Friday, September 30, 2011

जल्दबाजी मोदी को भारी पड़ेगी?


नरेंद्र मोदी के उपवास के दौरान लालकृष्ण आडवाणी
 गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में अब तक जो, दिखता रहा है कि वो, हर फैसला बड़ा सोच-समझकर लेते हैं। इसी से ताकतवर भी हुए। लेकिन, अब लालकृष्ण आडवाणी का ये विरोध नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी मुसीबत बनता दिख रहा है। इतनी हड़बड़ी ठीक नहीं। दिल्ली फिर दूर हो जाएगी।

और, सबसे बड़ी बात ये है कि नरेंद्र मोदी को ये समझना होगा कि अगर उन्हें 6 करोड़ गुजरातियों से आगे बढ़कर 120 करोड़ से ज्यादा हिंदुस्तानियों का नेता बनना है तो, उस अंतर के लिहाज से व्यवहार करना होगा। अगर ये अंतर नरेंद्र मोदी की समझ में नहीं आया तो, बस गुजरात को परिवारों को घूमने की जगह या फिर ऑटो हब बनाकर ही खुश रहना होगा।

नरेंद्र मोदी को तो, वैसे भी अच्छे से पता है कि विद्रोही तेवर दिखाने वाले भाजपाई नेता कितने भी बड़े हों। उनका हश्र क्या होता है। कुछ को तो, उन्होंने ही निपटाया है। और, उन्हें ये तो, अच्छे से पता होगा कि निपटा इसीलिए पाए कि पार्टी उनके साथ थी। एक जमाने के दिग्गज कल्याण सिंह आज जबरन ये बयान देते घूम रहे हैं कि वो, बीजेपी में किसी कीमत पर नहीं लौटेंगे। वो, ये नहीं बता पाते कि कीमत देने के लिए उन्हें खोज कौन रहा है। या उनके पास कीमत देने गया कौन था। कल्याण उस वक्त देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री थे और नरेंद्र मोदी से ज्यादा बड़े हिंदू हृदय सम्राट थे। उमा भारती तो, मध्य प्रदेश तक में जाकर बीजेपी की सरकार बनवा आईं थीं। आखिरकार उन्हें पार्टी की गति से ही चलते हुए लौटना पड़ा।

और, ये नरेंद्र मोदी और बीजेपी के हित में होगा कि ऐसी नौबत न आए कि मोदी की तुलना कल्याण, उमा (जैसे वो बाहर गई थीं) के साथ हो। अभी मोदी को शांत रहने की जरूरत थी। मोदी ने जिस तरह से उपवास के दौरान सबको छोटा दिखाने की कोशिश की वो, किसी को कैसे पचेगा। जबकि, आडवाणी अब कितने दिन। ये समझकर मोदी को फैसला लेना चाहिए। आडवाणी के बाद बीजेपी की स्वाभाविक पसंद वो बन जाते। और, ऐसे समय में नरेंद्र मोदी की ये राजनीति नीतीश कुमार जैसे लोग और बीजेपी में कम जनाधार वाले आडवाणी के पीछे घूमने वाले नेताओं की राजनीति चमकाने में मददगार होगी। क्योंकि, चमत्कार हो जाए और अभी सरकार गिरे, जो होने वाला नहीं है, तो, भले आडवाणी पीएम इन वेटिंग स प्रधानमंत्री बन पाएं। 2014 तक तो, उनकी दावेदारी किसी सूरत में नहीं बचेगी। और, ये बात नरेंद्र मोदी और उनके सभी शुभचिंतकों को समझना होगा।

क्योंकि, ये महज संयोग नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच जंग काफी समय से चल रही है। अभी लोकसभा चुनाव को दो साल से ज्यादा बचे हैं। पिछली बार भी 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले गुजरात के चुनाव के समय ही ये घोषणा हो गई थी कि लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। और, करीब पांच साल बाद फिर वैसा ही दृष्य है। गुरु गुड़ रह गए चेला चीनी हो गया की देसी कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।

Wednesday, September 14, 2011

राम धीरज (तीसरा और आखिरी हिस्सा)

