Saturday, May 31, 2014

ये उत्तर प्रदेश का चरित्र है!


इतिहास उठाकर देख लीजिए। किसी भी समुदाय, समाज की व्याख्या उसके नायकों के आधार पर ही की गई है। पहले राजे-रजवाड़े, नवाब होते थे। अब लोकतंत्र है। इसलिए चुनकर जो आ जाए वो नायक होता है। चुनकर कैसे आया ये सब महत्वहीन हो जाता है। कितने लोगों ने उसे चुना ये भी महत्वहीन हो जाता है। लेकिन, चुनकर आया तो लोकतंत्र में वही पूरे समुदाय, समाज, राज्य और देश का नायक होता है। इसलिए उसी के चरित्र से पूरे समुदाय, समाज, राज्य और देश का चरित्र तय होता है। आज उत्तर प्रदेश का चरित्र तय हो रहा है। आजकल उत्तर प्रदेश के चरित्र तय होने का पैमाना बदायूं है। बदायूं में दो लड़कियों की पेड़ से लटकी तस्वीरें उत्तर प्रदेश का चरित्र दिखा रही है। पता नहीं उत्तर प्रदेश शर्मसार है या नहीं। क्योंकि, उत्तर प्रदेश को अब शायद इस तरह से अपने चरित्र की व्याख्या की आदत पड़ गई होगी। वरना पत्रकार पूछे और उसे मुख्यमंत्री के तौर पर अखिलेश यादव ये कहते क्या कि आप तो सुरक्षित हैं। अब ये सुरक्षित होने का आश्वासन था या फिर आप सुरक्षित हैं ये क्या कम है। और क्या आप चाहते हैं कि आप भी सुरक्षित न रहें, इस तरह की धमकी थी। उत्तर प्रदेश का चरित्र तय हो रहा है। ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश अपने इस चरित्र निर्माण की प्रतिक्रिया नहीं देना चाहता। दिया भी। अभी 16 मई को जो नतीजे आए। वो उत्तर प्रदेश के यादव परिवार द्वारा किए गए चरित्र निर्माण की तगड़ी प्रतिक्रिया ही थी। लेकिन, इस प्रतिक्रिया के बावजूद यादव परिवार के चरित्र के लिहाज से ही पूरे उत्तर प्रदेश का चरित्र तय होगा। इसके बावजूद की अब यादव परिवार उत्तर प्रदेश का नायक भी नहीं रहा। लेकिन, लोकतंत्र में चुनने के हक के साथ ये मजबूरी भी शामिल होती है कि पांच साल तक तो चरित्र वही चुना हुआ नायक ही तय करेगा। वो कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि ये अभी हो रहा है। ये हर बार हुआ है। और इसीलिए कई बार होने के बाद भी जब उत्तर प्रदेश को अपने नायक के तौर पर समाजवादी यादव परिवार ही नजर आता है तो ये गलत भी नहीं है कि यादव परिवार के चरित्र को पूरे उत्तर प्रदेश का चरित्र मान लिया जाए। ऐसा नहीं है कि किसी राज्य में या कितने भी सख्त प्रशासन में ऐसी विकृत मानसिकता वाले आततायी न हों और वो इस तरह का व्यवहार न करें। लेकिन, अंग्रेजी में एक शब्द कहा जाता है जीरो टॉलरेंस, यानी किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं है। जब नायक वो आचरण दिखाता है। तो अपने चरित्र से पूरे समुदाय, समाज, राज्य और देश का चरित्र बना देने वाले अपना वो चरित्र सार्वजनिक तौर पर जाहिर करने में डरते हैं। लेकिन, जब राज्य का घोषित नायक अखिलेश यादव इस तरह का चरित्र दिखा रहा हो। समाजवाद के सबसे बड़े स्वघोषित लंबरदार मुलायम सिंह यादव को बलात्कार लड़कों की गलतियां लगता हो। बलात्कार कोई ऐसा अपराध न लगता हो जिसमें फांसी हो। जब मुलायम सिंह यादव को मुजफ्फरनगर के दंगे सिर्फ साजिश लगती हो। जब मुलायम सिंह यादव को दंगों के बाद बेघर मुसलमान कैंप में रहें तो वो मुआवजे और उनकी समाजवादी सरकार की छवि खराब करने के लिए किराए पर लाए मुसलमान लगते हों। तो उत्तर प्रदेश के साथ हर कोई बलात्कार करने के लिए स्वतंत्र हो जाता है। फिर कैसे एक परिवार का चरित्र पूरे प्रदेश का चरित्र बना-बिगाड़ देता है वो भी देखिए। इसी उत्तर प्रदेश के चरित्र को एक अधिकारी के बयान ने और पुख्ता कर दिया था। भूल गए होंगे। इसीलिए उत्तर प्रदेश का ये चरित्र बार-बार बनता (बिगड़ता) है। अधिकारी का मानना था कि ठंड से कोई मर कैसे सकता है। उसके आगे का ये है कि भूख से भी भला कोई कैसे मर सकता है। लेकिन, फिर सवाल यही उठता है कि आखिर जब इतना चरित्र निर्माण उत्तर प्रदेश में हो रहा है तो फिर इसे पूरे प्रदेश का चरित्र कैसे न माना जाए। आखिर हम उत्तर प्रदेश के लोगों ने ही तो इस चरित्र निर्माणी परिवार को अपना नायक बनाया। इस कदर कि उन्हें लगा कि इस परिवार के अलावा किसी और में उत्तर प्रदेश के लोगों को भरोसा ही नहीं है। यादव परिवार के नाते और मुसलमान बीजेपी से डरे होने के कारण मुलायम सिंह यादव परिवार को पूरे वोटों का भरोसा देते रहे हैं। उन्हें इससे रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता कि यादव परिवार का चरित्र कैसे पूरे यादवों, मुसलमानों और पूरे राज्य का चरित्र तय कर रहा है। हालांकि, लोकसभा चुनावों के आधार पर देखें तो उत्तर प्रदेश का नायक बदल चुका है। यादव परिवार में ही सीमित हो गया है। यादवों ने भी अपने इस चरित्र चित्रण के खिलाफ तगड़ी प्रतिक्रिया दी। और मुसलमान भी भारतीय जनता पार्टी से पहले जैसा डरकर यादव से मौलाना हो गए मुलायम के पास नहीं गया। अब सवाल लोकतांत्रिक तौर पर राज्य का नायक चुनने का होगा तो इस बार हमें यानी उत्तर प्रदेश के लोगों को ज्यादा सावधान रहना होगा। क्योंकि, हर उत्तर प्रदेश वासी का चरित्र वही तय करेगा जो उत्तर प्रदेश का नायक होगा। लोकतांत्रिक भाषा में मुख्यमंत्री होगा। उत्तर प्रदेश की ये वही स्थिति है जो, लालू प्रसाद यादव के एक परिवार के चरित्र से पूरे बिहार के चरित्र चित्रण वाली थी। अरे इस लोकसभा चुनाव में भी तो पाटलिपुत्र की प्रतिष्ठित लड़ाई लालू यादव के पारिवारिक चरित्र की वजह से ही सुर्खियों में रही थी। लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, मीसा भारती, तेजस्वी, तेज प्रताप, साधू, सुभाष यादव ऐसे ही उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, रामगोपाल, शिवगोपाल, अखिलेश, धर्मेंद्र, अक्षय, डिंपल ...। इसीलिए लोकतंत्र में नायक चुनने का महत्व और बढ़ जाता है। क्योंकि, राजे-रजवाड़े, नवाबों के समय वही अच्छे या खराब होते थे। यानी नायक का ही चरित्र बनता-बिगड़ता था। लेकिन, लोकतंत्र में चुनने का अधिकार लोगों को है तो चुन लेने के बाद भले ही नायक का चरित्र बने-बिगड़े लेकिन, वो बना-बिगड़ा चरित्र माना उन सभी चुनने वालों का माना जाएगा। देखिए ना एक नरेंद्र मोदी के चरित्र को पूरे गुजरात का चरित्र मान लिया गया है। कमाल तो कभी-कभी ये भी हो जाता है कि लोकतंत्र में हम नायक न भी चुनें तो भी कई बार चरित्र हमारा बिना चुने नायक के आधार पर भी हो जाता है। राज ठाकरे उसका अद्भुत उदाहरण है। इसलिए उत्तर प्रदेश के लोगों बदायूं, मुजफ्फरनगर तुम्हारा चरित्र बन गया है। लेकिन, इस पर खोपड़भंजन करने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में चरित्र लोकतंत्र में चुने गए नायकों के आधार पर तय होता है। इसलिए नायक चुनते वक्त अपना चरित्र मजबूत कीजिए नहीं तो ये लोकतंत्र के नायक जाति, धर्म, समाज, राज्य और देश का चरित्र ऐसे ही बिगाड़कर हमें शर्मिंदा करते रहेंगे।

