटा सा मौका बनता है और दोनों देशों के लोग अपनी पुरानी यादें लेकर बैठ जाते हैं। लेकिन, ज्यादा तनाव के माहौल में हमें वो आवाज तेज सुनाई देती है। जो गोली चलवा देता है। ऐसे में हाफिज सईद जैसे आतंकवादियों की नजर से पाकिस्तान के उसी सबसे बड़े दुश्मन चेहरे का बिना किसी औपचारिक बुलावे के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के घर नातिन की शादी में पहुंचना हाफिज सईद जैसों की आतंकवादी, अलगाववादी बुनियाद पर तगड़ी चोट करता है। हालांकि, इस अप्रत्याशित, अनौपचारिक लाहौर यात्रा का कांग्रेस का विरोध परेशान करता है। कांग्रेस बार-बार यही तो चिल्लाकर कहती रही है कि बीजेपी आएगी, तो पाकिस्तान के साथ जंग करेगी। और जंग हिंदुस्तान के हक में नहीं है। अब कांग्रेस कह रही है कि नरेंद्र मोदी की ये यात्रा एक कारोबारी के हितों को बेहतर करने की है। न कि भारत के हितों को बेहतर करने की। अब ये तो हो सकता है कि कोई कारोबारी नवाज शरीफ से मुलाकात कराने में माध्यम बना हो। लेकिन, ये कौन यकीन मानेगा कि इस तरह की यात्रा किसी कारोबारी के हित को बेहतर करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। जनता दल यूनाइटेड और आम आदमी पार्टी की प्रतिक्रिया भी इस गैरपरंपरागत राजनय पर बेहद परंपरागत रही। दोनों ने ही इसकी आलोचना की है और प्रधानमंत्री मोदी पर व्यंग्य किया है। विदेश नीति के मामलों में शिवसेना की प्रतिक्रिया पर कान देना उचित कम ही लगता है। अच्छी बात ये है कि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस पर प्रधानमंत्री की तारीफ की है। इस मामले में संतुलित प्रतिक्रिया रही है वामपंथी पार्टियों की। मोहम्मद सलीम और सीताराम येचुरी दोनों ने ही प्रधानमंत्री के इस दौरे को बेहतर कहा है। लेकिन, सभी को इस बात की आशंका है कि ये कहीं फोटो अपॉर्चुनिटी ही बनकर न रह जाए। और ये आशंका बेवजह है भी नहीं। लेकिन, इतनी आशंकाओं के बीच अगर ये दौरा हो गया, तो निश्चित तौर पर भविष्य के ये सुखद संकेत हैं।

नवाज शरीफ के जन्मदिन की बधाई इसका माध्यम बन गई। संयोग से नवाज भी उसी दिन जन्मे हैं जिस दिन भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को सुधारने का बेहतर अध्याय लिखने की कोशिश करने वाले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन रहा। संयोग ये भी है कि पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का भी जन्मदिन यही है। इस पर तरह-तरह की आ रही प्रतिक्रियाओं के बीच सोशल मीडिया पर एक वीडियो गजब वायरल हुआ है। इसमें एक पाकिस्तानी चैनल की न्यूज एंकर इस दौरे पर रिपोर्टर से सवाल पूछती है। रिपोर्टर इसे एक बड़ी दुर्घटना जैसा बताता है। तौबा तौबा से रिपोर्टर अपने लाइव की शुरुआत करता है। खत्म भी वहीं करता है। दरअसल ये उस जड़ भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को भी दिखाता है। जिसमें ऐसे किसी भी राजनयिक रिश्ते के लिए जगह ही नहीं है। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह से गैरपरंपरागत राजनय के लिए जाने जा रहे हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के साथ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को शपथ ग्रहण में आमंत्रित करके कर दी थी। प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने एक समय अलगाववादी रहे सज्जाद लोन से मुलाकात करके और बाद में उसे पीडीपी-बीजेपी की सरकार में मंत्री बनवाकर भी इसी तरह के गैरपरंपरागत राजनय का उदाहरण दिया था।

जिस परंपरागत खांचे में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के रिश्ते को देखा जाता है और माना जाता है कि दोनों देशों के रिश्ते कभी ठीक नहीं हो सकते। वही परंपरागत खांचा ये भी कहता, साबित करता था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू कश्मीर में कभी नहीं बन सकती और वो भी पीडीपी के साथ तो कभी नहीं। लेकिन, ये हुआ। भारतीय राजनीति के लिहाज से मुख्यत: हिंदुओं की पार्टी बीजेपी और मुख्यत: मुसलमानों की पार्टी पीडीपी की साझा सरकार जम्मू कश्मीर में बन गई। बीच-बीच में आ रही मुश्किलों के बावजूद काम भी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस दौरे को पाकिस्तान में काफी तारीफ मिल रही है। बिलावल भुट्टो ने भी इसे अच्छा कदम बताया है। पाकिस्तान के मीडिया ने भी इसे सराहा है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि अमेरिकी मीडिया में भी इसे सकारात्मक कहा जा रहा है। चौंकाने वाला मैं इसलिए कह रहा हूं कि बार-बार यही कहा जाता है कि अमेरिका ही है, जो नहीं चाहता कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सामान्य रहें। अब अगर ये अमेरिकी दबाव है कि मोदी-शरीफ मिल रहे हैं, तो इसे क्या कहा जाएगा। यही न कि हमारी जरूरत अब अमेरिका की भी जरूरत बन रही है। आलोचना के लिए भले कांग्रेस इस दौरे की आलोचना कर रही है। लेकिन, ये आलोचना दरअसल इसलिए भी है कि मोदी का ये दौरा यूपीए सरकार के दस सालों की विफलता को और साफ तरीके से देश के लोगों को दिखा रहा है। दस साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद विनम्र मनमोहन सिंह पाकिस्तान नहीं जा सके। तथ्य ये भी है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह का जन्मस्थान पाकिस्तान में ही है। जबकि, भारतीय जनता पार्टी और अभी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो आक्रामक शैली के नेता हैं। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के बाद मोदी ही पाकिस्तान जा पहुंचे। और ये इतना भी अनायास नहीं था। इससे पहले दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बैंकॉक में मिल चुके हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान जा चुकी हैं। विदेश मंत्रालय के पत्रकारों को दिए भोज में सुषमा स्वराज ने हम पत्रकारों को बताया कि कैसे नवाज की मां ने कहा कि बेटी तू मुझसे कम से कम वादा करके जा कि भारत पाकिस्तान के रिश्ते की गाड़ी पटरी पर ले आएगी।


हिंदुस्तान में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री होना अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री होने से भी माकूल वजह है। पूर्ण बहुमत की सरकार है। संसद के अलावा देश में भी मोदी के समर्थक ऐसे हैं कि उन्हें भक्त कहा जा रहा है। पाकिस्तान को इस लिहाज से समझना जरूरी है कि रावण की तरह पाकिस्तान के भी दस सिर हैं। इसलिए जहां नवाज शरीफ से इस तरह की बातचीत जरूरी है। वहीं आतंकवाद, उग्रवाद वाले चेहरों से उसी भाषा में निपटना भी पड़ेगा। इसके भी संकेत लाहौर जाने के कुछ ही घंटे पहले काबुल में वहां की संसद का उद्घाटन करते प्रधानमंत्री मोदी ने दे ही दिए थे। अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर अजित डोभाल की मौजूदगी पाकिस्तान की गलत हरकतों से भारत की सुरक्षा को आश्वस्त करती है। और पाकिस्तान को डराती भी है कि ये हमारी हरकतों के बारे में सब जानता है। अगर ऐसा नहीं होता, तो भारतीय प्रधानमंत्री पाकिस्तान की धरती पर पाकिस्तानी सेना के हेलीकॉप्टर में नहीं यात्रा करते। इस यात्रा के बाद विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप का ट्वीट काफी कुछ कहता है। विकास स्वरूप ने लिखा- काबुल में सुबह का नाश्ता, लाहौर में चाय और दिल्ली में रात का खाना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनय के अनूठे दिन को पूरा करके वापस लौटे। और यही तो प्रधानमंत्री रहते डॉक्टर मनमोहन सिंह ने सपना देखा था। फिर से कह रहा हूं ये पट्टीदारी का झगड़ा है। ऐसे ही सुलझेगा। इस मसले पर ऑस्ट्रेलिया के SBS रेडियो ने भी मुझसे फोन पर बातचीत की।

Saturday, December 19, 2015

सम्वेदनहीन विपक्ष

#JyotiSingh #JusticeForNirbhaya #JusticeJuvenileDebate लोकसभा टीवी पर चर्चा में शामिल हुआ। विषय था कि विपक्ष ने कांग्रेस की अगुवाई में राज्यसभा के बचे 3 दिन में जरूरी बिल की मंजूरी की इजाजत दे दी है। चर्चा में जाने से पहले जब इस पर पढ़ा, तो भौंचक रहा गया। सहमति के बिलों में कई महत्वपूर्ण बिल थे ही नहीं। सबसे दुखद सम्वेदनहीन रवैया रहा सांसदों का The Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Bill, 2014 पर। ये वो बिल है जो 16-18 साल के किसी युवक-युवती के अपराधी होने पर उनके खिलाफ भी वयस्कों के यानी देश के सामान्य कानून के लागू होने की बात करता है। लेकिन, सरकार की लगातार कोशिश के बावजूद कांग्रेस की अगुवाई वाला विपक्ष पता नहीं क्यों इस बिल को मंजूरी देने के बजाए इसे फिर से सेलेक्ट कमेटी को भेजना चाहता है। अगर ये बिल मंजूर हो जाता तो निर्भया का बलात्कारी/हत्यारा जेल से नहीं छूटता। ये देश के सांसदों की संवेदनहीनता है। उस पर दिल्ली पुलिस ने कमाल किया है कि बेटी के बलात्कारी/हत्यारे को छोड़ने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे ज्योति सिंह के माता-पिता को गिरफ्तार कर लिया। दुर्भाग्य है देश का। ज्योति के माता-पिता ने कहा है कि हम हार गए, वो जीत गया। मुझे लगता है कि सचमुच हम हार रहे हैं। 16 दिसंबर के बाद एक चैतन्य दिखा देश हार रहा है। स्वस्थ समाज हार रहा है। इस हार को जीत में बदलना जरूरी है। हिंदुस्तान की आत्मा जीवित रहे। इसके लिए जरूरी है। हर हाल में जरूरी है। कुछ सांसदों को उनकी पार्टी को जीवित रखने के लिए देश की आत्मा को मारने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