राम धीरज के गांव के हर घर से लोग इलाहाबाद में थे। और, राम धीरज भी चाहता था कि इलाहाबाद में तरक्की करने वाले लोगों के आसपास ही सही वो खड़ा हो सके। राम धीरज के गांव के ही मैनेजर साहब भी थे। बैंक में मैंनेजर। दारागंज में ही अच्छा घर था। गांव के सबसे व्यवस्थित लोगों में थे। राम धीरज की पट्टीदारी के बड़े भाई लगते थे। गांव में भले ही मैनेजर साहब और राम धीरज के घर में खाबदान (यानी दावत-निमंत्रण का संबंध) बीच-बीच में टूटता रहा हो। लेकिन, राम धीरज मैनेजर भैया के यहां से कभी टूट नहीं पाया। वजह भी साफ थी वही  दो मंजिला भैया का मकान पोर्टिको में खड़ी कार दिखाकर तो, वो अपनी हीरो पुक के जरिए फरफराती इज्जत को थोड़ा ठोस आधार भी दे पाता था।
लेकिन, गजब का था राम धीरज। अपनी परेशानी, चिंता दूर करने से ज्यादा उसका समय दूसरों को परेशान, चिंतित करने में बीतता था। अब राम धीरज के गांव-देहात से हर घर से बच्चे पढ़ने इलाहाबाद ही पहुंचते थे। और, राम धीरज के समय में इलाहाबाद पढ़ने आए बच्चों के लिए वो, बड़ी मुसीबत बनता था। गांव में मां-बाप बच्चे के फेल होने पर भी उसकी तारीफ करते रहते। लेकिन, राम धीरज से ये कैसे बर्दाश्त होता। राम धीरज अपना पैसा लगाकर गांव के हर इलाहाबाद में पढ़ने वाले बच्चे की मार्कशीट की डुप्लीकेट कॉपी निकलवा लेता था। और, जिसने भी बेवजह की हवा-पानी बनाई। उसके दरवाजे के सामने मार्कशीट की डुप्लीकेट चिपक जाती थी।
इलाहाबाद में रहने वाले मैनेजर साहब को छोड़कर किसी घर का कोई बच्चा इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच भी नहीं पाया था। सब संबद्ध कॉलेजों तक ही पहुंचते। और, उसमें भी ज्यादातर कॉलेजों से बिना पूरी डिग्री लिए ही निकलते। उन सबकी डुप्लीकेट मार्कशीट राम धीरज के पास जरूर होती। यही वजह थी कि उससे पूरा गांव चिढ़ता था। लेकिन, उसके ऊपर इस सबका कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैनेजर साहब के अलावा वो, सबका मजाक बना देता था। चुनावी राजनीति से बड़ा बनने की महत्वाकांक्षा कुछ इस कदर उस पर हावी थी कि वो, खुद को राजनीतिक गतिविधियों से दूर नहीं रख पाता था। राम धीरज एक राजनीतिक पार्टी का वॉर्ड अध्यक्ष बन गया था। और, जब इलाहाबाद से एक राष्ट्रीय नेता चुनाव लड़ने आए तो, राम धीरज की महत्वाकांक्षा हुई कि उसे भी प्रचार के लिए गाड़ी चाहिए।
जब किसी जतन से गाड़ी प्रचार के लिए नहीं मिली तो, उसने प्रचार गाड़ी ही अपने नाम पर इश्यू करा ली। और, फिर पूरा प्रचार दारागंज में ही होता रहा। कुछ समय दारागंज में संकरी गली में उसके किचन वाले कमरे के सामने प्रचार गाड़ी खड़ी रहती तो, कभी मैनेजर साहब के घर के सामने। और, ये सब करके राम धीरज की हवा-पानी कुछ तो, बन ही गई थी। तभी तो, दारागंज की दो सड़कों- उसके घर के सामने की गली और मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क- की बिजली-सफाई की व्यवस्था चकाचक रहने लगी। उसके किराए के कमरे और मैनेजर साहब के दोमंजिला मकान के सामने के खंभों पर नगर निगम से इश्यू कराए गए बड़े हैलोजन भी लग गए। यहां तक कि पूरे दारागंज में सफाई के हालात चाहे जितने खराब हों उसके कमरे के सामने की गली और मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क चमकती रहती थी।
राम धीरज की महत्वाकांक्षा बड़ा बनने की थी। और, बड़ा बनने के लिए यूपी-बिहार में नेतागीरी से बेहतर कोई रास्ता नहीं होता। इसीलिए जब विश्वविद्यालय में उसे प्रकाशन मंत्री शॉर्ट फॉर्म में प्र मं बनने में सफलता हाथ नहीं लगी। तो, राम धीरज ने सोचा कि जब मोहल्ले में एक अपने कमरे के सामने की गली और एक मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क की सफाई और बिजली का इंतजाम मैं करा लेता हूं तो, और कुछ न सही सभासद का चुनाव तो जीता ही जा सकता है। और, चुनाव न भी जीते तो, कम से कम मोहल्ले का एक प्रतिष्ठित नेता तो बन ही जाऊंगा। और, यही प्रतिष्ठित होना ही उसके लिए सबसे बड़ा लक्ष्य था क्योंकि, लाख तिकड़म के बावजूद उसे कोई प्रतिष्ठा नहीं देता था। और, इसी प्रतिष्ठा को पाने के लिए उसने सभासदी का चुनाव लड़ने की तैयारी कर ली। लेकिन, मुश्किल ये कि जिस राष्ट्रीय पार्टी से वो जुड़ा था। उस पार्टी की सभासद पहले से वहां थी। जातिगत समीकरण के लिहाज से उसका टिकट कटना संभव नहीं था। इसलिए टिकट मिल ही नहीं सकता था और न मिला। लेकिन, राम धीरज को तो, चुनाव लड़ना था। प्रतिष्ठा जो, हासिल करनी थी। इसलिए राम धीरज ने निर्दल चुनाव लड़ा। चुनाव तो, लड़ा। लेकिन, चुनाव हारा क्योंकि, जीत जाता तो, राम धीरज के जीवन में एक ऐसी बात हो जाती जो, उसे असमय इस दुनिया से जाने से रोकती।