मोदी के 10 का कितना दम?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काम की शैली कुछ ऐसी है कि एक बात तो लगने लगी है कि इस सरकार में मंत्री हो या बाबू काम किए बिना काम नहीं चलेगा। प्रधानमंत्री कार्यालय में नरेंद्र मोदी की अधिकारियों के साथ बात करती एक तस्वीर मीडिया और सोशल मीडिया में गजब छाई हुई है। नरेंद्र मोदी की ये एक ऐसी छवि है कि प्रधानमंत्री होने के बाद भी नरेंद्र मोदी ऑफिस की कुर्सी पर ही चिपके रहकर सिर्फ फैसले नहीं लेते हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही था कि आखिर नरेंद्र मोदी की सरकार के काम करने का तरीका क्या होगा। उसकी प्राथमिकता क्या होगी। और नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रियों को साफ-साफ निर्देश दे दिए हैं कि काम की प्राथमिकता क्या होगी। खबरें हैं कि नरेंद्र मोदी दस के दम के जरिये इस सरकार का प्रभाव आम लोगों के दिमाग में बसाने की योजना तैयार की है। नरेंद्र मोदी को पता है कि इस देश में लोग सबसे ज्यादा त्रस्त यूपीए के कार्यकाल में दो बातों से रहे। पहला उनकी तरक्की कम होती गई और उस पर कोढ़ में खाज ये कि महंगाई लगातार बढ़ती रही। इसलिए मोदी सरकार की दस प्राथमिकताओं में पहली प्राथमिकता भी यही है। सभी मंत्रियों को खासकर आर्थिक, बुनियादी मंत्रालयों को कहा गया है कि आर्थिक तरक्की के रास्ते में आ रही सारी बाधाएं तेजी से दूर की जाएं। महंगाई घटाई जाए। हालांकि, ये सबसे कठिन काम होगा। क्योंकि, वित्तीय वर्ष 2014 की तरक्की की रफ्तार के आंकड़े पांच प्रतिशत के नीचे ही रहने वाले हैं। यूपीए दो के आखिरी दिनों में तरक्की की रफ्तार किस कदर बिगड़ चुकी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लगातार छे तिमाही में तरक्की की रफ्तार साढ़े चार प्रतिशत से कुछ ज्यादा ही रही है। इस रफ्तार को पांच प्रतिशत करने के लिए जिस तरह के फैसले लेने के साथ लागू करने की जरूरत है उसमें कम से कम थोड़ा समय लगेगा। हां, अच्छी बात ये है कि इस सरकार के आने के साथ दुनिया का भरोसा भारत में बड़ी तेजी में लौटा है। लेकिन, महंगाई घटाने की प्राथमिकता इससे भी बड़ी चुनौती होगी। अच्छी बात ये है कि ढेर सारे राजन रहेंगे या जाएंगे अनुमानों के बावजूद वित्त मंत्री अरुण जेटली फिलहाल तुरंत तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन को नहीं हटाने जा रहे। राजन की नियुक्ति भले ही पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने की हो। 