Wednesday, December 09, 2015

सिर्फ दिखावे का न रह जाए कारों पर रोक का फैसला

नए साल की नई सुबह दिल्लीवालों के लिए अजीब सी मुश्किल लेकर आएगी। अरविंद केजरीवाल की सरकार ने अभी एक फैसला लिया है। या यूं कहें कि फैसला लेते हुए दिखना चाहती है अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार। दिल्ली की सरकार ने एक जनवरी 2016 से दिल्ली की सड़कों पर कारों की संख्या घटाने के लए एक सबसे आसान तरीका लागू करने का फैसला किया है। वो फैसला है कि सम-विषम संख्या पर खत्म होने वाली कारों को अलग-अलग दिन चलने की इजाजत होगी। दिन भी तय हो गए हैं। शून्य, दो, चार, छे, आठ पर खत्म होने वाली कारें मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को चलेंगी। जबकि, एक, तीन, पांच, सात और नौ पर खत्म होने वाली कारें सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को चल पाएंगी। रविवार को सभी को कार चलाने की इजाजत होगी। ये फैसला अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली के बेहद खतरनाक हो चुके प्रदूषण को कम करने के लिए किया है। फिर मैं क्यों कह रहा हूं कि केजरीवाल की सरकार सिर्फ अच्छा फैसला लेते हुए दिखना चाहती है। मैं क्यों अरविंद के इस फैसले के साथ पूरी मजबूती से खड़ा नहीं हो रहा। दरअसल, ये फैसला लागू हो ही नहीं सकता। ये समझ में आने की ही वजह से शायद अब केजरीवाल ने ये कहा है कि अगर लोगों को परेशानी होगी, तो वो फैसला वापस ले लेंगे। सच्चाई ये भी है कि इस पर फैसला लेने में जितनी देरी हुई है। उसके लिए दिल्ली की राज्य सरकार के साथ केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है। कारों की संख्या सीधे-सीधे घटाकर शायद ही दिल्ली के खतरनाक हो चुके प्रदूषण को सरकार इतनी तेजी से कम कर पाए। उसके लिए जिस तरह की योजना बननी थी। वो नहीं बनाई गई। कमाल तो ये है कि अभी दिल्ली सरकार के फैसले को देर आए दुरुस्त आए नहीं कह सकते। दिल्ली में प्रदूषण की असली वजह पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर का बढ़ना है। 2.5 माइक्रोमीटर से छोटे कण स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। और इसी की दिल्ली की हवा में अधिकता हो गई है।

अच्छी स्वस्थ हवा के लिहाज से समझें, तो पीएम 2.5 का शून्य से पचास तक होना बहुत अच्छा होता है। पचास से सौ के बीच में होना भी हवा के लिए अच्छा ही है। पीएम 2.5 के सौ से एक सौ पचास के बीच में होने का मतलब है कि बुजुर्गों, बच्चों और बीमार लोगों के लिए हवा मुश्किल बढ़ाएगी। एक सौ पचास से दो सौ के बीच अगर हवा में पीएम 2.5 हैं, तो इसका सीधा सा मतलब हुआ कि इस हवा में स्वस्थ रहने की गुंजाइश कम है। दो सौ से तीन सौ के बीच पीम 2.5 का होना स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। जबकि, तीन सौ के ऊपर मतलब सिर्फ और सिर्फ बीमारियां देने वाली हवा। और दिल्ली की हवा बेहद खराब है ये जानने-समझने वाले भी शायद ही जानते-समझते होंगे कि दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मात्रा तीन सौ के ऊपर है। और वो भी लगातार। फिलहाल इसके कम होने के संकेत भी कम ही हैं। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि मुंबई शहर में भी हवा में पीएम 2.5 की मात्रा दो सौ से तीन सौ के बीच है। अब फिर से बात दिल्ली में लागू होने वाले कार प्रतिबंध की। वैसे तो प्रदूषण घटाने के लिए किसी भी अप्रिय फैसले का स्वागत होना चाहिए। लेकिन, थोड़ा समझना जरूरी है कि कारों पर सम-विषम वाला प्रतिबंध लगाने से कितना फायदा होगा और कितनी मुश्किलें लोगों को झेलनी होंगी। मुंबई में मार्च 2015 तक के आंकड़ों के मुताबिक 25 लाख से ज्यादा मोटरसाइकिल और कारें हैं। यानी दो करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले मुंबई की आदत सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने की बहुत अच्छी है। ये अलग बात है कि मुंबई की लोकल में लटकते दिखते लोग साफ बताते हैं कि मुंबई का सार्वजनिक परिवहन लगातार बढ़ते दबाव को झेल नहीं पा रहा है। इस पचीस लाख में कारें सिर्फ आठ लाख हैं। बाकी दोपहिया वाहन हैं। मुंबई में जगह की कमी से इतनी मोटरसाइकिल और कारों को झेलना ही शहर के लिए मुसीबत बन रहा है। मुंबई में हवा में प्रदूषण का स्तर दो सौ से तीन सौ के बीच में रह रहा है। और ये भी चार पहिया या दोपहिया का मोह मुंबईकर में हाल ही में तेजी से बढ़ा है। वो भी तब जब मेट्रो भी एक रास्ते पर मुंबई में भी पहुंच गई है। मुंबई की लोकल में पहले से बेहतर हवादार और ज्यादा लोगों को ले जाने वाले डिब्बे लग गए हैं। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि लंबे समय से सार्वजनिक परिवहन के लिए मशहूर मुंबई के लोगों को भी अब सार्वजनिक परिवहन में यात्रा कर पाना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि, सार्वजनिक परिवहन की जबर्दस्त मारामारी के बाद भी अब उसमें यात्रा कर पाना ही संभव नहीं रहा। इसलिए इस बात को सफाई से समझना होगा कि कारों की संख्या या फिर दोपहिया वाहनों की संख्या बढ़ने का सीधा सा मतलब ये तो हो सकता है कि शहर में सार्वजनिक परिवहन की पूरी व्यवस्था नहीं है। लेकिन, इसका दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि उस शहर विशेष में उससे ज्यादा सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था कर पाना ही संभव नहीं है। मुंबई शहर के उदाहरण से इसे बेहद आसानी से समझा जा सकता है।

इसी को थोड़ा और अच्छे से समझने के लिए मुंबई से सिर्फ डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे शहर की स्थिति भी समझने की कोशिश करते हैं। पुणे शहर बड़े शहरों में वायु प्रदूषण के लिहाज से रहने के लिए सबसे बेहतर शहरों में है। उस पुणे शहर में कार-दोपहिया वाहनों की संख्या मुंबई से ज्यादा हो गई है। यहां करीब इकतीस लाख वाहन हैं। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि सिर्फ कार-मोटरसाइकिल कम कर देने से हवा में प्रदूषण इतना कम नहीं होने वाला। हां, पुणे में मुंबई के लिहाज से रहने वालों की संख्या और जगह का फर्क बहुत ज्यादा है। पुणे मुंबई के लिहाज से ज्यादा बड़े क्षेत्रफल में बसा हुआ है। पुणे 710 वर्ग किलोमीटर में बसा है। जबकि, शहर की कुल आबादी एक करोड़ से भी कम है। क्षेत्रफल के लिहाज से मुंबई सिर्फ 603 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बसी हुई है। लेकिन, यहां की आबादी सवा दो करोड़ से ज्यादा है। इसी से समझा जा सकता है कि मुंबई के लोगों के पास इतनी कम जगह में अपना वाहन रखने का विकल्प ही नहीं है। दिल्ली 1484 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। और यहां की आबादी एक करोड़ अस्सी लाख से ज्यादा है। दिल्ली के इतने बड़े क्षेत्रफल के कारण ही यहां लोगों को अपना वाहन रखना जरूरी लगने लगता है। हां, दिल्ली का खराब सार्वजनिक परिवहन होना भी इसकी एक बड़ी वजह है। हालांकि, मेट्रो आने के बाद ये सुधरा है। दरअसल यही सबसे बड़ी वजह है कि व्यवस्थित शहर की परिकल्पना हमने की ही नहीं है। इसीलिए अभी भी ये मुश्किल खत्म करने के बजाए सरकारें सिर्फ इस खतरे को थोड़ा और सरकाने तक ही फैसले ले रही हैं।

इसको थोड़ा और समझते हैं। अब अगर मुंबई के मुकाबले दिल्ली की बात करें, तो दिल्ली में हवा में प्रदूषण का स्तर तीन सौ से चार सौ के बीच है, जो बेहद खतरनाक है। और यहां कुल वाहनों की संख्या करीब नब्बे लाख है। ये संख्या कार और दोपहिया मिलाकर है। इसमें सिर्फ कारें ही तीस लाख हैं। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि दिल्ली के लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना पसंद नहीं करते। दरअसल दिल्ली की बसों की सेवा ही इतनी खराब है। और दिल्ली के ऑटो और मुंबई के ऑटो-टैक्सी के अंतर पर किस्से तो सब जानते ही हैं। जैसे ही दिल्ली वालों को सार्वजनिक परिवहन का एक बेहतर विकल्प मेट्रो के तौर पर मिला। दिल्ली की ज्यादा मेट्रो लाइनों पर यात्रियों की संख्या अपनी क्षमता से ऊपर यात्रियों को लाने-ले जाने का जरिया बन गई। यानी दिल्ली की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था इतनी दुरुस्त नहीं है। अब ऐसे में अचानक प्रदूषण घटाने के लिए लिया गया कारों पर प्रतिबंध का ये फैसला तुगलकी फैसले की ही श्रेणी में आता दिख रहा है।