राम धीरज चुनाव तो, हारा ही। इस दौरान नियमित खर्चे बढ़े और उन नियमित तौर पर बढ़े अनियमित खर्चों को नियमित करना तो, राम धीरज को आता ही नहीं था। खर्चे बढ़ते गए और वो, इधर-उधर की दिखा-बताकर लोगों से कर्ज लेता रहा। इसमें उसका मैनेजर साहब के घर के सामने की सड़क की सफाई और हैलोजन लगवाने का निवेश बड़ा काम आता रहा। हर किसी को मैनेजर साहब दोमंजिला मकान दिखाकर वो, बैंक गारंटी टाइप की देता रहा। लेकिन, खोखली बैंक गारंटी कब तक काम आती। आखिरकार, कर्ज देने वालों को जब बैंक गारंटी के बजाए अपनी रकम की चिंता बढ़ी तो, उन्होंने राम धीरज पर दबाव बढ़ाना शुरू किया।
अचानक राम धीरज गांव में ज्यादा रहने लगा। गांव वाले सोचने लगे कि क्या हुआ राम धीरज तो, गांव में रात रुकता ही नहीं। अचानक क्यों हफ्ते भर से यहीं पर पड़ा है। राम धीरज गांव में रुकता नहीं था। तो, उसकी वजह भी थी। वही कम सुंदर अपनी पत्नी से दूर रहने की मंशा। वैसे, वो अपनी सुंदर भाभी के पास घंटों बेवजह बात बनाते-बतियाते बैठा रहता। खैर, राम धीरज के गांव में इतने दिन रुकने का भंडाफोड़ एक दिन हो ही गया। जिन लोगों ने मैनेजर साहब की अनकही बैंक गारंटी के आधार पर राम धीरज को कर्ज दिया था। वो, मैनेजर साहब के दरवाजे पहुंच गए। दारागंज में रहते मैनेजर साहब को भी समय हो गया था। और, लोगों में प्रतिष्ठा भी थी। वही प्रतिष्ठा जिसका दशांश पाने के लिए राम धीरज आजीवन तरसता रहा। इस प्रतिष्ठा की वजह से राम धीरज को कर्ज देने वालों को मैनेजर साहब के दरवाजे से जाना पड़ा।
राम धीरज ने धीरे से कमरा भी छोड़ दिया था। लेकिन, वही पत्थर की गली वाला कमरा, जिस पत्थर पर राम धीरज का नाम लिखा था। वो, कमरा उसने छोड़ दिया। न छोड़ता तो, शायद उसी वक्त दुनिया छोड़नी पड़ती। लेकिन, कमरा तो छोड़ा। लोग कैसे छोड़ पाता। कमरे के मकान मालिक की यामाहा पर बैठकर तो, वो अपने गांव तक हो आया था। बस फिर क्या था राम धीरज को कर्ज देने वाले उसी मकानमालिक के सहारे गांव तक पहुंच गए। गांव में धड़धड़ाते दो बुलेट पर 4 लोग पहुंच गए। राम धीरज छिप गया। या यूं कह लें कि गांव में 4 लोगों का इतना तो, दावा बनता नहीं था कि वो, सर्च वारंट लेके राम धीरज को गांव में खोज पाते। वो, लौट आए लेकिन, ये कहके अगर राम धीरज इलाहाबाद में दिख गया तो, खैर नहीं।
खैर, जब खैर नहीं थी तो, राम धीरज भला क्यों इलाहाबाद में दिखता। बेचारे को अपनी एकमात्र उपलब्धि वो, पत्थर वाली गली छोड़कर जाना पड़ा। उस पत्थर पर जिस पर उसका ना खुदा था। बिना कुछ हुए। और, गली ही नहीं, मोहल्ला क्या इलाहाबाद शहर ही छोड़ना पड़ गया। वो, चुपचाप नोएडा भाग गया। नोएडा, यूपी का वो, शहर जो, यूपी का अकेला शहर बना। और, यूपी के भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी कहानियां भी यहीं से निकलती हैं। खैर, रीम धीरज की तिकड़मों से वाकिफ लोगों को लगा कि अब नोएडा में जाकर तो, वो कुछ ऐसा कर ही लेगा कि उसके जीवन में थोड़ी प्रतिष्ठा तो, जुड़ ही जाए। लेकिन, बेचारा राम धीरज। न प्रतिष्ठा जुड़नी थी न जुड़ी। अब नोएडा में न तो, सभासदी का चुनाव था। न विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म बनने का मौका। यहां तो, उसके लिए संकट आ गया था आजीविका चलाने का। उस पर गांव में उसकी पत्नी को भी कोई रखने को तैयार नहीं था। पत्नी को भी लेकर आना था।
तो, राजनीति के जरिए प्रतिष्ठा पाने की राम धीरज की कोशिश नोएडा आकर पूरी तरह धूमिल हो गई। और, राम धीरज को नोएडा के हजारों मजदूरों की तरह एक कपड़ा कंपनी में मजदूरी करनी पड़ी। लेकिन, राम धीरज को आदत थी। इसलिए यहां भी उसने स्टोर का काम पकड़ा और धीरे-धीरे स्टोर इंचार्ज हो गया। यानी, उसके लिहाज से फिर थोड़ा प्रतिष्ठा का काम उसे मिल गया था। लेकिन, अपने नाम लिखे पत्थर वाली गली से दूरी राम धीरज को इस कदर सालती रही कि उसे धीरे-धीरे बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया।