लेकिन, राजन ने जिस तेजी में रुपये को संभाला और कुछ हद तक महंगाई को काबू में करने की कोशिश की वो, सराहनीय है। लेकिन, एक बात जो सबसे जरूरी है वो है ब्याज दरों का घटना। अब इस मोर्चे पर नए वित्त मंत्री के साथ राजन कैसे संतुलन बैठाएंगे और नरेंद्र मोदी सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता को कैसे अमल करा पाएंगे ये बड़ा प्रश्न है। नरेंद्र मोदी गुजरात राज्य की बिजली, सड़क, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के आधार पर ही चुनाव लड़े। इसलिए नरेंद्र मोदी का अपने मंत्रियों को साफ निर्देश है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी और सड़क की सुविधाएं जितनी जल्दी जितने ज्यादा लोगों को पहुंचे उस पर काम किया जाए। ये चुनौती और भी बड़ी इसलिए हो जाती है कि शिक्षा का जिम्मा जिस मानव संसाधन विकास मंत्रालय के जिम्मे है उसे स्मृति ईरानी को देने से खूब विवाद हो चुका है। लेकिन, स्मृति ईरानी ने जवाब दिया है कि मेरे काम से मेरी क्षमता आंकें तो बेहतर होगा। वैसे ये माना जाता है कि नरेंद्र मोदी खुद शिक्षा को लेकर बहुत कुछ सोचते हैं इसीलिए उन्होंने अपने दृष्टिकोण को बिना किसी तरह की रुकावट के लागू करने के लिए ही स्मित ईरानी को ये महत्वपूर्ण मंत्रालय दिया है। लेकिन, नरेंद्र मोदी की शिक्षा को लेकर एक नीति में थोड़ी सी स्पष्टता आनी जरूरी है कि वो वोकेशनल, प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई से तैयार जवान भारत देखने की इच्छा रखते हैं या फिर दुनिया के सबसे बड़े शोध संस्थानों में भी भारत का शुमार हो ये भी उनकी योजना में है। जहां तक स्वास्थ्य, बिजली, सड़क और पानी का सवाल है तो उसके लिए लंबी योजना बनाकर उसे टुकड़ों में जल्दी-जल्दी लागू करना होगा। जिससे दिखे कि इस प्राथमिकता पर मोदी सरकार काम कर रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से इतना तो साबित हो चुका है कि काम करने के लिए पांच-छे साल का समय भी बहुत होता है।