कारों पर प्रतिबंध लगाकर प्रदूषण कम करने के सरकार के फैसले को चुनौती ऑटो इंडस्ट्री के लोग देने लगे हैं। सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति के चेयरमैन आर सी भार्गव का कहना है कि उनकी पेट्रोल कारें ना के बराबर ही पीएम 2.5 निकालती हैं। अलग-अलग समय पर आए शोध भी साफ कहते हैं कि दिल्ली के प्रदूषण में भागीदारी कारों के धुएं की बहुत कम है। मई 2014 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बता दिया था। वायु प्रदूषण बढ़ाने में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी सड़कों की धूल और एनसीआर क्षेत्र में हो रहे धुआंधार रियल एस्टेट कंस्ट्रक्शन की है। पचास प्रतिशत वायु प्रदूषण इसी वजह से है। एनसीआर क्षेत्र में हजारों रियल एस्टेट प्रोजेक्ट हैं। जो लगातार बढ़ते जा रहे हैं। सबसे खतरनाक बात ये है कि नियम कानून को ताकत पर रखकर तैयार हो रहे ये घर दरअसल मांग से बहुत ज्यादा हैं। ये इससे समझ में आ जाता है कि सिर्फ नोएडा में ही करीब डेढ़ लाख घर हैं जिनके खरीदार नहीं हैं। लेकिन, बिल्डर नए प्रोजेक्ट की शुरुआत करते हुए घर खरीदने वालों को फंसाता जाता है। अगर सरकार इस पर काबू पा सके, तो बहुत बड़ी कामयाबी वायु प्रदूषण रोकने में मिल सकती है। वायु प्रदूषण में तेईस प्रतिशत हिस्सेदारी उद्योगों की है। वायु प्रदूषण के अलावा ये उद्योग ही हैं। जिनकी वजह से यमुना काली हो गई है। अब बात गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण की। ये करीब सात प्रतिशत है। और ये पूरी सात प्रतिशत सिर्फ निजी कारों या दोपहिया से होने वाला वायु प्रदूषण नहीं है। इसमें बस, ट्रक, टैक्सियां भी शामिल हैं। अब इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि मैंने लेख की शुरुआत में ही ये क्यों कहाकि दिल्ली सरकार का ये फैसला सिर्फ फैसला लिया गया है। ये दिखाने के लिए किया गया लगता है। निश्चित तौर पर दिल्ली की हवा का हाल बेहद खराब है। इतना कि तुरंत ढेर सारे कड़े फैसले लेने की जरूरत है। जिसमें से एक वाहनों की संख्या पर रोक लगाने का भी है। लेकिन, वायु प्रदूषण की बड़ी वजहों पर सरकार कुछ नहीं सोच रही है। दिल्ली और केंद्र सरकार को ये तुरंत सोचना होगा। 

Saturday, December 05, 2015

राजनीति में खेलिये, क्रिकेट में क्यों खेलते हैं नेताजी?

भाजपा सांसद युवा मोर्चा के अध्यक्ष और #BCCI सचिव @ianuragthakur बड़ी मासूमियत से भारत-पाक सीरीज के पक्ष में बोल रहे हैं। उनके कहे का लिंक भी लगा रहा हूं। जो उन्होंने बार-बार ट्वीट किया है। जो वो कह रहे हैं वो इतना सीधा मासूम नहीं हैं। वो सीधे एक पक्ष हैं। इसलिए उनकी बात को गंभीरता से उतना ही लिए जाने की जरूरत है जितना सरकार उद्योग संगठनों की सुनती है और जैसे सुनती है। क्रिकेट जैसा उद्योग चूंकि सारे दलों के नेता मिलकर चलाते हैं। इसलिए ये चलता रहे। फिर चाहे भारत के पाकिस्तान से मानवीय और औद्योगिक रिश्ते कितने ही खराब रहें। क्योंकि, उससे सीधे-सीधे नेताओं का कुछ बुरा नहीं हो रहा। अब अगर पाकिस्तान से हमारे राजनयिक कारोबारी संबंध बेहतर नहीं हो रहे, तो क्रिकेट खेलकर कौन सी डिप्लोमेसी हो जाएगी। मैं निजी तौर पर किसी भी प्रतिबंध का विरोधी हूं। लेेकिन, अनुराग ठाकुर की मासूमियत में मुझे सारी पार्टियों का क्रिकेट कनेक्शन पैसे के ढेर पर भारतीय जनमानस की खिल्ली उड़ाता दिखता है। इसीलिए जब अनुराग कहते हैं कि सोशल मीडिया से ही हर बात तय नहीं की जा सकती। तो मुझे लगता है कि ये उस पार्टी का नेता कह रहा है जिसके पूर्ण बहुमत में #SocialMedia का बड़ा हाथ है। जिस सरकार के नेता, मंत्री, सासद से लेकर छोटे नेता तक सोशल मीडिया पर बड़े से बड़ा हो जाना चाह रहे हैं। उस पार्टी के सांसद का ये कहना कि सबकुछ सोशल मीडिया से ही तय नहीं होना चाहिए। उस चेहरे को बेनकाब करता है। जिसमें सबके हित छिपे हुए हैं। फिर से कह रहा हूं कि मैं निजी तौर पर प्रतिबंध के खिलाफ हूं लेकिन, अब तय होना चाहिए कि भारत के नेताओं को धनधान्य से भरपूर रखने के लिए क्रिकेट डिप्लोमेसी हो रही है या फिर सचमुच इससे भारत-पाक के रिश्ते कभी सुधरते हैं। इसलिए फिलहाल तो मैं #NoCricketWithPakistan कह रहा हूं। क्रिकेट डिप्लोमेसी की आड़ में नेताओं की अमरबेल की जड़ में मट्ठा पड़ना जरूरी है। पत्रकारिता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए ही मैंने अनुराग ठाकुर के बयान का लिंक भी लगाया है। लेकिन, ये नेताजी लोग राजनीतति खेलते क्रिकेट क्यों खेलने लगते हैं। इनके बयान को सुनकर ये सीरीज कराने की आतुरता भी समझ में आएगी।

Friday, December 04, 2015

राज्य में नेता की कमी बीजेपी की सबसे बड़ी मुश्किल

ये नरेंद्र मोदी का प्रभाव है या कहें कि उनके प्रभाव का विरोधियों में डर है कि हर चुनाव के बाद ये चर्चा होने लगती है कि मोदी का प्रभाव घटा या नहीं। इससे भी आगे बढ़कर विरोधी कहते हैं कि नरेंद्र मोदी की लहर खत्म हो गई है। और समर्थक कहते हैं कि मोदी लहर जारी है। वैसे तो ये बहस कभी खत्म ही नहीं हुई। लेकिन, अब ये ताजा बहस शुरू हुई है नरेंद्र मोदी के गृह प्रदेश गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजे आने के बाद। हालांकि, जिस तरह से ठीक स्थानीय निकाय, जिला पंचायत चुनाव के पहले पटेलों ने आंदोलन शुरू किया था। उससे तो दिल्ली की मीडिया ने ये निष्कर्ष साफ तौर पर निकाल लिया था कि अब बीजेपी के गुजरात में साफ होने की शुरुआत हो जाएगी। ऐसा हो नहीं सका। गुजरातियों की पहली पसंद अभी भी बीजेपी ही है। गुजरात की सभी छे महानगरपालिका में कमल का ही कब्जा है। जिला पंचायतों में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है। इकतीस में से तेईस जिला पंचायतें हाथ की पकड़ में आ गई हैं। तालुका पंचायतों मे भी कांग्रेस बेहतर स्थिति में रही है। एक सौ तिरानबे में से एक सौ तेरह हाथ की पकड़ में हैं। लेकिन, बड़े शहरों की तरह नगर पालिकाओं में भी अभी बीजेपी कांग्रेस से बहुत मजबूत है। छप्पन में से बयालीस सीटों पर कमल खिला है।

इन आंकड़ों के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के समर्थक कह सकते हैं कि गुजरात में अभी भी उनका कब्जा बरकरार है। तर्क ये भी आ सकता है कि जिला पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव विधानसभा या लोकसभा चुनाव के संकेत नहीं दे पाते हैं। बीजेपी समर्थकों का ये तर्क उत्तर प्रदेश के संदर्भ में तो ठीक हो सकता है। जहां अभी हुए जिला पंचायत चुनावों में बीजेपी तीसरे नंबर पर रही। लेकिन, गुजरात के संदर्भ में ये बिल्कुल सही नहीं है। क्योंकि, गुजरात में स्थानीय निकाय, जिला पंचायत और विधानसभा, लोकसभा के चुनाव नतीजे लगभग एक जैसे ही आते रहे हैं। एक और महत्वपूर्ण बात ये भी है कि गुजरात में सीधी लड़ाई है। सीधी लड़ाई का मतलब ये कि भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरा है ही नहीं। पहले बिंदु पर बात करें, तो नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भारतीय जनता पार्टी राज्य में कभी कोई चुनाव नहीं हारी है। यानी करीब चौदह सालों तक गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को किसी चुनाव में हार का सामना नहीं करना पड़ा है। इस लिहाज से गुजरात में करीब डेढ़ दशक में जिला पंचायत चुनावों में हुई हार भारतीय जनता पार्टी की पहली हार है। महानगर पालिका में 2010 में बीजेपी ने 443 सीटें जीतीं थीं जो, 2015 में घटकर 389 रह गईं। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 100 सीटें मिलीं थीं जो, 2015 में बढ़कर 176 हो गईं। नगर पालिका की बात करें, तो 2010 में बीजेपी ने 1245 सीटें जीतीं थीं। जो, 2015 में 1199 हो गईं। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 401 सीटें मिलीं थीं। वो बढ़कर 2015 में 674 सीटें हासल कर ले गई। अभी तक फासला बीजेपी के पक्ष में ज्यादा बना हुआ है। लेकिन, जिला पंचायत में 2010 में बीजेपी ने 547 सीटें जीतीं जो, 2015 में घटकर 367 रह गईं। कांग्रेस दोगुने से ज्यादा पहुंच गई। 2010 में कांग्रेस को सिर्फ 244 सीटें मिलीं थीं जबकि, अभी के चुनाव में कांग्रेस को 596 सीटें मिली हैं। अगर पूरे स्थानीय निकाय चुनाव के लिहाज से देखें, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच का फासला लगभग नगण्य है। सिर्फ 2% का अंतर। बीजेपी 48%, कांग्रेस 46%। भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में रह गई ये सिर्फ दो प्रतिशत की बढ़त नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए कितने खतरनाक संकेत दे रही है। ये समझने की जरूरत है। 2010 में बीजेपी ने स्थानीय निकाय के चुनाव में 83 प्रतिशत सीटें जीत लीं थी। 323 में से 269 सीटें। 2015 में बीजेपी के हिस्से की 44% सीटें कम हो गईं। सिर्फ 126 सीटें मिलीं। 2010 में बीजेपी ने जिला पंचायत के चुनाव में 24 जिला पंचायतों में 547 सीटें जीतीं थीं। 2015 में 31 जिला पंचायतों में कांग्रेस ने 596 सीटें जीत लीं हैं। आठ जिले ऐसे हैं जहां जिला पंचायत चुनाव में बीजेपी का खाता तक नहीं खुला है। और सबसे बड़ी बात ये कि अहमदाबाद में छत्तीस हजार लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया है। इसका मतलब ये हुआ कि गुजरात भी विकल्प खोजने लगा है। और इस विकल्प खोजने में अगर कांग्रेस ने खुद को ताकतवर नहीं बनाया तो, गुजराती किसी और की तरफ भी 2017 तक देख सकता है। हालांकि, ये भी साफ है कि ये विकल्प हार्दिक पटेल कतई नहीं है। खुद हार्दिक पटेल के गांव में भाजपा जीती है। और अहमदाबाद में हुए चुनाव में पटेल बहुल वॉर्डों में भाजपा ने 43 सीटें जीतीं हैं जबकि, कांग्रेस ने सिर्फ 9 सीटें। निष्कर्ष साफ है कि हार्दिक पटेल, पटेलों का नेता नहीं बन पाया। और पटेल मोटे तौर पर अभी भी बीजेपी के ही साथ हैं।