बीमारी कोई ऐसी नहीं थी जो, इस जमाने में दूर न होती। लेकिन, उसे जो सबसे गंभीर बीमारी लगी थी। वो, थी अपने नाम लिखे पत्थर वाली गली से दूरी। आखिर वही एक पत्थर तो, उसकी जिंदगी की उपलब्धि था। खैर, टीबी की बीमारी ने धीरे-धीरे राम धीरज की शक्ल कुछ ऐसी बना दी कि कम सुंदर दिखने वाली उसकी पत्नी अब उसके मुकाबले में आ गई। लेकिन, वो भी गजब की मिट्टी का बना था। जिस बड़े भाई ने उसकी पत्नी को गांव में रहने नहीं दिया। जो, उसे नियमित तौर पर कोसता था। उसे पैसे नहीं देता था और न ही जब तक उसके पिता रहे, उन्हें देने देता था। जैसे ही राम धीरज थोड़ा कमाने लगा उसी, बड़े भाई के बेटे को नोएडा ले आया।
भाई का बेटा भी जैसे-तैसे ही था पढ़ने में। जैसे-तैसे ही रहा। मैनेजर साहब, अरे वही दारागंज वाले, उनका बेटा भी नोएडा आ गया था। नोएडा में एक बड़ी कोठी किराए पर लेकर रहता था। राम धीरज उससे भी विश्वविद्यालय के दिनों से ही इस कदर प्रभावित था कि उसे अपनी हीरो पुक अकसर देकर चला जाता था। तो, जब राम धीरज को पता लगा कि मैनेजर साहब का बेटा नोएडा आ गया है तो, एक दिन वो, मिलने आया। लेकिन, प्रतिष्ठा का उसे खूब ख्याल था। इसलिए पता नहीं किसको पटाकर उसकी फोर्ड आइकॉन से ही आया। आखिर मैनेजर साहब के बेटे से जो, मिलना था। उधारी की फोर्ड आइकॉन का दबाव था इसलिए जल्दी में भागना पड़ा। लेकिन, ये सफल कोशिश की कि किसी तरह मैनेजर साहब का बेटा बाहर आकर देख ले कि राम धीरज फोर्ड आइकॉन से आया है।
उधारी की फोर्ड आइकॉन और ऐसी ही उधारी की प्रतिष्ठा पर राम धीरज पूरे जीवन चलता रहा। मन में इच्छा थी कि किसी तरह कुछ असल प्रतिष्ठा भी हाथ लग जाए। लेकिन, असल प्रतिष्ठा उसके लिए मृग मरीचिका ही बनी रही। धीरे-धीरे राम धीरज की तबियत ज्यादा खराब होने लगी। इतनी कि उसे कपड़ा कंपनी की नौकरी छोड़नी पड़ी। फिर उसके पास पैसे ही नहीं थे कि वो, अपनी टीबी की बीमारी का इलाज करा पाता। राम धीरज के अपने कोई बच्चे भी नहीं हुए कि वो, बीमारी से लड़ने का उत्साह बना पाता। आखिरकार, उसका चक्र पूरा होता गया और एक दिन नोएडा से वापस उसे प्रतापगढ़ के अपने उसी गांव लौटना पड़ा। जहां से उसने प्रतिष्ठा की चाह में सफर शुरू किया था।
जिस गांव को उसने छोड़ा ही इसीलिए था कि उसे प्रतिष्ठा चाहिए थी। गांव में रह रहे लोगों और गांव से निकलकर बाहर बसे लोगों से ज्यादा। सारी जिंदगी वो, गांव में रह रहे लोगों का और मौका मिलने पर तो, गांव के बाहर बसे लोगों का भी मजाक उड़ाता रहा। यहां तक कि उनको भी उसने नहीं बख्शा जिन्होंने जीवन में उससे कई गुना ज्यादा प्रतिष्ठा बनाई उनका भी मजाक बनाने से वो, नहीं चूकता था। मैनेजर साहब इसमें अपवाद थे। अब जब राम धीरज को भले ही टीबी की बीमारी की वजह से फिर से उस गांव में लौटना पड़ा। और, उसने देखा कि इन दो एक डेढ़ दशकों में तो, गांव के बच्चे भी काफी आगे निकल गए हैं तो, उसकी टीबी की बीमारी लाइलाज होती गई।
टीबी की बीमारी क्या लाइलाज होती गई। दरअसल, तो वही अपने नाम लिखे पत्थर से दूरी उसे बीमार करती गई। उस पर कुछ न कर पाने की कसक। प्रधानमंत्री के शॉर्ट फॉर्म की तो, छोड़िए कुछ नहीं कर पाया। और, उसी अपने प्रतापगढ़ के गांव में लौटना पड़ा। राम धीरज अब धीरज खो रहा था। टीबी की बीमारी ने उसकी शक्ल अपनी कम सुंदर पत्नी से कई गुना बदसूरत कर दी थी। राम धीरज न तो अच्छा बेटा बन सका। न अच्छा भाई। और, सबसे महत्वपूर्ण कि न ही अच्छा पति। फिर पिता कैसे बन पाता। वैसे, जरूरी नहीं कि अच्छा पति न बन पाने वाले लोग पिता ही न बन पाएं। बनते हैं बहुत से अच्छा पति न बन पाए लोग भी खूब पिता बने हैं। लेकिन, शायद उसके जीवन में कुछ भी ऐसा दर्ज नहीं होना था। इसीलिए जब अच्छा क्या, कामचलाऊ पति बनने की कोशिश भी की तो, शायद दूसरी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया होगा। और, राम धीरज ऐसे ही निकल लिया, इस दुनिया से।
समाप्त