बुनियादी सुविधाओं को तेजी से लागू करने के लिए ढेर सारा निवेश भी चाहिए और इसके लिए एफडीआई आए इसका इंतजाम करना होगा। हालांकि, इस मोर्चे पर नरेंद्र मोदी की जो साख दुनिया में गुजरात का मुख्यमंत्री रहने के दौरान बनी है तो ज्यादा मुश्किल इस मोर्चे पर नहीं होनी चाहिए। माना जा रहा है कि एफआईआई और एफडीआई दोनों मिलाकर इस वित्तीय वर्ष में साठ बिलियन डॉलर से भी ज्यादा का विदेशी निवेश भारत में होगा। नरेंद्र मोदी देश के ऐसे नेता हैं जिन्होंने तकनीक और सोशल मीडिया का समय से और बेहतर इस्तेमाल करके अपनी छवि बेहतर की और देश की सर्वोच्च सत्ता पर आसीन हुए। अब वो इसका इस्तेमाल अपनी सरकार के बेहतर कामों को लोगों तक पहुंचाने और उस काम को और बेहतर बनाने के लिए जनता की सहभागिता तय करने के लिए करना चाहते हैं। इस काम में उनकी टीम की विशेषज्ञता और प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय की चमकती वेबसाइट साबित करती है कि इसमें उन्हें ज्यादा मुश्किल नहीं आने वाली। पिछली सरकार की एक सबसे बड़ी कमी ये रही कि ढेर सारे प्रोजेक्ट में लगातार देरी होती रही। अब नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रियों को कहा है कि कोई भी काम एक तय समय में पूरा किया जाए। करीब अस्सी हजार करोड़ रुपये की परियोजनाएं पर्यावरण से लेकर अलग-अलग वजहों से अभी तक रुकी हुई हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदी की दस प्राथमिकताओं में मंत्रालयों के बीच बेहतर समन्वय की बात भी शामिल है। जिससे एक मंत्रालय की फाइल दूसरे मंत्रालय में बिना वजह लंबे समय तक न रुकी रहे। सरकारी नीतियां लगातार बदलती रहें तो फिर कोई भी निवेश करने वाला निवेश करने से डरेगा और यूपीए के कार्यकाल में यही हुआ। यहां तक कि सबसे ज्यादा चर्चित मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई तक के फैसले को वापस लिया गया और फिर से लागू किया गया। उसी का नतीजा था कि यूपीए दो में सरकार की हरसंभव कोशिश के बाद भी कोई विदेशी दुकान दिखाने के लिए भी नहीं खुल सकी। नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि नीतियां जो एक बार अमल में आएं उसमें बार-बार बदलाव न हो। इसमें ज्यादा मुश्किल इसलिए भी आती नहीं दिखता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी साफ कर दिया है कि संघ आर्थिक तौर पर रुढ़िवादी नहीं है। इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि नरेंद्र मोदी की सरकार को फैसले लेने या बदलने के लिए बेवजह का दबाव कम से कम संघ की तरफ से तो नहीं झेलना पड़ेगा। नरेंद्र मोदी ये भी चाहते हैं कि उनकी सरकार में सबकुछ पारदर्शी हो और लोगों को सरकारी काम लेने में सहूलियत हो। इसके लिए मोदी सरकार ई ऑक्शनिंग पर जोर देगी। इसका मतलब ये हुआ कि लालफीताशाही के जरिये बरसों से हो रही टेंडर प्रक्रिया को ज्यादा तेजी से और पारदर्शी तरीके से लागू किया जाएगा। ये पूरी तरह से किसी सरकार के काम करने के तरीके पर निर्भर होता है और नरेंद्र मोदी ने जो शुरुआती संदेश दिए हैं उसमें तो ये नहीं लगता कि कोई भी मंत्रालय या विभाग इसमें जरा भी कोताही बरतना चाहेगा। बार-बार ये कहा जाता है कि सरकार तो बाबू चलाते हैं। लेकिन, यूपीए दो में एक और जो सबसे खराब बात हुई कि उद्योगपतियों से लेकर सरकारी बाबुओं तक, सबका मनोबल टूटा। उसमें भी ये संदेश गया कि ईमानदार अधिकारियों को फैसले लेने पर फंसने का खतरा है। नरेंद्र मोदी ने साफ कहा है कि आधिकारियं का मनोबल बढ़ाया जाए। जिससे वो बड़े और कड़े फैसले ले सकें। इसी शुरुआत नरेंद्र मोदी ने एक ईमानदार और बेहद कड़ी छवि के नृपेंद्र मिश्रा को प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाने के लिए अध्यादेश लाकर कर दी है। मतलब संदेश साफ है कि आप काम करना चाहते हैं तो ये सरकार आपके लिए है। और सबसे बड़ी बात कि दस प्राथमिकताओं में नरेंद्र मोदी ने बहुत साफ किया है कि आपकी सरकार बहुत ऊंची अकांक्षाओं पर आई है। जनता को बहुत उम्मीदें हैं इस सरकार से। इसलिए जनादेश पूरा करने में जरा सा भी कोताही नहीं होनी चाहिए। अब नरेंद्र मोदी की सरकार उनके दस का दम दिखाकर अर्थव्यवस्था और देश की मजबूती वापस ला पाएगी। इसके लिए तो थोड़ा इंतजार करना होगा। लेकिन, शुरुआती संकेत में जिस तरह से मंत्रियों में जल्दी से जल्दी काम करने की होड़ लगी है उससे साफ है कि 100 दिन बाद देश को बताने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार के पास काफी कुछ होगा।