ये भी निष्कर्ष निकलता है कि मोदी की लहर अभी भी कायम है। और ये बात सच है कि भारतीय जनता पार्टी के हालात अभी भी अगर बेहतर हैं, तो उसके पीछे नरेंद्र मोदी का दो दशक से ज्यादा मुख्यमंत्री के तौर पर बेहतर काम है। स्थानीय निकाय और जिला पंचायत चुनावों को जब तक मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के कामकाज की समीक्षा माना जा रहा था। तब तक सचमुच बीजेपी के पक्ष से लोग खिसकते दिख रहे थे। लेकिन, जब राष्ट्रीय मीडिया में ये बहुतायत चलने लगा कि बिहार में मोदी लहर की समाप्ति के एलान के बाद अब गुजरात से भी मोदी वाली बीजेपी गायब होने जा रही है। समीक्षा इस बात की भी होने लगी कि संघ की प्रयोगशाला में अब भगवा रंग फीका पड़ने लगा है। इसने जबर्दस्त बदलाव किया। और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष से खिसकते उन गुजरातियों को वापस खींचा जो, डर रहे थे कि गुजरात की स्थानीय निकाय चुनाव की हार भी केंद्र में नरेंद्र मोदी के विकास के एजेंडे को ध्वस्त करेगी। इस डर ने विकास के एजेंडे पर पिछले दो दशक से ज्यादा समय से मोदी के साथ खड़े गुजरातियों को एक कर दिया। इसलिए ये विश्लेषण की गुजरात में जिला पंचायत चुनावों में कांग्रेस की बढ़त मोदी की कमजोरी के संकेत हैं। ये पूरी तरह से निराधार है। हां, इतना जरूर है कि इस पंचायत, स्थानीय निकाय चुनाव से बीजेपी और खासकर मोदी-शाह की जोड़ी को बड़ा सबक लेने की जरूरत है। अगर वो चाहते हैं कि विकास के एजेंडे पर देश 2019 में उनके साथ खड़ा रहे। बिहार चुनाव नतीजों से ये बात समझाना कठिन था। लेकिन, अब गुजरात से ये बात मोदी-शाह को आसानी से समझ में आएगी। वो बात ये है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को राज्यों में नेतृत्व खोजना होगा। शिवराज सिंह, रमन सिंह और वसुंधरा राजे के ऊपर चाहे जितने तरह के आरोप लगें। लेकिन, इतना तो तय है कि मजबूत नेता राज्य में होने से वो खुद ही ऐसी बहुत से हमलों को निष्प्रभावी कर देता है। जो कमजोर नेतृत्व होने पर सीधे मोदी-शाह को झेलना होता। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल इस पैमाने पर बेहद कमजोर नेता साबित हुई हैं। अगर मोदी-शाह का हाथ मजबूती से न हो, तो शायद ही वो मुख्यमंत्री निवास में अब तक टिक पातीं। गांधीनगर से आने वाली खबरें बताती हैं कि मुख्यमंत्री राज्य को ठीक से संभाल नहीं पा रही हैं। पाटीदार आंदोलन को कितने खराब तरीके से नियंत्रित करने की कोशिश की गई। ये पूरे देश ने देखा। इसलिए जरूरी है कि 2017 के पहले नरेंद्र मोदी और अमित शाह गुजरात के लिए बेहतर सेनापति खोज लें। अच्छा होगा कि नए साल में नया सेनापति नियुक्त किया जाए। जिससे नए सेनापति को भी समय मिल सके। यही रणनीति दूसरे चुनाव वाले राज्यों के लिए भी करनी होगी। अच्छी बात ये है कि असम के लिए भारतीय जनता पार्टी की रणनीति काफी स्पष्ट और बेहतर दिखती है। बंगाल में काफी कुछ हलचल दिख रही है। और खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उस पर नजर रखे हैं। लेकिन, बेहद महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व भ्रम की स्थिति में ज्यादा दिख रहा है। ये बेहतर है कि अभी के यूपी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी अमित शाह के भरोसेमंद ही हैं। और अच्छी बात ये भी है कि लंबे समय के बाद बीजेपी को उत्तर प्रदेश में लड़ने-भिड़ने वाला अध्यक्ष मिला है। इसलिए बाजपेयी को एक और कार्यकाल देना बेहतर रणनीति हो सकती है। लेकिन, लगे हाथ अमित शाह को उत्तर प्रदेश में नए नेताओं की एक पूरी फौज तैयार करनी होगी। तभी उत्तर प्रदेश की लड़ाई लड़ने में आसानी हो पाएगी। नरेंद्र मोदी की लहर है और फिलहाल बहुत तेजी से खत्म होती नहीं दिख रही। लेकिन, पहले बिहार विधानसभा और अब गुजरात स्थानीय निकाय, जिला पंचायत चुनाव ने ये साफ कर दिया है कि मोदी लहर को राज्यों में मजबूत रखने के लिए राज्यों में मजबूत सेनापति चाहिए। और वो चिंता दिल्ली से बैठकर नहीं की जा सकती। बाहरी बनाम बिहारी का नारा सबक देने के लिए काफी है। 

Sunday, November 29, 2015

एक दिन मैं भी पीएम के साथ तस्वीर लूंगा

टेलीग्राफ अखबार की ये सवाल-जवाब वाली शानदार तस्वीर वाली खबर नहीं देखी होती, तो इस विषय पर मैं शायद ही कुछ लिखता। लेकिन, इसके बाद मेरे मन में जो था। वो लिखना जरूरी लगा। प्रधानमंत्री के साथ तस्वीर होना किसी के लिए भी बड़ी खुशी की वजह हो सकती है। इसलिए #Selfie लेना कोई गुनाह नहीं है। लेकिन, सेल्फी दौड़ मेरी दिक्कत की वजह है। पिछले साल की सेल्फी भगदड़ पर भी मेरे यही विचार थे। लेकिन, उसके खारिज होने की एक वजह ये जायज रही कि मुझे आमंत्रण ही नहीं मिला था। इस बार ससम्मान मैं भी आमंत्रित था। और सेल्फी दौड़ छोड़िए, सेल्फी भीड़ में भी शामिल नहीं हुआ। हां, तारीफ करनी चाहिए भारतीय जनता पार्टी के मीडिया विभाग की इतने सलीके वाले दीपावली मंगल मिलन समारोह को करने के लिए। जिसमें प्रधानमंत्री @narendramodi बीजेपी अध्यक्ष @AmitShah के अलावा ढेर सारे मंत्री भी पक्षकारों से सहज रूप से मिल रहे थे। थोड़ा बहुत बोलने के बाद प्रधानमंत्री, अमित शाह दोनों ही मंच से नीचे उतरकर पत्रकारों के बीच में आ गए। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव और मीडिया प्रभारी श्रीकांत शर्मा @ptshrikant ने दो बार मंच से अपील की कि प्रधानमंत्री खुद पत्रकारों के बीच जा रहे हैं। कृपया सभी महानुभाव अपनी जगह बैठे रहें। प्रधानमंत्री नीचे उतरकर पत्रकारों के पास खुद आ रहे थे। लेकिन, लगातार की जा रही अपील अनसुनी हो गई। प्रधानमंत्री के नीचे उतरते ही जैसे सारे पत्रकार टूट पड़ने के लिए इंतजार कर रहे थे। इसलिए टेलीग्राफ अखबार ने निश्चित तौर पर उमर अब्दुल्ला के सवाल को सवाल बनाकर जवाब सेल्फी लेने के लिए आतुर पत्रकारों के बीच घिरे मोदी की तस्वीर डालकर पत्रकारिता का शानदार उदाहरण दिया है। मोदी के आने से पहले सरकार के दो महत्वपूर्ण मंत्री रविशंकर प्रसाद और वेंकैया नायडू @rsprasad @MVenkaiaihNaidu सभी पत्रकारों से खुद जाकर मिले। मेरी भी अच्छी मुलाकात हुई। दूसरे मंत्री भी घूम घूमकर पत्रकारों से सहज भाव से मिल रहे थे। सत्तासीन पार्टी मेजबान की भूमिका सहज भाव से निभा रही थी। सरकार के मंत्री सुलभ थे। इसलिए टेलीग्राफ की हेडलाइन का जवाब पत्रकारों को ही खोजना है। सरकार या सत्तासीन पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया। मुझे भी कभी प्रधानमंत्री के साथ निजी मुलाकात का मौका मिलेगा, तो हो सकता है कि एक अच्छी सी तस्वीर उनके साथ मैं भी खिंचवाऊं और उसे फेसबुक पर भी लगाऊं। लेकिन, इस तरह की सेल्फी दौड़ में न पहले कभी शामिल हुआ था। न इस बार शामिल हुआ। न आगे होऊंगा। पत्रकार की भूमिका में रहूं या सामान्य भूमिका में। इससे भी फर्क नहीं पड़ेगा। शानदार भोजन की व्यवस्था थी। और उसका भरपूर आनंद उठाया। हां, जो विद्वजन ये कह रहे हैं कि पत्रकारों को कड़े सवाल पूछने चाहिए थे। तो उस पर भी मैं इतना ही कहूंगा कि ये सवाल पूछने के लिए नहीं मंगल मिलन का समरोह था। वही अच्छे से होना चाहिए था। सेल्फी दौड़ को छोड़ दें, तो वही हुआ भी। आपातकाल में दबाव में और अभी प्रेम में पत्रकार ही दोहरे हुए हैं। आडवाणी जी की बात याद आ गई।