Tuesday, September 13, 2011

राम धीरज (दूसरा हिस्सा)

राम धीरज, वो भी ऐसे ही लोगों में था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला नहीं मिला। दाखिला मिला, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध सीएमपी डिग्री कॉलेज में (चौधरी महादेव प्रसाद महाविद्यालय)। कमरा लिया दारागंज में। घर से कम ही पैसा मिलता था। इसीलिए वो, दारागंज की उस गली में छोटे-छोटे कमरे वाले मकान के भी किचेन में रहता था। लेकिन, बहुत महत्वाकांक्षा थी। बहुत कुछ बनना-करना चाहता था। इसीलिए जिस घर में किराए पर रहता था उसी के मालिक के बेटे को भी इतना कुछ बता-समझा दिया कि उसकी यामाहा 100 उसकी सवारी बन गई। बाद में यही यामाहा 100 की सवारी उसकी मुसीबत भी बनी। जिसकी वजह से उसे अपने नाम खुदी हुई पत्थर वाली गली छोड़कर जाना पड़ा।
महत्वाकांक्षा कुछ इस कदर थी कि उसने सोचा कि उसकी किस्मत में भी लोकतंत्र में कोई न कोई चुनाव तो जीतना लिखा ही होगा। इसकी शुरुआत हुई सीएमपी डिग्री कॉलेज में नामांकन करने से। खैर, चुनाव जीते न जीते। उसे तो नेता बन जाने की धुन थी। और, ये बात तो सही ही है कि सारे नेता चुनाव जीतते ही थोड़े हैं। बस इसी धुन में खैर। सीएमपी से बीए की डिग्री लेने के दौरान वो, इतना तेज हो चुका था कि किसी तरह से लंद-फंद जुगाड़ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला करा ही लिया। अब दाखिला कोई पढ़ाई पूरी करने के लिए तो, कराया नहीं था। दाखिला कराया था कि किसी तरह नेता बनने का मौका मिल जाए। और, नेता बनने के लिए चुनाव लड़ना तो जरूरी ही था।
लेकिन, चुनाव लड़ने के लिए उसे ऐसा पद चाहिए था जो, जीता जाए न जाए। देश के सर्वोच्च पद से मेल जरूर खाता हो। देश के सर्वोच्च पद हैं प्रेसिडेंट या फिर प्राइम मिनिस्टर। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रेसिडेंट का तो, चुनाव होता था। लेकिन, प्राइम मिनिस्टर या प्रधानमंत्री का कोई पद तो था ही नहीं। उसने इसका भी तोड़ निकाल लिया। ऐसे लोगों में दिमाग भी गजब की दिशा में 100 मीटर की रेस दौड़ता रहता है। इसी 100 मीटर की रेस में से उसे विचार सूझा कि प्राइम मिनिस्टर या प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म प्र मं या पीएम होता है। बस प्रकाशन मंत्री का चुनाव लड़ने का उत्तम विचार अमल में लाया गया। अंग्रेजी में भी जोड़ा ठीक बैठ रहा था- पब्लिकेशन मिनिस्टर यानी शॉर्ट फॉर्म में पीएम। बस फिर क्या था- चुनाव तक राम धीरज पूरे शहर की दीवारों पर पीएम बन गया।
जेब में पैसे भी नहीं और उसके ऊपर कोई चुनाव के लिए पैसे लगाने वाला भी नहीं। लेकिन, दिमाग तेज था। इसीलिए इसका भी तोड़ निकल आया। 100 रुपए का गेरुआ रंग, ब्रश। घोल बनाया और हीरो पुक (पता नहीं पुक या पुच) पर निकल पड़े राम धीरज शहर को ये बताने कि वो, पीएम बनने की तैयारी में हैं। खैर, असल में शहर को नहीं धीरज को तो, गांव के लोगों में अपनी इज्जत बढ़ानी थी। इसलिए प्रतापगढ़ से इलाहाबाद को आने वाले रास्ते के हर पड़ाव पर खोज-खोजकर राम धीरज गेरुए रंग से खुद को पीएम बनाते रहे। ये सिलसिला रात को चलता था। सुबह तो, नेताजी हीरो पुक पर सफेद कुर्ता और पैंट पहने गमछा लटकाए घूमते थे। उसके गांव से हर किसी का घर इलाहाबाद में भी था। वजह भी साफ थी- इलाहाबाद तो, पढ़ाई से लेकर हर जरूरत के लिए बड़ा केंद्र था। और, कई गांव के लोग इलाहाबाद में नौकरी भी करते थे। उन सबके इलाहाबाद में आने का रास्ता फाफामऊ, तेलियरगंज होकर ही आता था। बस फाफमऊ, तेलियरगंज की दीवारों, होर्डिंग पर बड़े जतन से राम धीरज खुद पीएम बन गए। उसकी लाल रंग की हीरो पुक पर भी सफेद रंग से लिखा जा चुका था- राम धीरज, प्र मं। कोई नजदीकी पूछता- चुनाव लड़ रहे हो। कम से कम पद का ना तो पूरा प्रकाशन मंत्री लिखो। लेकिन, न चुनाव प्रकाशन मंत्री का जीतने की संभावना भी नहीं थी और राम धीरज की महत्वाकांक्षा भी नहीं। इसलिए वो, हमेशा प्रधानमंत्री का शॉर्ट फॉर्म ही रहा।