Tuesday, May 27, 2014

नमो का ब्रांड स्वदेशी


आखिरकार प्रधानमंत्री पद की सुरक्षा जरूरतों को देखते हुए नरेंद्र मोदी की अधिकारिक सवारी बीएमडब्लू हो ही गई। लेकिन, इससे पहले नरेंद्र मोदी जिस तरह से अपने आचरण व्यवहार में स्वदेशी का इस्तेमाल करते रहे हैं या यूं कहें कि जिस तरह से राष्ट्र की भावना को आगे रखते हैं वो काबिलेतारीफ होता है। 2008 में अहमदाबाद में लगातार हुए कई धमाकों की कवरेज के लिए मैं अहमदाबाद में था। अहमदाबाद एयरपोर्ट से शहर के लिए निकला ही था कि हम लोगों की कार रोक दी गई। पता चला गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का काफिला जा रहा है। आधा दर्जन से ज्यादा महिंद्रा स्कॉर्पियो का काफिले में गुजारत के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जा रहे थे। रात के ग्यारह बज रहे थे। मुख्यमंत्री काम पर थे। अहमदाबाद के लोग दहशत में न आ जाएं इस बात का भरोसा दिलाने के लिए वो दृढ़प्रतिज्ञ दिखे। महिंद्रा स्कॉर्पियो क्यों नरेंद्र मोदी की पसंद है वो बात उस समय मेरी समझ में नहीं आई थी। बाद में समझ में आया कि थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली के सिद्धांत को नरेंद्र मोदी ने अपने निजी जीवन में किस तरह उतारा हुआ है। शायद ही कभी नरेंद्र मोदी के किसी व्यवहार से ये लगा हो कि वो विदेशी कंपनियों या सामान के विरोधी हैं। बल्कि, ज्यादातर उनकी छवि दुनिया की कंपनियों को किसी तरह अपने गुजरात में लाने वाले नेता की ही रही। लेकिन, ये एक बड़ा उदाहरण था कि किस तरह से एक व्यक्ति अपने आचरण से ये तय कर सकता है कि वो क्या करना चाहता है और उसके चाहने वाले क्या करें। ये आचरण है नरेंद्र मोदी का स्वदेशी विचार को अपनाने का। अब खबरें ये हैं कि क्या नरेंद्र मोदी सात रेसकोर्स रोड में भी महिंद्रा स्कॉर्पियो के काफिले में ही प्रवेश करेंगे या फिर पहले की ही परंपरा को आगे बढ़ाते हुए जर्मन कंपनी बीएमडब्लू की कारों के काफिले का इस्तेमाल करेंगे। अंबैसडर कारों के बाद धीरे-धीरे ज्यादातर राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री आधुनिक विदेशी कारों का इस्तेमाल करने लगे हैं। महिंद्रा एंड महिंद्रा के चेयरमैन आनंद महिंद्रा नरेंद्र मोदी के स्वदेशी आचरण की भावना को अपनी कंपनी की ब्रांडिंग के पक्ष में इस्तेमाल करने को आतुर हैं। आनंद महिंद्रा ने इच्छा जाहिर की है कि देश के प्रधानमंत्री के तौर पर भी नरेंद्र मोदी महिंद्रा स्कॉर्पियो का ही इस्तेमाल करें। उनका कहना है कि ये हमारे लिए और पूरे देश के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे प्रधानमंत्री पूरी तरह से भारतीय महिंद्रा स्कॉर्पियो का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी प्रधानमंत्री की सुरक्षा के स्तर के लिए जरूरी हर तरह के बदलाव स्कॉर्पियों में करेगी।