Friday, November 27, 2015

इतनी असहिष्णुता देश में कभी नहीं रही

असहिष्णु भारत इस समय दुनिया में चर्चा का विषय है। भारत अचानक इतना असहिष्णु हो गया है कि देश के सबसे ज्यादा पसंदीदा कलाकारों में से एक आमिर खान की पत्नी उनसे कह देती हैं कि क्या उनको भारत छोड़ देना चाहिए। पत्रकारिता के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार रामनाथ गोयनका अवॉर्ड के मौके पर अभिनेता आमिर खान की इस बात ने देश में उस बहस को तेज कर दिया है कि क्या सचमुच भारत असहिष्णु हो गया है। खासकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ, उसमें भी खासकर मुसलमानों के खिलाफ। सांप्रदायिक हिंसा पर गृह मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट इस बहस को और आगे बढ़ाती है। 2014 के पहले पांच महीने और 2015 के पहले पांच महीने की बहस साफ करती है कि मोदी सरकार में ज्यादा सांप्ररदायिक हिंसा बढ़ी है। मतलब असहिष्णुता बढ़ी है। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी इस बात पर बहस करना बेहतर समझेगी जिसमें 2015 में 2014 से कम जानें सांप्रदायिक हिंसा में गई है। इसी बहस को थोड़ा और आगे बढ़ाने के लिए गृह मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट से पिछले पांच साल के आंकड़े देखते हैं। मोदी सरकार के इस साल यानी 2015 के पहले पांच महीने में सांप्रदायिक हिंसा के 287 मामले सामने आए हैं। इसमें 43 जानें गईं। और 961 लोग घायल हुए। 2014 में यूपीए के समय में ये आकड़े देखने से लगता है कि मोदी सरकार में सांप्रदायिक हिंसा के मामले बढ़े हैं। 2014 के पहले पांच महीने में सांप्रदायिक हिंसा के 232 मामले सामने आए थे। इसमें 26 जानें गईं। और 701 लोग घायल हुए। गह मंत्रालय की इसी रिपोर्ट के आंकड़े जब थोड़ा और बढ़ाते हैं, तो तस्वीर मोदी सरकार के पक्ष में थोड़ी बेहतर होती है। 2015 के पहले आठ महीने यानी जनवरी से अक्टूबर के दौरान 86 जानें गईं हैं। जबकि, 2014 में जनवरी से अक्टूबर के दौरान 90 लोगों को सांप्रदायिक हिंसा में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। हालांकि, सांप्रदायिक घटनाओं के मामले में मोदी सरकार सुधार नहीं ला सकी। जनवरी से अक्टूबर 2015 के दौरान 630 मामले हुए। जबकि, 2014 में ऐसी 561 घटनाएं ही हुई थीं। हालांकि, आंकड़ों के लिहाज से एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद से देश में कोई भी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की घटना नहीं हुई है। 2013 में यूपीए सरकार के रहने के दौरान मुजफ्फरनगर दंगा हुआ था। सिर्फ इसी दंगे में 65 लोगों की जान चली गई थी। गृह मंत्रालय के अधिकारिक आंकड़ों को 2014 और 2015 से पीछे ले जाएं, तो तस्वीर ज्यादा साफ होती है। 2010 में 701, 2011 में 580, 2012 में 668 और 2013 में 823 सांप्रदायिक हिंसा के मामले हुए थे। मई 2014 में यूपीए से सत्ता हासिल करके एनडीए का शासन शुरू हुआ था। 

आंकड़ों इसका सीधा सा मतलब ये है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के सत्ता में आने के बाद भारत को असहिष्णु बताने की जो जबर्दस्त कोशिश हो रही है। उसमें पक्षपाती आंकड़ों का बबड़ा योगदान है। क्योंकि, इन आंकड़ों पर तो बात होती है कि देश में कुल कितनी घटनाएं हुईं। और उस समय केंद्र में किसकी सरकार थी। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि केंद्र में चाहे यूपीए की सरकार रही हो या फिर एनडीए की। कानून व्यवस्था राज्यों का ही मसला है। इसलिए कानून व्यवस्था के साथ सांप्रदायिक हिंसा पर बात करते हुए भी राज्यों की सरकारों पर बात किए बिना बात अधूरी ही रह जाती है। 2012, 13 और 2014 में देश में हुए कुल सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में एक तिहाई सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही हुए हैं। लेकिन, कभी भी देश में असहिष्णुता या सांप्रदायिकता के लिए उत्तर प्रदेश की सरकारों पर कहीं से भी सवाल खड़े नहीं होत। मुलायम सिंह यादव की सरकार रही हो या फिर मायावती की और अब अखिलेश यादव की। कभी भी देश की असहिष्णुता पर चर्चा करने वालों ने उस तरफ उंगली नहीं उठाई। इस उंगली न उठाने से ही देश में अभी चल रही असहिष्णुता की सारी बहस का पक्षपात साफ समझ में आ जाता है। यही पक्षपाती दृष्टिकोण कर्नाटक की कांग्रेस सरकार में हुई हत्या को केंद्र में नरेंद्र मोदी के सिर मढ़ने की कोशिश करता है। यही पक्षपाती दृष्टिकोण 2013 में हुई नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को भी भारतीय जनता पार्टी और उसके नेता नरेंद्र मोदी पर थोपने की कोशिश करता है। असहिष्णुता की बहस में ज्यादातर मंचों पर गला फाड़ने वाले भूल ही जाते हैं कि 20 अगस्त 2013 को जब दाभोलकर की हत्या की गई। तो उस समय केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार थी। और महाराष्ट्र में भी कांग्रेस और एनसीपी की साझा सरकार थी। लेकिन, ये तय दृष्टिकोण असहिष्णुता के मामले सिर्फ भारतीय जनता पार्टी की सरकार में खोजता है।

असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों के प्रति असुरक्षा की भावना की बात करने वाले ये भूल जाते हैं कि इस तरह की एकांगी बहस ने ही देश के उन नौजवानों को भी भारतीय जनता पार्टी के चुनाह चिन्ह पर मत डालने के लिए तैयार कर दिया। जो इससे पहले कभी भारतीय जनता पार्टी के साथ नहीं थे। असहिष्णुता इस समय देश में सबसे ज्यादा है। इस पर बहस की कोई वजह नहीं दिखती। क्योंकि, एक ऐसे व्यक्ति के प्रधानमंत्री बन जाने से हर मसले को उस व्यक्ति के खिलाफ वजह बताने की ऐसी असहिष्णुता देश में शायद ही कभी देखने को मिली हो। और इसी असहिष्णुता की बहस को मजबूत आधार देते हैं भारतीय जनता पार्टी के वो नेता। जिन्हें बहुत अच्छे से पता है कि क्षेत्र का विकास, नौजवान की जेब की ताकत बढ़ाना ये सब कठिन तरीका है। सबसे आसान है हिंदू राष्ट्र के लिए दो-चार बयान दे देना। और उसी बयान के आधार पर मीडिया के जरिए भारतीय जनता पार्टी का बड़ा नेता बन जाना। इस तरीके की राजनीति करने के लिए न पढ़ने-लिखने की जरूरत है। न कुछ ठोस काम करने की। न किसी अच्छे दृष्टिकोण की। भारतीय जनता पार्टी के ऐसे नेताओं के छोटे फायदे भारतीय जनता पार्टी और सही मायने में भारतीय राजनीति के बड़े फायदे पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। ये किस तरह से भारी पड़ रहे हैं। अभी हाल के बिहार चुनावों में ये साफ हो गया है। अच्छा होगा कि नीतीश कुमार अपनी सुशासन बाबू वाली छवि इस बार भी बनाए रख पाएं। लेकिन, राष्ट्रीय जनता दल के सर्वोच्च नेता लालू प्रसाद यादव जब अपनी ताकत दिखाने की इच्छा पर जरा सा भी अंकुश नहीं लगा सके। तो मुश्किल ही है कि राष्ट्रीय जनता दल के विधायक, मंत्री अपनी ताकत दिखाने की इच्छा पर अंकुश लगा सकेंगे। राजद के नेता सत्ता की इतनी जल्दी में हैं कि कुछ दिनों का इंतजार करने के बजाए मनपसंद बंगलों पर कब्जा करने की कोशिश में लग गए हैं। लेकिन, असहिष्णुता की बहस में इस पर बात शायद ही हो।

हां, असहिष्णुता की बहस में मलेशिया में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रंगीन परिधान की चर्चा जरूर होगी। भले ही इस बहस के आगे बढ़ने से लोगों को ये साफ पता चल गया कि दरअसल वैसे रंगीन परिधान सभी मेहमान राष्ट्राध्यक्षों को वहां की परंपरा के लिहाज से पहनने होते हैं। असहिष्णुता शायद ही इस देश में पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इस कदर रही होगी। असहिष्णुता पर बहस करने वाले कह रहे हैं कि मोदी राज में भारत में लोगों के खाने-पहनने-बोलने पर रोक लग गई है। यहां तक कि एक साहब ने तो लंदन के अखबार में भारत में हिंदू तालिबान का राज बता दिया। हालांकि, इस हिंदू तालिबान के शासन का राज तब खुल गया। जब भारतीय जनता पार्टी की ही राजस्थान सरकार ने उसी लेखक को अपने यहां की एक प्रमुख संस्था में नियुक्त करने का मन बन लिया था। बाद में मीडिया में खबरें आ जाने के बाद सारे नाम वापस ले लिए गए। असहिष्णुता इस समय देश में किस कदर है। इसके ढेर सारे उदाहरण हैं। देश के सबसे बड़े आलोचकों में शुमार नामवर सिंह जब कहते हैं कि पुरस्कार लौटाना ठीक नहीं है। तो सोचिए सहिष्णुता के पक्षधर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। वो प्रतिक्रिया देते हैं कि संघी हो गया है नामवर सिंह। मुनव्वर राणा का नाम ऐसे शायरों में शामिल है। जिनको हर कोई पसंद करता है। लेकिन, जैसे ही मुनव्वर कहते हैं कि जो पुरस्कार लौटा रहे हैं। उनके कलम की स्याही सूख गई है। वो थक गए हैं। पूरी तथाकथित सहिष्णु जमात मुनव्वर को असहिष्णु साबित कर देती है। इस कदर कि सहिष्णु बने रहने के लिए वो एक टीवी चैनल पर नाटकीय अंदाज में अपना सम्मान वापस करते हैं। फिर कहते हैं कि वापस नहीं करूंगा।