दरअसल वो ज्यादातर का शॉर्ट फॉर्म ही रहा। हीरो पुक भी राम धीरज की खुद की खरीदी नहीं थी। शादी गांव-देहात में जैसे होती है। वैसे ही समय से पहले हो गई थी। यानी, पढ़ाई चलते-चलते ही। बीवी, राम धीरज के मुताबिक, सुंदर नहीं थी। वैसे, राम धीरज भी कोई मायानगरी का हीरो टाइप नहीं दिखता था। लेकिन, गांव से इलाहाबाद आने की सफलता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध सीएमपी डिग्री कॉलेज में बीएम में दाखिला मिलने की सफलता। राम धीरज को इस सबसे और इलाहाबाद आने पर सुंदर लड़कियों को देखते रहने भर से अपनी बीवी की सुंदरता घटती और अपनी हीरोगीरी बढ़ती दिखने लगी। और, इसमें उसकी बीवी बिना दोषी होते हुए भी सजा भुगतती रही। भारतीय परिवारों की तरह बीवी रहती उसके घर में ही थी। लेकिन, वो इलाहाबाद के दारागंज मोहल्ले में रहने लगा। जबकि, बीवी उसके मां-बाप और भाई-भाभी की सेवा में लगी रही। राम धीरज को एक और कष्ट था कि उसकी भाभी सुंदर है। इसीलिए जब वो इलाहाबाद से प्रतापगढ़ अपने गांव जाता भी था तो, अपनी बीवी से बेरुखी और भाभी से ही संवाद करता था।
लेकिन, इलाहाबाद पहुंचे राम धीरज को साइकिल से हीरो पुक – वही जिस पर बाद में राम धीरज त्रिपाठी, प्र मं लिखाकर घूमता था- तक पहुंचाया भी उसी बीवी ने। राम धीरज ने अपने ससुर को बीवी से प्रेम करने के भरोसे के आधार पर उससे मोटरसाइकिल की मांग कर दी। खैर, बेचारा मोटरसाइकिल तो, नहीं दहेज के तौर पर शादी के कई साल बाद हीरो पुक देने से नहीं बच पाया। क्योंकि, उम्मीद थी कि कम से कम इसी हीरो पुक के बहाने तो राम धीरज अपनी पत्नी के करीब आएगा। हीरो पुक आ तो, गई लेकिन, राम धीरज को न पत्नी के पास आना था न वो, आया। वो. हीरो पुक सीएमपी से इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंचे राम धीरज के लिए राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में मददगार हो गई।
जारी है ...

Monday, September 12, 2011

राम धीरज (पहला हिस्सा)

उसने जीवन में ऐसा कुछ नहीं किया कि उसके ऊपर कुछ लिखा-पढ़ा जाए। आखिर उसके बारे में लिखना-पढ़ना चाहेगा भी कौन। किसी का आदर्श तो, क्या छोटा-मोटा उदाहरण भी बनने के काबिल नहीं बन पाया था वो। न तो अच्छा बेटा बन सका। न अच्छा भाई। और, सबसे महत्वपूर्ण कि न ही अच्छा पति। फिर पिता कैसे बन पाता। वैसे, जरूरी नहीं कि अच्छा पति न बन पाने वाले लोग पिता ही न बन पाएं। बनते हैं बहुत से अच्छा पति न बन पाए लोग भी खूब पिता बने हैं। लेकिन, शायद उसके जीवन में कुछ भी ऐसा दर्ज नहीं होना था। इसीलिए जब अच्छा क्या, कामचलाऊ पति बनने की कोशिश भी की तो, शायद दूसरी परिस्थितियों ने साथ नहीं दिया होगा। और, राम धीरज ऐसे ही निकल लिया, इस दुनिया से।
ऐसा नहीं है कि राम धीरज में महत्वाकांक्षा नहीं थी। दिमाग नहीं था या फिर कुछ करना नहीं चाहता था। वो, बहुत कुछ करना चाहता था। काफी कुछ किया भी। किया न होता तो, उसके नाम का पत्थर अभी तक कैसे लगा रह पाया होता। बिना कुछ हुए, मतलब बिना किसी राजनीतिक या अधिकारिक पद के मिले, गली के मुहाने पर उसके नाम का पत्थर अभी भी इलाहाबाद के गंगा से सटे पुराने मोहल्ले दारागंज की एक गली में लगा है। लेकिन, वही ना कि राम धीरज की किस्मत भी उसकी जितनी करनी थी, उसका भी साथ नहीं दे रही थी। इसीलिए राम धीरज के नाम का पत्थर गली के मुहाने पर चिपक तो, गया लेकिन, फूलवाली बुढ़िया के तखत के नीचे छिप गया है। क्योंकि, पत्थर गली की जिस शुरुआत पर चिपका था। वहीं पर मंदिर था कोने में। लिहाजा बिना बुढ़िया के जाने राम धीरज के नाम वाला पत्थर छिप गया, तख्त के नीचे। जाहिर है, फूलवाली बुढ़िया की कोई राम धीरज से न तो पहचान रही होगी और न ही कोई दुश्मनी। राम धीरज दरअसल किसी से दुश्मनी की हद तक वाला कोई काम करता ही नहीं था।
फिर भी उसके बड़े दुश्मन थे। दुश्मन ऐसे हो गए कि उसे वो, गली ही छोड़नी पड़ गई जिसके मुहाने पर बड़ी मेहनत-मशक्कत से वो, पत्थर लगवा पाया था। एक वो, पत्थर ही तो था उसके जीवन की एक मात्र कमाई जिसे वो, होता तो, शायद लोगों को बताता। लेकिन, उस पत्थर से दूर रहकर वो, क्या जी पाता। ज्यादा समय जी पाया भी नहीं।
पत्थर वाली गली। दारागंज मोहल्ले की एक संकरी गली। उसी गली में एक छोटे-छोटे कमरों वाले मकान में वो, रहने आया था। प्रतापगढ़ के एक गांव से। ये छोटे-छोटे कमरे वाले मकान इलाहाबाद के हर मोहल्ले में ऐसे ही होते हैं कि बस कोई प्रतापगढ़, जौनपुर, सुल्तानपुर, फैजाबाद से लेकर गोरखपुर और बिहार से लेकर कोलकाता तक से आए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के नाम पर। और, किराए का कमरा लेकर रहे। अब इतने लोगों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीट तो कभी थी नहीं। और, हमेशा दूसरे शहरों से इलाहाबाद आने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्थानों या पत्राचार संस्थानों में दाखिला लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने का एक गर्वीला अहसास लिए कई साल बिता देते थे।
…. जारी है