स्वदेशी ब्रांड को आगे बढ़ाने की नरेंद्र मोदी की इच्छा का ये एक नमूना भर है। यानी बेवजह का हल्ला मचाए बिना स्वदेशी की चिंता की जा सकती है। उसे आगे बढ़ाया जा सकता है। ये नरेंद्र मोदी सिर्फ मानते ही नही हैं करके भी दिखाया है। बार-बार ये बात कही जाती है। और हम जैसे लोगों को भी ये चिंता होती है कि नरेंद्र मोदी का नाम पर बाजार में जो तेजी आई है वो कहीं बुलबुला ही न साबित हो। नरेंद्र मोदी पर बार-बार ये आरोप लगता रहा है कि वो निजी उद्योगपतियों के हितों की चिंता करने वाले नेता है। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में इस सवाल का जो जवाब दिया उससे बात साफ हो जाती है। उन्होंने कहाकि मेरे उद्योगपतियों से अच्छे संबंध हैं लेकिन, वो राज्य के हित के लिए हैं। मेरा कोई निजी हित उनसे पूरा नहीं होता। इसलिए मैं खुलेआम उनसे संबंध रखता हूं लेकिन, गलत तरीके से कारोबारियों से फायदा लेने वाले खुलेआम ये संबंध स्वीकार करने में डरते हैं। और इसका असर देखिए कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद सिर्फ अदानी या रिलायंस के शेयरों में तेजी देखने को नहीं मिली है। नरेंद्र के प्रधानमंत्री बनने की आहट से प्रधानमंत्री बन जाने तक सरकारी कंपनियों के शेयरों में जबरदस्त मजबूती देखने को मिली है। फिर चाहे वो केंद्र सरकार के अंतर्गत चलने वाली कंपनियां हों या फिर गुजरात राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियां। एक दर्जन से ज्यादा केंद्रीय सरकार की पब्लिक सेक्टर की कंपनियों के शेयर मंगलवार को 52 हफ्ते के सबसे ऊंचे स्तर पर थे। यही हाल गुजरात राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों का भी था। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पर पीएसयू इंडेक्स यानी सरकारी कंपनियों के शेयरों की कीमत बताने वाले सूचकांक एक नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की खबरों से करीब चौदह प्रतिशत बढ़ गया। ये सभी सेक्टरों के सूचकांक की सबसे अच्छी बढ़त है। सरकारी कंपनी भेल के शेयर एक हफ्ते में सत्ताइस प्रतिशत चढ़ गए हैं। एनटीपीसी, एनएमडीसी, पावर ग्रिड इन सभी कंपनियों के शेयर में तेज उछाल देखने को मिली है। ये उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि नरेंद्र मोदी जैसा प्रधानमंत्री इस देश को मिला है जो सिर्फ बोलकर नहीं अपने कामों से भी ये साबित करता है कि तरक्की सबसे पहले हैं। और इस तरक्की में निजी या सरकारी कंपनियों का भेद नहीं होगा। उम्मीद है इस तरक्की में लोगों का भी भेद नहीं होगा। शेयर बाजार एक लंबी दौड़ के लिए तैयार है। अगर इस दौड़ में देसी निजी कंपनियां दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनियों से मुकाबले के लिए तैयार हो जाती हैं तो इससे बेहतर क्या होगा। इससे बेहतर क्या होगा कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते देश की सरकारी कंपनियों को बेचने की बजाए उन्हें बड़ा से बड़ा ब्रांड बनाने की बात हो। क्या बेहतर हो कि देश की सरकारी कंपनियों में नौकरी करने वालों को ये अफसोस न हो कि वो किसी निजी कंपनी में क्यों नहीं हैं। तरक्की के लिए प्रतिभा जरूरी पैमाना हो। सिर्फ नौकरी की उम्र के आधार पर सरकारी कंपनियों में तरक्की न हो। नरेंद्र मोदी को कई बड़े बदलाव सरकारी कंपनियों के कामकाज में करने होंगे। सरकारी कंपनियों को भी लक्ष्य तय करने और उसे समय से पूरा करने की जिम्मेदारी और उसी आधार पर तारीफ या सजा मिलनी चाहिए। ये सब अगर नरेंद्र मोदी की सरकार कर पाई तो निश्चित तौर पर भारत के लिए अगले पांच साल बेहद अहम साबित होंगे। और अभी तक के अपने कामों से नरेंद्र मोदी ने कम से कम ये साबित किया है कि वो जो कहते हैं वो करके दिखाते हैं।


Sunday, May 25, 2014

जाति की राजनीति के पैर जमाने की कोशिश फिर शुरू


इस लोकसभा चुनाव के परिणामों ने बहुत कुछ साबित किया है। और साबित ये भी हो गया है कि नरेंद्र मोदी की राजनीति ने देश में धर्म और जाति की राजनीति का शीर्षासन करा दिया है। एक पिछड़े व्यक्ति को संघ ने प्रचारक बनाया और संघ के प्रचारक के तौर पर नरेंद्र मोदी का कार्यकाल रहा हो या भारतीय जनता पार्टी में नेता के तौर पर। अगर ध्यान से देखें तो संघ में सारे ब्राह्णण से लेकर अगड़ी जातियों के प्रचारक रहे हों या फिर भारतीय जनता पार्टी। सभी जगह नरेंद्र मोदी ने पहले संघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में काम करते हुए अपने वरिष्ठों के सहयोग से और फिर अपनी खुद की रणनीतिक ताकत से जिस तरह तरक्की की है, वो भी समझनी जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लंबे अरसे से जिस तरह जाति की राजनीति की तोड़ने की कोशिश कर रहा था। उसमें गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग के बाद ये मास्टर स्ट्रोक था। जिस तरह से अपने उद्भव के बाद पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राजनीतिक तौर पर इतनी सक्रिययता दिखाई। उतनी सक्रियता न तो संघ ने जनसंघ के समय में सार्वजनिक तौर पर दिखाई थी और न ही पहले स्वयंसेवक जाति से ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए। और अद्भुत है कि जो व्यक्ति प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुका हो और उससे पहले जो व्यक्ति देश के सबसे विकसित राज्य का मुख्यमंत्री करीब चौदह साल रहा हो वो, इस तरह का था कि उसका परिवार अभी देश के किसी सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार की ही तरह दिखता है। जिस दौर में किसी नेता से रिश्ते बना लेने से करोड़ो-अरबों की संपत्ति लोग बना लेते हैं। उस दौर में देश के सबसे बड़े नेता के अपने निजी रिश्ते वाले लोग वैसे के वैसे रहे। ये त्याग भारतीय जनमानस के मन में घर कर गया।