इस तरह की असहिष्णुता देश ने कभी नहीं देखी है। ये असहिष्णुता कैसे है। समझने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर आरोप लग रहा है कि देश में कोई भी मोदी सरकार के खिलाफ बोले, तो उसे पाकिस्तान भेजने की धमकी दी जाती है। राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाता है। इस तरह का व्यवहार करने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और नरेंद्र मोदी को लगाम लगानी ही होगी। लेकिन, इसका दूसरा पक्ष देखें। नामवर सिंह, मुनव्वर राणा के बाद अब तथाकथित सहिष्णु जमात के निशाने पर हैं जावेद अख्तर साहब। ये वही जावेद अख्तर हैं जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हर जगह मजबूती से खड़े रहते हैं। दक्षिणपंथी जमात की जबर्दस्त आलोचना झेलते हैं। लेकिन, जब वही जावेद अख्तर कहते हैं कि निजी जीवन में उन्होंने कभी सांप्रदायिक भेदभाव नहीं देखा है। तो वो तथाकथित सहिष्णु जमात के निशाने पर आ जाते हैं। कुछ तो ये भी कह देते हैं कि राज्यसभा का कार्यकाल इस सरकार में भी बना रहे। इसी की कोशिश जावेद अख्तर कर रहे हैं। जावेद साहब ने ये भी कहाकि उनका निजी अनुभव है कि अगर कोई पूरी ईमानदारी और मेहनत से काम करता है तो कोई भी सांप्रदायिकता या नफरत व्यक्ति को सफल होने से रोक नहीं सकती। उन्होंने ये भी कहाकि भेदभाव हैं। कई तरह के हैं। उनको मिटाना इतना आसान नहीं है। बहस इस पर होनी चाहिए थी। लेकिन, इसकी बजाए आलोचना जावेद अख्तर की ही होने लगी। जरूरी है कि इस असहिष्णुता को कम किया जाए। देश को सहिष्णु बनाए जाने की बड़ी जरूरत है। 

Tuesday, November 17, 2015

बाजार बड़ा भला कर सकता है

गीता प्रतियोगिता की विजेता मरियम सिद्दीकी
बाजार की बात करिए और एक सांस में कोई भी बाजार की बुराई ही बुराई गिना देगा। वो भी जो बाजार में सिर से पांव तक डूबा है। वो भी जो बाजार के बिना जी नहीं सकता। वो भी जो बाजार की हर सुविधा के लिए सारी जिंदगी कसरत करते रहते हैं। खैर, मैं तो आमतौर पर बाजार का समर्थक ही हूं। बाजार की सुविधाओं का भी। हां, ये भी उतना ही दृढ़ विश्वास है कि बाजार में भी दूसरी सारी व्यवस्थाओं की तरह ढेर सारी कमियां हैं। जिसे सुधारते रहना जरूरी है। इस रविवार को स्टार प्लस पर आने वाला आज की रात है जिंदगी शो देख रहा था। अमिताभ बच्चन हैं, तो आकर्षण बढ़ जाता है। और अमिताभ बच्चन की तराकी भी अद्भुत है। खैर, मैं जो शो देख रहा था। उसमें गीता प्रतियोगिता जीतने वाली मरियम सिद्दीकी थी। मरियम है तो सिर्फ 13 साल की लेकिन, मरियम का ज्ञान किसी बड़े विद्वान का आभास दे रहा था। 13 साल की उम्र में मरियम कह रही थी कि किसी को चोट लगे और हिंदू मुसलमान पूछकर उसका इलाज हुआ तो, इंसानियत मर जाएगी। 

मरियम के माता-पिता
और शो में जब अमिताभ बच्चन ने मरियम के पिता आरिफ सिद्दीकी से पूछा कि उन्हें क्यों लगा कि बेटी को इस तरह के धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाना चाहिए। आरिफ का जवाब आया कि एक दिन स्कूल से लौटकर बेटी ने पूछा कि हमारे साथ ज्यादातर बच्चे हिंदू क्यों हैं। इसके बाद लगा कि बच्ची को धर्म की समझ होनी जरूरी है। कमाल ये है कि इस उम्र में मरियम ढेर सारे धर्मग्रंथ पढ़ चुकी है। अब वो गुरुग्रंथ साहिब का अध्ययन कर रही है। ढेर सारा ज्ञान, पढ़ाई और दबाव भी शायद ही उतने लोगों पर असर करे जितना उस दिन स्टार प्लस पर आज की रात है जिंदगी देखने वालों पर हुआ होगा। जाहिर है ये धर्मार्थ नहीं हो रहा है। दूसरे मनोरंजन चैनलों को मात देने के लिए ये कार्यक्रम स्टार प्लस ने बनाया है। लेकिन, इतने सुंदर तरीके से कोई क्या धर्म बताएगा। इसलिए बाजार को खारिज मत कीजिए। मैं तो बाजार को लेकर इतना आशावादी हूं कि कश्मीर की सारी मुश्किलों का हल इसी बाजार में देख रहा हूं। 

Saturday, November 14, 2015

काहे का OccupyUGC

एक #OccupyUGC आंदोलन चल रहा है। ज्यादातर मैं छात्र आंदोलन के पक्ष में ही खड़ा रहता हूं। वजह कि ज्यादातर छात्र आंदोलन के मुद्दे सही होते हैं। लेकिन, ये मुद्दा पूरी तरह से राजनीतिक दिख रहा है। इसलिए इसके घोर विरोध में हूं। कई वामपंथी और इस मुद्दे के पक्षधर विद्वानों से मैंने पूछा कि भावनात्मक विरोध, साजिश की बात छोड़कर तथ्य बताइए कि इस नॉन नेट फेलोशिप को क्यों जारी रखना चाहिए। शोध करने के लिए कुछ तो न्यूनतम योग्यता होनी चाहिए और उसी आधार पर सरकारी सहायता भी। मेरा ज्ञान इस मामले में बहुत कम है। फिर भी बताइए कि ये आंदोलन सिवाय सरकार विरोध के एक और फ्रंट के क्या है। लेकिन, किसी ने भी जवाब नहीं दिया है। 5 से 8 हजार रुपये सरकार की सब्सिडी से घर चलाते रहो। उसी में शादी-ब्याह भी हो जाए। बच्चे भी पैदा कर लो। और फिर गरियाओ कि भारत में पढ़े-लिखे लोगों की अहमियत नहीं। जो JRF या फिर कम से कम NET की परीक्षा नहीं पास कर पा रहे हैं उन्हें क्यों शोध करने के लिए सरकार पैसे दे। सवाल बड़ा है पर कोई सरोकारी साथी बता नहीं पा रहा है Why #OccupyUGC

Friday, November 06, 2015

चुनाव के शोर में दब गई अर्थव्यवस्था की अच्छी खबरें

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 6 नवंबर 2015 को छपा लेख
भारत में कोई भी चुनाव हों, उत्सव की तरह होते हैं। ऐसा उत्सव जिसके उत्साह और शोर में सबकुछ दब जाता है। उस पर अगर बिहार जैसे राज्य का चुनाव हों, तो जाहिर है कि ये शोर और उत्साह ज्यादा तेज हो जाता है। यही वजह रही कि पांच चरणों में हुए इस चुनाव के दौरान देश के लोगों को दूसरी कोई बात ज्यादा अहम नहीं दिखी। खासकर तरक्की और इससे जुड़े आंकड़े तो चुनावी माहौल में पूरी तरह से नीरस ही होते हैं। दाल की महंगाई के आंकड़े भी सीधे चुनावी भाषण में तड़का दे सकते थे। इसीलिए दाल की महंगाई की चर्चा तो मीडिया से लेकर चुनावी रैलियों तक खूब रही। लेकिन, इसके अलावा पूरे अक्टूबर महीने और कोई भी खबर सुर्खियां नहीं बन सकीं। लेकिन, यही अक्टूबर महीना रहा जिसमें तेजी से भारत की अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ती दिखने लगी है। और सबसे अच्छी बात ये है कि इन तेजी के संकेतों में संतुलन भी है। यानी लोगों की जेब में पैसे आते दिख रहे हैं। साथ ही कल कारखाने फिर से रफ्तार में आ रहे हैं। उद्योगों के कुछ ऐसे आंकड़ें जिन पर ध्यान कम ही जाता है। लेकिन, उन आंकड़ों में ही दरअसल अर्थव्यवस्था की कमजोरी या मजबूती के लक्षण छिपे होते हैं। उन आंकड़ों से समझने की कोशिश करते हैं।

भारत में सर्विस इंडस्ट्री अक्टूबर महीने में आठ महीने की सबसे तेज रफ्तार में रही है। ताजा सर्वे में ये बात सामने आई है। इसकी सबसे बड़ी वजह नए कारोबार का उभरना है। निक्केई इंडिया कंपोजिट इंडेक्स से ये बात साफ हो रही है। इसके मुताबिक, अक्टूबर महीने में भारत में ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां तेजी से बढ़ी हैं। साथ ही देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एसबीआई इंडेक्स के मुताबिक, देश में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ भी अक्टूबर महीने में बेहतर हुई है। एसबीआई कंपोजिट इंडेक्स में मैन्युफैक्चरिंग डेढ़ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा है। ये लगातार तीसरा महीना है जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में तेजी देखने को मिल रही है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की इस तेजी को एक और आंकड़ा बल देता है। इकतीस अक्टूबर तक के आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी खजाने में साढ़े छत्तीस प्रतिशत ज्यादा अप्रत्यक्ष कर आया है। इसका सीधा सा मतलब है कि कंपनियों की बैलेंसशीट बेहतर हुई है। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इसे मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में तेजी का बड़ा आधार बताया है। स्टेट बैंक की रिपोर्ट ये भी बता रही है कि आने वाली तिमाही में पावर, स्टील, ग्रीन एनर्जी, हाइड्रोकार्बन और टेलीकॉम सेक्टर में तेज क्रेडिट ग्रोथ देखने को मिलेगी। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि इन क्षेत्रों में तेज हलचल होगी। बैंक घर और कार कर्ज में भी तेज मांग देख रहा है। इन छोटी-छोटी खबरों को जोड़कर आसान भाषा में समझें, तो इसका मतलब ये हुआ कि लंबे समय से मंदी की ओर बढ़ता दिख रहा भारतीय कारोबारी जगत बेहतरी की ओर बढ़ रहा है। पावर, स्टील, ग्रीन एनर्जी, हाइड्रोकार्बन और टेलीकॉम सेक्टर में तेज क्रेडिट ग्रोथ का सीधा सा मतलब हुआ कि कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद से ठप पड़ गए क्षेत्रों में फिर से नई संभावनाएं बन रही हैं। यानी इंडिया इंक हरकत में है। इसी तरह घर और कार कर्ज की मांग बढ़ने का मतलब ये हुआ कि इंडियन मिडिल क्लास फिर से अपनी जेब से पैसे निकालने लगा है। जो, वो पूरी तरह से बचाकर रखने लगा था। क्योंकि, यूपीए शासन में साढ़े पांच प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार ने इंडियन मिडिल को डरा दिया था। नरेंद्र मोदी की सरकार के लालफीताशाही को खत्म करने की कोशिशों के बाद फिर से भारतीय उद्योग बेहतरी करते दिखने लगे हैं। और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ऑटोमोबाइल उद्योग का। सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि सितंबर महीने में देश में कार की बिक्री करीब दस प्रतिशत ज्यादा रही है। ये पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले है। सितंबर महीने में कार कंपनियों ने करीब एक लाख सत्तर हजार कारें बेच ली हैं। देश की अर्थव्यवस्था का असल हाल समझने में यात्री कारों से ज्यादा वाणिज्यिक वाहनों यानी ट्रकों की बिक्री मददगार होती है। सितंबर महीने में वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री में बारह प्रतिशत से ज्यादा की तेजी देखने को मिली है। इसका सीधा सा मतलब हुआ कि उद्योगों को अपने सामान लाने ले जाने के लिए ज्यादा ट्रकों की जरूरत पड़ रही है। लोगों का जीवन किस तरह चल रहा है। इसका अंदाजा भारत में त्योहारों के दौरान लगाना बेहद आसान होता है। अगर बाजार लोगों से भरे हुए हैं और बाजार से लौटते हुए लोग खरीदारी करके लौट रहे हैं, तो इसका सीधा सा मतलब हुआ कि लोगों का जीवन स्तर बेहतर हुआ है। शहरी लोगों की खरीदारी का तरीका ई कॉमर्स के आने से बदला है। भारत सात बिलियन डॉलर का डिजिटल बाजार बन चुका है। इसीलिए अक्टूबर महीने में फ्लिपकार्ट, स्नैपडील और अमेजॉन के बीच शहरी ग्राहक को पकड़ने की होड़ लगी थी। अक्टूबर महीने में फ्लिपकार्ट ने बिग बिलियन सेल में 30 करोड़ डॉलर यानी करीब दो हजार करोड़ रुपये के सामान बेच लिए। इन वेबसाइट पर आने वाले हर ग्राहक ने एक हजार से लेकर पांच हजार रुपये तक की खरीदारी की है। और भारत में वेबसाइट के जरिये सामान खरीदने वाले सिर्फ एक प्रतिशत लोग ही हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस त्योहारी मौसम में भारतीय कितनी खरीदारी कर रहा है।