Saturday, September 10, 2011

और, किसी में दम भी तो नहीं?

सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के दौरान आडवाणी के साथ अटल, गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह
भ्रष्टाचार के खिलाफ लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को पीएम बनने का आखिरी दांव मान रहे हैं। काफी हद तक सही भी है। लेकिन, बड़ी सच्चाई ये है कि बीजेपी में आडवाणी के अलावा कोई ऐसा राष्ट्रीय नेता भी तो नहीं है जो, पूरे देश में एक समान दमदारी से रथयात्रा कर सकता हो। इस बार की रथयात्रा की भी असली परीक्षा उत्तर प्रदेश में ही होगी। वैसे, अच्छी खबर ये है कि उमा भारती लौट आईँ हैं और अपने पिता समान आडवाणी की रथयात्रा को सफल बनाने के साथ अपनी राजनीतिक जमीन सुधारने की भी बड़ी चुनौती उनके सामने होगी।

लेकिन, अब कई मुश्किले हैं। प्रमोद महाजन नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी नहीं जैसे ही हैं। गोविंदाचार्य होते हुए भी नहीं हैं। और, कल्याण सिंह हैं भी तो, उल्टे हैं। कौन चलेगा इस बार आडवाणी के साथ। राज्यों में मंच पर कौन से नेता होंगे जो, दहाड़ेंगे। आडवाणी के अलावा किसकी शक्ल देखकर बीजेपी कार्यकर्ता या आम जनता भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पूरे मन से जुटेगी। कई सवाल हैं। देखिए, इनके जवाब रथयात्रा के बाद कैसे आते हैं।

Wednesday, September 07, 2011

भारत में ये रुटीन है!


एक और धमाका। जगह वही दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर जहां 25 मई को कोई नहीं मरा था। अब कितने मरे, किस तरह से धमाका हुआ। सरकार की आपात बैठक। इस संगठन की चिट्ठी। अगले धमाके का इंतजार। बस ना कि और कुछ।

हां, जब धमाके न हों तो, बहस ये कर लें कि आतंकवादियों को भी फांसी देना क्या ठीक है। अब पूरा हो गया।

Tuesday, September 06, 2011

बेईमानी से कुछ और लोग डरे होंगे

ईमानदार लोगों को अब भारत में थोड़ा बल तो मिल रहा होगा। अन्ना का भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार आंदोलन और उसके सामने दंडवत सरकार। कल रेड्डी जेल में, आज अमर सिंह। कलमाड़ी से लेकर राजा तक पहले से हैं। बिहार में भ्रष्ट आईएएस का घर स्कूल बनेगा। मैं बेईमान बनने से पहले से डरता था। अब बेईमान भी डरने लगे होंगे।

जब अमर सिंह के जेल जाने की खबर मैंने सुनी तो, सचमुच मैं बहुत खुश हुआ। अमर सिंह से मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं है न ही दोस्ती। इत्तफाक से पत्रकारिता में होने के बाद भी कभी अमर सिंह नामक प्राणी से मिलने का अवसर नहीं मिला। लेकिन, पत्रकारिता में जो, जानने वाले कभी अमर सिंह के संपर्क में आए वो, अमर लीला बताते रहते हैं। किस तरह अमर सिंह हर किसी को दलाली के नाना प्रकार के तंत्र से वश में करने की क्षमता रखता-दिखाता रहता था ये कोई छिपी बात तो है नहीं। किसी ने कुछ बोला तो, उसके खिलाफ रुपए से लेकर रूपसियों तक का सचित्र विवरण अमर सिंह के लिए ब्रह्मास्त्र जैसा काम करता रहा। यही वजह रही कि मुलायम सिंह यादव का साथ छूटने के बाद भी यही लगता था कि ये अमर सर्वाइव कर जाएगा। अमर सिंह ने दलाली की सारी सीमाएं लांघ ली थीं। अमर सिंह की खूबी ही यही थी कि मुश्किल में फंसे बड़े आदमी को गलत तरीके से मदद करके उस मदद के अहसान के तले दबा दो। फिर चाहे वो, मुलायम सिंह यादव रहे हों, अमिताभ बच्चन या फिर अनिल अंबानी। वैसे, सच्चाई देखी जाए तो, जिसके साथ अमर सिंह जुड़े उसे बर्बाद ही किया। अमर प्रभाव में मुलायम की समाजवादी पार्टी सिर्फ अभिनेता और अभिनेत्रियों की पार्टी रह गई। हां, अमर प्रभाव से धन की कमी मुलायम को कभी नहीं हुई।

