Monday, September 12, 2011

राम धीरज (पहला हिस्सा)

उसने जीवन में ऐसा कुछ नहीं किया कि उसके ऊपर कुछ लिखा-पढ़ा जाए। आखिर उसके बारे में लिखना-पढ़ना चाहेगा भी कौन। किसी का आदर्श तो, क्या छोटा-मोटा उदाहरण भी बनने के काबिल नहीं बन पाया था वो। न तो अच्छा बेटा बन सका। न अच्छा भाई। और, सबसे महत्वपूर्ण कि न ही अच्छा पति। फिर पिता कैसे बन पाता। वैसे, जरूरी नहीं कि अच्छा पति न बन पाने वाले लोग पिता ही न बन पाएं। बनते हैं बहुत से अच्छा पति न बन पाए लोग भी खूब पिता बने हैं। लेकिन, शायद उसके जीवन में कुछ भी ऐसा दर्ज नहीं होना था। इसीलिए जब अच्छा क्या, कामचलाऊ पति बनने की कोशिश भी की तो, शायद दूसरी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया होगा। और, राम धीरज ऐसे ही निकल लिया, इस दुनिया से।
ऐसा नहीं है कि राम धीरज में महत्वाकांक्षा नहीं थी। दिमाग नहीं था या फिर कुछ करना नहीं चाहता था। वो, बहुत कुछ करना चाहता था। काफी कुछ किया भी। किया न होता तो, उसके नाम का पत्थर अभी तक कैसे लगा रह पाया होता। बिना कुछ हुए, मतलब बिना किसी राजनीतिक या अधिकारिक पद के मिले, गली के मुहाने पर उसके नाम का पत्थर अभी भी इलाहाबाद के गंगा से सटे पुराने मोहल्ले दारागंज की एक गली में लगा है। लेकिन, वही ना कि राम धीरज की किस्मत भी उसकी जितनी करनी थी, उसका भी साथ नहीं दे रही थी। इसीलिए राम धीरज के नाम का पत्थर गली के मुहाने पर चिपक तो, गया लेकिन, फूलवाली बुढ़िया के तखत के नीचे छिप गया है। क्योंकि, पत्थर गली की जिस शुरुआत पर चिपका था। वहीं पर मंदिर था कोने में। लिहाजा बिना बुढ़िया के जाने राम धीरज के नाम वाला पत्थर छिप गया, तख्त के नीचे। जाहिर है, फूलवाली बुढ़िया की कोई राम धीरज से न तो पहचान रही होगी और न ही कोई दुश्मनी। राम धीरज दरअसल किसी से दुश्मनी की हद तक वाला कोई काम करता ही नहीं था।
फिर भी उसके बड़े दुश्मन थे। दुश्मन ऐसे हो गए कि उसे वो, गली ही छोड़नी पड़ गई जिसके मुहाने पर बड़ी मेहनत-मशक्कत से वो, पत्थर लगवा पाया था। एक वो, पत्थर ही तो था उसके जीवन की एक मात्र कमाई जिसे वो, होता तो, शायद लोगों को बताता। लेकिन, उस पत्थर से दूर रहकर वो, क्या जी पाता। ज्यादा समय जी पाया भी नहीं।
पत्थर वाली गली। दारागंज मोहल्ले की एक संकरी गली। उसी गली में एक छोटे-छोटे कमरों वाले मकान में वो, रहने आया था। प्रतापगढ़ के एक गांव से। ये छोटे-छोटे कमरे वाले मकान इलाहाबाद के हर मोहल्ले में ऐसे ही होते हैं कि बस कोई प्रतापगढ़, जौनपुर, सुल्तानपुर, फैजाबाद से लेकर गोरखपुर और बिहार से लेकर कोलकाता तक से आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के नाम पर। और, किराए का कमरा लेकर रहे। अब इतने लोगों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीट तो कभी थी नहीं। और, हमेशा दूसरे शहरों से इलाहाबाद आने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्थानों या पत्राचार संस्थानों में दाखिला लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने का एक गर्वीला अहसास लिए कई साल बिता देते थे।
…. जारी है

5 comments:

  1. नामानुरूप बतंगड़ !

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  2. आपने उत्सुकता जगा दी। आशा है दूसरा और अंतिम हिस्सा जल्दी ही आएगा।

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  3. अच्छी शुरुआत है...

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  4. सच्ची घटनाओं की रोचकता है इसमें, प्रतीक्षा रहेगी।

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  5. मैनें दोनों भाग पढ़ लिए ,बहुत रोचक.

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