मैं निजी तौर पर मानता हूं कि संघ की तरफ से 2014 की लोकसभा चुनाव की रणनीति 2004 की लोकसभा चुनाव के बाद की सोनिया गांधी की रणनीति का तगड़ा जवाब है। आप कल्पना कीजिए। एक विदेशी महिला ने भारतवर्ष में खुद को भारत, भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े लंबरदार मानने वाले संगठन को भारतीय संस्कृति के सबसे ऊंचे मानदंड यानी त्याग पर ही चित कर दिया था। 2004 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विदेशी-विदेशी चिल्लाता हुआ सोनिया गांधी पर हमला करके कांग्रेस को ही चित करने की रणनीति बना रहा था तो, यही संसद का सेंट्रल हॉल था। जहां सोनिया गांधी आईं। देश देख रहा था। देश देख रहा था सोनिया के लिए पागल कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भी। लोगों को वो पागलपन भूल गया होगा कि किस तरह एक पागल हो रहे कांग्रेसी कार्यकर्ता ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल लगा ली थी। किस तरह संसद के सेंट्रल हॉल में सभी कांग्रेसी रुदन अवस्था में आ गए थे। जब सोनिया ने ये एलान किया कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी। सोनिया के सामने दरअसल कोई बाधा नहीं थी। भले ही ये प्रचारित किया गया कि विदेशी महिला होने की वजह से सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं। लेकिन, सच्चाई यही है कि दरअसल ऐसी कोई बाधा नहीं थी। उस समय गोविंदाचार्य वीपी हाउस के अपने कमरे से सोनिया गांधी के विदेशी मूल के खिलाफ भारत का स्वाभिमान जगाने का आंदोलन चला रहे थे। दक्षिण भारत के बड़े पत्रकार चो रामास्वामी भी इस मुहिम में साथ थे। जंतर-मंतर तक रैली निकाली गई थी। और चो रामास्वामी के घर पर ही एक प्रेस कांफ्रेंस हुई थी। जिसमें सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर सवाल खड़ा किया गया था। लेकिन, इस सारी कसरत का सोनिया गांधी ने अपने एक कृत्य से शीर्षासन करा दिया था। वो था सोनिया गांधी का त्याग। एक विदेशी महिला ने भारतीय परंपरा में ऋषियों-मुनियों की तरह व्यवहार किया था। सोनिया गांधी ने साफ कर दिया कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी। पूरी ताकत से सीताराम केसरी को कांग्रेस से अपमानित करके बाहर करने का आरोप जिन सोनिया गांधी पर लगा वही सोनिया गांधी अपने इस एक त्याग से महान हो चली थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सारी रणनीति धरी की धरी रह गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चाणक्य की छवि रखने वाला प्रचारक गोविंदाचार्य फ्लॉप हो चला था। सोनिया गांधी ने सिर्फ इतना ही नहीं किया। एक काम और किया। पहले खुद को त्यागी दिखाकर महान बनाया। फिर अपने परिवार और कांग्रेस पर लगे सबसे बड़े दाग को धोने का भी इंतजाम कर लिया। एक अर्थशास्त्री शानदार वित्त मंत्री रहे और सिख मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया। सिख प्रधानमंत्री बनाकर उन्होंने उन्नीस सौ चौरासी में अपने पति पर सिखों के नरसंहार के दाग को धुलने की भी एक नाकाम कोशिश की। लेकिन, एक काम जो हो गया वो ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने एक बेहद त्यागी, महान महिला की चुनौती पेश कर दी। संघ हतप्रभ था। क्योंकि, किसी को सपने में भी कल्पना नहीं थी कि पश्चिमी सभ्यता वाली सोनिया माइनो, गांधी बन जाने के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र की सर्वाधिक शक्तिशाली कुर्सी पर बैठने से इनकार कर देंगी। ये रणनीति सोनिया गांधी ने या जिस भी रणनीतिकार ने बनाई। अद्भुत थी।