कारोबारी गतिविधियों के बेहतर होने का साफ असर महत्वपूर्ण आंकड़ों में दिख रहा है। तेरह अक्टूबर को आए आईआईपी यानी औद्योगिक उत्पादन आंकड़े साफ करते हैं कि अर्थव्यवस्था पर छाई धुंध काफी हद तक साफ हो चुकी है। तेरह अक्टूबर को आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े के मुताबिक, अगस्त महीने में उत्पादन करीब साढ़े छे प्रतिशत से ज्यादा की रफ्तार से बढ़ा है। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि, औद्योगिक उत्पादन में ये तेजी करीब चौंतीस महीने के बाद देखने को मिल रही है। औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों में सबसे अच्छी बात ये है कि कैपिटल गुड्स यानी उद्योगों के काम में आने वाली मशीनरी का उत्पादन करीब बाइस प्रतिशत बढ़ा है। इस वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीने के औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की कुल रफ्तार भी अर्थव्यवस्था की मजबूती का भरोसा दिलाती है। 2015-16 के पहले पांच महीने यानी अप्रैल से अगस्त के दौरान औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की रफ्तार चार प्रतिशत से ज्यादा रही है। 2014-15 के पहले पांच महीने में औद्योगिक उत्पादन के बढ़ने की रफ्तार तीन प्रतिशत ही रही थी। अच्छी बात ये भी है कि महंगाई में कमी की वजह से रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में कमी की है। और आगे भी ब्याज दरें घटने के संकेत हैं। इससे कारोबारी गतिविधि की बेहतरी में मदद मिलेगी। बिहार के चुनाव के शोर में देश में बेहतर हुए कारोबारी माहौल की बात बिल्कुल ही नहीं हुई। लेकिन, अक्टूबर महीने में आए आंकड़े साफ कर रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की कहानी दमदार हो रही है। 

Monday, October 26, 2015

छद्म सरोकारी साहित्यकार बनाम पूर्ण बहुमत की सरकार

इतिहास ने कभी साहित्यकारों को इस तरह से दुनिया की किसी सरकार के खिलाफ लामबंद होते हुए शायद ही देखा होगा। सबसे ज्यादा चेतन, सृजन का जिम्मा रखने का दावा करने वाले साहित्यकारों के साथ हिंदुस्तान में ऐसा क्या हो गया। जो, उन्हें इस तरह से सरकार के पैसे से चलने वाली लेकिन, स्वायत्त संस्था साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने के लिए बाध्य करने लगा। क्या सचमुच हिंदुस्तान की सरकार ने साहित्य, कला या फिर एक शब्द में कहें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली है। क्या सचमुच इस देश में ऐसा कुछ नरेंद्र मोदी की सरकार ने गलत कर दिया है, जो पहले किसी सरकार ने नहीं किया था। क्या सचमुच इस समय देश के हालात आपातकाल, सिख दंगे या फिर देश के अलग-अलग हिस्से में हुए दंगों के समय के हालात से भी ज्यादा खराब हैं। क्या सचमुच इस भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार के समय में अल्पसंख्यक- ईसाई और मुसलमान ही पढ़ें- खतरे में है। इन सवालों का जवाब खोजना इसलिए जरूरी है कि यही सवाल उठाकर जवाब में कुछ साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किए हैं।

अब ये भले ही सारे लोग कह रहे हैं कि उदय प्रकाश की शुरुआत को धार देने वाली नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और फिर सारे साहित्यकारों ने अलग-अलग अपनी अंतरात्मा की आवाज पर साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किए हैं। लेकिन, ध्यान से देखिए। सब साफ हो जाएगा। नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश खाए-पिए-अघाए का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। हर तरह से इतना खाए हैं कि उल्टी करने से थोड़ा स्वास्थ्य ठीक होगा। मन हल्का रहेगा। और सबसे बड़ी बात कि आगे उससे भी अच्छा खाने का जुगाड़ होगा। ढेरों पाए तो कभी-कभी कुछ-कुछ लौटाए। जब एकदम न पाए, तो कैसे-क्या लौटाए। अब उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी या फिर उसके बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वालों की जन्मकुंडली खंगालें। इससे बेहतर है कि पद्मश्री पुरस्कार लौटाने वाली पंजाबी लेखिका की सुन लें। बस उनका बयान ही छद्म धर्मनिरपेक्षता और किसी भी हद तक जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के विरोध की कहानी कह देता है। पंजाबी लेखिका दलीप कुमार तवाना ने पद्मश्री लौटाने की जो वजह बताई है। उसे सुनने-पढ़ने के बाद समझ में आ जाता है कि क्या हो रहा है। दलीप कौर ने कहा है कि बुद्ध और गुरु नानक की धरती पर सिखों को खिलाफ 1984 में ज्यादती हुई और मुसलमानों के खिलाफ बार-बार ज्यादती हो रही है। इसकी वजह समाज में बढ़ती सांप्रदायिकता है। ये तो था, जो उऩ्होंने पद्मश्री लौटाते कहा है। मतलब 1984 से लेकर 2015 तक जो सिखों, मुसलमानों पर ज्यादतियां हो रही थीं। वो शर्म का पानी अब जाकर उनके नाक में घुसने लगा था। इसलिए पिछले कई दशकों तक बेशर्म रहने के बावजूद अब वो शर्मसार साबित होना चाहती हैं। यही सच है पुरस्कार लौटाने का। समझ रहे हैं न। आजादी के बाद किसी भी धर्मनिरपेक्ष सरकार में जो कुछ भी गलत हुआ है। उस सबका हिसाब मांगने के लिए एक तय कर दी गई सांप्रदायिक सरकार मिल गई है।

मुझे याद है कि पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में ही ये समझ में आ गया कि वामपंथी पत्रकार ठोंककर कहेगा कि मैं वामपंथी हूं। फिर भी बेहतर पत्रकार, सरोकारी पत्रकार बना रहेगा। लेकिन, राष्ट्रवाद, दक्षिणपंथ की बात ठोंककर छोड़िए, तर्क के साथ करने वाला भी पत्रकार नहीं, सिर्फ संघी या उससे भी आगे सांप्रदायिक संघी कहलाएगा। यही इस देश के साहित्यकार और सरकार के फर्जी धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ का सच है। ये बेहद घिनौना सच है। इन साहित्यकारों को डर अब यही है कि ये सच उघड़कर सबके सामने आ जाएगा। काफी हद तक सामने भी आ चुका है। न आता तो पूर्ण बहुमत की बीजेपी की सरकार की कल्पना इस देश में कोई कर सकता था क्या।

सोचिए सारी सांसारिक तिकड़मों को आजमाकर सत्ता में आए लोग इस देश में सरोकारी, समाजवादी बने रहे। लेकिन, विशुद्ध रूप से विकास के मुद्दे पर मई 2014 में चुनाव जीतने वाली पार्टी आज भी इन साहित्यकारों के तय खांचे में सांप्रदायिक बनी रही। मई 2014 में जाति हार गई थी। अब ये 2015 में जाति जिंदा कर देना चाहते हैं। वैसे ये कहते हैं कि जातिप्रथा तो संघ और दक्षिणपंथ ने पाल रखी है। ये अभी तक ये कहते रहे कि इनको तो जनता वोट तक नहीं देती। अब जब जनता वोट देकर सत्ता दे चुकी है। तो ये कह रहे हैं कि जनता भ्रमित हो गई है। यानी हर तरह के प्रमाणपत्र का ठेका सिर्फ इन्हीं के पास है। अब ये ठेका छिन रहा है। डर लग रहा है कि ये बने रहे, तो आगे किसी तरह का पुरस्कार इन जैसे छद्म धर्मनिरपेक्षता की जमीन पर रचनाकार बने लोगों को नहीं मिलने वाला। इसलिए ये पूरा जोर लगा रहे हैं। इतना कि ठीक बिहार चुनाव के समय ये सबकुछ हो रहा है। ठीक है पांच साल की मोदी सरकार का तो अब कुछ कर नहीं सकते। बिहार में भाजपा हारी, तो मोदी पर ही ठीकरा फोड़ेंगे। इस समय साहित्यकारों के दर्द और लालू प्रसाद यादव के दर्द जोड़कर देखिए। लालू जी कह रहे हैं कि बिहार चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी को इस्तीफा देना पड़ेगा। नहीं देंगे, तो हम आंदोलन करेंगे। बताइए समाजवाद के नाम पर, जेपी के नाम पर बिहार का क्या हाल लालू प्रसाद यादव ने किया। इसको समझने के लिए देश के किसी राज्य की राजधानी से एक बार पटना जाइए। समझ में आ जाएगा बिहार को कहां टिकाए रखने की इच्छा है। मैं उन तर्कों की बात ही नहीं कर रहा कि कहां-किसकी हत्या हुई। और जवाब किस सरकार से मांगा जा रहा है। मैं तो बात बड़े षडयंत्र की बुनियाद की तरफ कर रहा है। छद्म सेक्युलर सिंडिकेट टूट रहा है। सरोकार के नाम पर दुकान चलाने वालों की ये ग्राहक तैयार करने, बचाने की आखिरी कोशिश है। इन छद्म धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों की चिंता ये भी है कि अभी तक सिर्फ इनके जैसे ही पुरस्कृत होते थे। ये सिर्फ अपने जैसों को ही साहित्य की विधा में बर्दाश्त कर पाते हैं।