अमिताभ बच्चन का चाहे जितना जलवा रहा हो। अमर प्रभाव में उसका तेज भी खत्म नहीं तो, कम तो हुआ ही। अमिताभ चूंकि पुराने जमाने में कांग्रेसी हथकंडों से वाकिफ रहे हैं। इसलिए अमर प्रभाव से थोड़ा बच गए। और, अपनी जमीन बनाए-बचाए रहने में कामयाब रहे। लेकिन, छोटे अंबानी को कैसे अमर प्रभाव ने बर्बाद किया वो, तो सबको पता है। उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में दादरी से गुजरते हर व्यक्ति को समझ में ये जरूर आता होगा। अमर सिंह जैसे लोग जिस तरह से नीचे से ऊपर पहुंच गए वो, सीध रास्ते से तो संभव ही नहीं था। इसीलिए एक बार मैंने भी लिखा कि आखिर अमर सिंह, मायावती ये न करें तो, क्या करें लेकिन, इन लोगों  ने तो, ऐसा कर दिया कि सब पीछे छूट गया। और, अब पीछे छूटे लोग तो, ये भी करके आगे की कतार में पहुंचने लायक नहीं रहे।

कुछ ऐसा ही कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं ने किया। दक्षिण में पहली भगवा सरकार के भ्रम में बीजेपी भी इस कदर उनके जाल में फंसती गई कि अंदाजा ही नहीं लगा कि कितनी तेजी से कांग्रेस बनने की कोशिश वो कर रहे हैं। हालांकि, बेल्लारी के बीजेपी वाले रेड्डी बंधुओं की कामयाबी के पीछे सारी ताकत कांग्रेस वाले दिवंगत वाईएसआर रेड्डी की ही है। यहां तक कि बेल्लारी के रेड्डी का धन आंध्र के रेड्डी के सहारे ही तेजी से बढ़ा। कांग्रेस वाले रेड्डी ने गुलामी की परंपरा ऐसे लोगों में भर दी थी कि वहां के लोग अभिमान के साथ रेड्डी के लिए जीवन देने को तैयार थे। बेटे जगनमोहन भी उसी फॉर्मूले को आजमा रहे हैं। और, बीजेपी वाले रेड्डी बंधुओं ने अनाप-शनाप पैसे की ताकत पर ऐसे सब कुछ ढेर कर दिया था कि हवाला डायरी में नाम भर आने से इस्तीफा देने वाले लालकृष्ण आडवाणी और बड़ी सी बिंदी लगाए हिंदुस्तानी महिला की ब्रांड सुषमा स्वराज भी बस इन्हें आशीर्वाद भर देने के ही लायक बचे रह गए।


लेकिन, एक बात जो, अभी होनी है कि अमर सिंह किसके लिए ये पैसे जुटाकर बीजेपी के सांसद खरीद रहे थे। मुलायम सिंह यादव को तो, उससे प्रधानमंत्री बनाया नहीं जा सकता था। जाहिर है सरकार कांग्रेस की ही थी और विश्वासमत भी उसी सरकार को जीतना था। फिर पैसा लेते-देते तो, समाजवादी के सांसद रेवती रमण सिंह ही दिखे थे। वो, जेल क्यों नहीं गए। कोई कांग्रेसी जेल जाने की लिस्ट में क्यों नहीं है। बीजेपी के सांसद रिश्वत लेकर घर तो गए नहीं। तो, उनके अभियान को भ्रष्टाचार मिटाने में सहयोग मानने के बजाए उन्हें भी दोषी क्यों माना गया। हो, सकता है कि आगे अदालत इस बात पर ध्यान दे। लेकिन, फिलहाल तो, मैं और मेरे जैसे लोग खुश इसीलिए होंगे कि बेईमान होने से अब ईमानदारों को ही बेईमानों को भी डर लगेगा।

Saturday, September 03, 2011

मायावती के दलित उत्थान की एक बानगी

मायावती की सरकार में दलित उत्थान हो रहा है। सचमुच काफी हद तक हुआ भी है। मायावती मनुवाद को गाली देतीं हैं। मायावती ने शादी नहीं की है। परिवारवाद का आरोप कम ही लगेगा। लेकिन, मायावती के खासमखास स्वामी प्रसाद मौर्य देखिए क्या मिसाल पेश कर रहे हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य प्रतापगढ़ जिले से हैं। अब बेटे  को ऊंचाहार विधानसभा से चुनाव लड़ाना चाह रहे हैं। भतीजे को पहले ही प्रतापगढ़ जिला पंचायत का अध्यक्ष बना चुके हैं। हमें इस सबसे कोई एतराज नहीं है। लेकिन, देखिए लोकतंत्र में कितने ठसके से ऊंचाहार विधानसभा के लोगों से अपील कर रहे हैं। पूरी होर्डिंग पढ़िए सब साफ हो जाएगा। ये साहस तो सोनिया गांधी भी बेटे राहुल के लिए नहीं कर पाएंगी।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...