2004 में प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने वाली महिला इस देश के प्रधानमंत्री से भी अधिक शक्तिशाली हो गई। दस सालों में सोनिया गांधी दुनिया की सबसे ताकतवर महिला में शुमार की जाने लगीं थीं। ये त्याग की ताकत थी। ये त्याग की ऐसी रणनीतिक ताकत थी कि सोनिया को सब मिल गया। एक ऐसा देश जो उन्हें एकदम से अपना मानने लगा था। एक ऐसा प्रधानमंत्री जो अपने से पहले उनकी सुनने लगा था। हर बुराई का हिसाब-किताब मनमोहन सिंह से प्रधानमंत्री के तौर पर मांगा जाता था। और हर अच्छाई के नंबर सोनिया गांधी के खाते में बिना कहे जुड़ जाते थे। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के समय में अर्थशास्त्र के सारे सिद्धांतों की बलि दे दी गई। और कहा गया कि सोनिया गांधी और उनकी नेशनल एडवाइजरी कमेटी न होती तो देश किस तरह से विदेशी नीतियों का गुलाम हो जाता। वो तो सोनिया गांधी थीं जिन्होंने देश के कमजोर लोगों, आखिरी आदमी की चिंता की। उस पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए मुश्किल ये थी कि राम मंदिर अब नए भारत के लिए भले ही आस्था का विषय हो लेकिन, वोटबैंक में तब्दील नहीं हो रहा था। फिर देश भर में जिस तरह से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार वाली भारतीय जनता पार्टी को अछूत बनाया गया वो भी एक बड़ी मुश्किल पैदा कर रहा था।

ऐसे में नरेंद्र मोदी जैसा संघ का स्वयंसेवक उभरता है लेकिन, जिसके ऊपर 2002 का इतना बड़ा आरोप लगा हुआ था जो, धर्मनिरपेक्षता की अछूत वाली राजनीति के पैमाने पर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की मुश्किल और बढ़ा रहा था। लेकिन, नरेंद्र मोदी एक खांटी प्रचारक निकले। भले ही उनके ऊपर हिंदू हृदय सम्राट का ठप्पा लगा रहा हो। नरेंद्र मोदी ने सलीके से उसे विकास पुरुष में तब्दील कर दिया। और एक काम और नरेंद्र मोदी ने धीरे से किया। वो का था अगड़ो की पार्टी और विचारधारा कही जाने वाली पार्टी और संघ को पिछड़ों के न्याय वाली असल जगह बताने का काम मजबूती से किया। नरेंद्र मोदी ने शुरू में बिल्कुल ये बताने की कोशिश नहीं की कि गुजरात का मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति से है। क्योंकि, गुजरात के मुख्यमंत्री के पिछड़ा नहीं तरक्की पर आगे ले जाने वाली छवि भर हो। लेकिन, राष्ट्रीय परिदृष्य में ये जरूरी था कि जाति की राजनीति को ध्वस्त किया जाए और धर्म के आधार पर वोटों का सीधा बंटवारा न हो। ये दोनों काम नरेंद्र मोदी ने धीरे-धीरे किया। लेकिन, भारतीय राजनीति में धर्म-जाति की राजनीति इतने गहरे जड़ें जमाए बैठी थी कि किसी धर्मनिरपेक्ष नेता को ये यकीन ही नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ नरेंद्र मोदी गुजरात से निकलकर देश में कर पाएंगे। जब 16 मई 2014 को बक्से खुले तो सबके मुंह भी खुले के खुले रह गए। ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक खांटी प्रचारक का सोनिया गांधी की त्याग की राजनीति और देश के धर्मनिरपेक्ष आवरण वाले नेताओं की अछूत बनाने वाली राजनीति का तगड़ा जवाब था। कांग्रेस के अलावा देश की पहली पूर्ण बहुमत वाली सरकार एक स्वयंसेवक की अगुवाई में बन रही थी। ये स्वयंसेवक पिछ़ड़ी जाति से भले था। लेकिन, इसने ये साबित कर दिया कि उसकी सोच बहुत आगे की है। नरेंद्र मोदी ने देश में धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की सबसे बड़ी प्रतीक कांग्रेस को पटका। उत्तर प्रदेश में पिछड़ों-दलितों की राजनीति करने वाले मुलायम-मायावती को पटका। बिहार में पिछड़ों के सबसे बड़े नेता नीतीश कुमार की राजनीति ध्वस्त कर दी। देश में क्रांति के अग्रदूत बनकर आए अरविंद केजरीवाल की राजनीति ध्वस्त कर दी। लगा कि धर्म और जाति की राजनीति का शीर्षासन हो गया। लेकिन, पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। कुछ इसी अंदाज में तिलमिलाए नीतीश का इस्तीफा आया। देश का पहला महादलित जीतन राम मांझी बिहार का मुख्यमंत्री बन गया। जाति की राजनीति के पैर जमाने की कोशिश बिहार से फिर शुरू हो गई है। इस बार ये काम लालू प्रसाद यादव ने नहीं। उन्हीं के पुराने साथी नीतीश कुमार ने किया है। लालू प्रसाद यादव इस बार नीतीश की सरकार को समर्थन देंगे। लेकिन, सवाल यही है कि जाति का राजनीति छोड़कर नीतीश ने विकास की राजनीति की तो बिहार आगे बढ़ता दिखा। अब वो फिर से त्यागी बनकर जाति की राजनीति पर लौट रहे हैं। देखिए इस त्याग की कीमत बिहार किस तरह चुकाता है या इसकी कीमत देश को भी चुकानी पड़ती है।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

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