ये नामवर सिंह और मुनव्वर राना को भी बर्दाश्त नहीं कर सके। ये कह रहे हैं कि मेरे जैसे बनो या तुम्हारा अस्तित्व ही मिटा देंगे। उदाहरण देखिए 14 अक्टूबर को मुनव्वर राना ने कहा जो पुरस्कार लौटा रहे हैं। उनको अपनी कलम पर भरोसा नहीं है। वे थक चुके हैं। हालांकि, तीन दिन बीतते-बीतते राना की भी कलम पर थकने का दबाव बन ही गया। और उन्होंने एक टीवी चैनल के लाइव शो में पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया। तब मैंने मुनव्वर राना के ऊपर कुछ लिखा। हालांकि, मैं वामपंथी नहीं हूं, तो ये कविता या साहित्य नहीं हो सकता।

ए राना तेरी तो बड़ी शोहरत थी 
फिर ये पुरस्कार वापसी का लाइव तमाशा क्यों किया तूने

मुनव्वर राना की रायबरेली में नालियों में बहती थी सत्ता
सड़ती रही, बदबू करती रही
राना उस सत्ता पर फक्र करता रहा, सत्ता की सड़ांध पर
इत्र डालकर खुशबू का अहसास करता रहा 

अच्छी बात ये है कि राना शायद इतने बेगैरत और नासमझ नहीं थे। जो उन्हें समझ में न आता कि देश में कितने खराब हालात हैं। और इस तरह भारतीय जनता पार्टी की सरकार के खिलाफ तयकर की जा रही पुरस्कार वापसी से देश कितना बचेगा। छद्म धर्मनिरपेक्ष साहित्यकारों के पतन की कहानी जारी है। कुछ लोग पतनशील साहित्य लिखते थे। अब कुछ लोग नामवर सिंह को पतनशील साहित्यकार कह रहे हैं। वजह। अरे वही। संघियों से मिल गया लगता है। मेरे जैसे नहीं, तो नहीं चलोगे। बदनाम कर देंगे। गैरसरोकारी बना देंगे। इनका यही मूल मंत्र है। वजह सिर्फ ये नामवर सिंह ने कह दिया कि सम्मान लौटाना गलत है। क्योंकि, ये पुरस्कार सरकार नहीं साहित्यकारों की संस्था साहित्य अकादमी देती है। लेकिन, ये कोई सोए थोड़े ना हैं। जो इनको कोई जगा सकता है। ये इस अंदाज में हैं कि तुम हमारे पुरस्कार वापसी को मौकापरस्ती बताओगे, तो हम तुम्हें दंगाई कह देंगे। अब बोलो। बोलती बंद हो गई। 

Sunday, October 25, 2015

बिहार के भले की सरकार बननी जरूरी

बिहार में किसी सरकार बनेगी, ये आठ नवंबर को तय होगा। लेकिन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश में बीजेपी विरोधी मंच और मजबूत होगा। साथ ही नीतीश ये भी दावा कर रहे हैं कि ये नतीजे बिहार का भी भाग्य बदल देंगे। पहली बात सही हो सकती है कि अगर महागठबंधन की सरकार बनती है, तो देश में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी विरोधी ताकतें एकजुट होंगी और पहले से मजबूती से होंगी। लेकिन, क्या महागठबंधन की जीत बिहार के लोगों, खासकर नौजवानों का भला कर पाएगी। इस सवाल का जवाब आंकड़ों से समझें, तो ना में ही मिलता है। नीतीश कुमार की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी के साथ चला एनडीए का बिहार देश का सबसे तेजी से तरक्की करना वाला राज्य बन गया था। 2012-13 में बिहार की तरक्की की रफ्तार पंद्रह प्रतिशत थी। जो, देश के किसी भी राज्य से ज्यादा थी। गुजरात, महाराष्ट्र जैसे देश के विकसित राज्य भी बिहार से पीछे छूट गए थे। जून 2013 में नीतीश कुमार ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी से अलग होने का फैसला कर लिया। वजह गुजरात के उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने का बीजेपी का फैसला था। नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनावों के पहले अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया। उसी रिपोर्ट में राज्य की बेहतर होती कानून व्यवस्था का भी जिक्र है। नीतीश कुमार के रिपोर्ट कार्ड के आधार पर देखें, तो मार्च 2013 तक पंद्रह प्रतिशत की तरक्की की दर मार्च 2015 तक दस प्रतिशत के नीचे आ गई है। सीधा सा मतलब है कि बिहार की तरक्की की रफ्तार में तेजी से कमी आई है। यही वो समय है जब नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़कर लालू प्रसाद यादव का साथ किया था।

नीतीश-बीजेपी गठबंधन टूटने के बाद से राज्य में अपराध के मामले तेजी से बढ़े हैं। सांप्रदायिक तनाव के मामले कई गुना बढ़े हैं। जनवरी 2010 से जून 2013 तक 226 सांप्रदायिक तनाव के मामले दर्ज हुए थे। जबकि, जून 2013 से 2015 के दौरान साढ़े छे सौ से ज्यादा सांप्रदायिकक तनाव के मामले दर्ज हुए हैं। सुशासन बाबू की छवि पर ये तगड़ा धक्का था। बिना बीजेपी के नीतीश की सरकार में बढ़ रहे अपहरण के मामले लालू प्रसाद यादव के जंगलराज की याद दिलाने लगते हैं। बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में 924, 2011 में 1050, 2012 में 1188 अपहरण के मामले दर्ज हुए। 2013 से अपहरण के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2013 में 1501, 2014 में 1982 और 2015 अगस्त महीने तक ही 1694 अपहरण के मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन, कमाल की बात ये है कि बिहार के चुनाव में तरक्की की रफ्तार या फिर अपराध, अपहरण के मामले चुनावी मुद्दा नहीं हैं। चुननावी मुद्दा पूरी तरह से जाति है। आरक्षण है। इस बहस में ये पूरी तरह से गायब है कि तरक्की रफ्तार बेहतर नहीं होगी और कानून-व्यवस्था की हालत दुरुस्त नहीं होगी तो, नौजवान को रोजगार कैसे मिल पाएगा। काबिल होने के बावजूद रोजगार न मिल पाना ही बिहार से पलायन की सबसे बड़ी वजह है। जो नौजवान बिहार में हैं। उनमें करीब आधे के लिए कमाई का जरिया सिर्फ और सिर्फ खेती ही है। बिहार में खेती की तरक्की की रफ्तार चार प्रतिशत से भी कम है। तो इसी से समझा जा सकता है कि खेती से नौजवान कितनी कमाई कर पा रहे होंगे। बचे-खुचे नौजवानों को कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मजदूरी का काम मिल रहा है।

खेती में खास तरक्की है नहीं और नए उद्योग भी नहीं लग रहे हैं। 2013 के आखिर के आंकड़ों के आधार पर पूरे राज्य में छोटे-बड़े सभी उद्योगों को जोड़ें, तो ये संख्या साढ़े तीन हजार से भी कम बैठती है। जो देश के उद्योगों का सिर्फ डेढ़ प्रतिशत है। देश के तेजी से तरक्की करने वाले राज्यों- तमिलनाडु (16.6%), महाराष्ट्र (13.03%), गुजरात (10.17%)- में ये दस प्रतिशत से ज्यादा है। विश्व बैंक के उद्योग लगाने के लिए भारत के बेहतर राज्यों की सूची में बिहार का स्थान इक्कीसवां आता है। इसलिए बिहार में उद्योगों का ना के बराबर होना चौंकाता नहीं है। गुजरात इस सूची में पहले स्थान पर है। झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का स्थान इसके बाद है। जाहिर है खेती में तरक्की की रफ्तार बेहद कम होने और उद्योगों के ना के बराबर होने से बिहार के नौजवानों के पास अपना घर, जमीन छोड़ने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। देश भर में उद्योगों में करीब तेरह करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। बिहार में सिर्फ एक लाख सोलह हजार लोगों को उद्योगों में रोजगार मिला है। इसी से समझा जा सकता है कि बिहार में उद्योगों का हाल कितना बुरा है। इस वजह से बिहार पलायन कर रहा है। इस पलायन का भी सबसे दुखद पहलू ये है कि बिहार में ज्यादा पढ़ लेने का मतलब है कि बिहार में रोजगार मिलना मुश्किल है। बार-बार ये बात होती है कि बिहारी बिहार में नहीं टिक रहा है। लेकिन, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बिहार का नौजवान अगर अच्छे से पढ़ने के बाद रोजगार का बेहतर मौका खोज रहा है। तो उसे बिहार छोड़ना ही होगा। नीतीश कुमार भले ही दस साल के राज में देश के सबसे तेजी से तरक्की करने वाले राज्य का दावा पेश कर रहे हों। लेकिन, आंकड़े साफ बता रहे हैं कि बिहार एक राज्य के तौर पर अपने राज्य के नौजवानों को बेहतर जिंदगी देने का काम नहीं कर पाया है।


स्वास्थ्य के मामले में भी बिहार के हालात बहद खराब हैं। बच्चों का जीवन नहीं बच पा रहा है। बिहार में दस लाख लोगों पर एक भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। बिहार में कुल 533 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 2009 में थे। दुखद बात ये है कि 2014 तक एक भी नया सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना है। लेकिन, इन बातों में से कोई भी बिहार के चुनावी मुद्दे में शामिल नहीं है। वहां जातीय भावना उभारने की लड़ाई हो रही है। रोजगार, स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था कोई मुद्दा दिख नहीं रहा। लेकिन, बिहार में रह रहे बिहारी और बाहरी बिहारियों के लिए ये मुद्दा जरूर होगा। और आठ नवंबर को जिसकी भी सरकार बनेगी। इन्हीं मुद्दों के इर्द गिर्द बनेगी। बिहार की सरकार बिहार के भले के लिए बनेगी। 

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...