Thursday, December 23, 2010

मीडिया नहीं मीडिएटर से महंगाई बढ़ती है सरकार !

महंगाई बढ़ी नही कि सबसे पहली वजह साफ-साफ ये मीडिया से लेकर सरकार तक बताने लगती है कि सप्लाई-डिमांड का मिसमैच यानी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ये दाम बढ़े हैं। फिर कोई एक मीडिया चिल्लाना शुरू करता है कि ये मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ज्यादा जमाखोरी की वजह से हुआ है। इसके बाद सरकार हरकत में आती है और कुछ जमाखोरों को पकड़ा जाता है और कुछेक दिनों-हफ्तों में महंगी बिकने वाली, प्याज-टमाटर सस्ता हो जाता है। लेकिन, बड़ा सवाल यही है कि क्या सिर्फ मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से ही हर बार महंगाई बढ़ती है। क्योंकि, पिछले करीब डेढ़ साल से या यूं कह लें कि एक चक्र पूरा करके कुछेक महीने के लिए महंगाई दर घटने के अलावा करीब दो सालों से लगातार जनता महंगाई की मार झेल रही है। ये महंगाई दर तब भी बढ़ती रही जब देश विदेशी मंदी की मार से जूझ रहा था और लोगों की जेब में पैसे कम आ रहे थे।



अब भला ये पूरे दो साल तक मांग-आपूर्ति का संतुलन बिगड़ने से कैसे हो सकता है। महंगाई दर यानी खाने-पीने के सामान, दूसरे जरूरी उपयोग के सामान, पेट्रोल-डीजल की वजह से महंगे-सस्ते होने वाले सामान या फिर ऐसे ढेर सारे सामान जिनके आधार पर तय होता है कि महंगाई दर कम है या ज्यादा। महंगाई दर कम होने का मतलब बिल्कुल भी ये नहीं होता कि महंगाई घट गई है। दरअसल महंगाई दर घटने का मतलब ये हुआ कि महंगाई के बढ़ने की रफ्तार थोड़ी कम हुई है। गुरुवार को आए ताजा आंकड़े 11 दिसंबर को खत्म हफ्ते के हैं और महंगाई के बढ़ने की रफ्तार इस हफ्ते में भी बढ़ती दिख रही है। खाने-पीने के सामान करीब साढ़े बारह परसेंट महंगे हुए हैं। फ्यूल प्राइस इंडेक्स भी चढ़ा दिखा रहा है करीब ग्यारह परसेंट तक यानी इस इंडेक्स में शामिल सामान भी महंगा हुआ है। तो, क्या ये भी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने से हो रहा है।



दरअसल ऐसा बिल्कुल नहीं है। सच्चाई ये है कि सरकार कीमतों पर काबू का कोई ऐसा सिस्टम तैयार नहीं कर पा रही है जिससे जरूरी सामान लोगों को कम कीमत पर मिल सकें। वो, भी तब जब ज्यादातर जरूरी सामान चाहें वो, खाने-पीने के सामान गेहूं-दाल-चावल हों या रोज इस्तेमाल होने वाली सब्जी- इन्हें उगाने वाले किसान की माली हालत कितनी बदली है इसका अंदाजा हर किसी को है। अब फिर से प्याज ने लोगों को रुलाना शुरू किया और लाल टमाटर लोगों का खून जलाने लगा तो, पहले तो, सरकार ने जमाखोरों पर कार्रवाई और बेहतर सप्लाई के लिए पाकिस्तानी प्याज लाने की बात कहकर कीमतें काबू में आने का भरोसा दिलाया। लेकिन, फिर भी बात बिगड़ने लगी तो, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गुस्से में मीडिया के ऊपर ये ठीकरा फोड़ दिया कि सारी महंगाई मीडिया की वजह से ही है।



शीला दीक्षित के ऊपर तो, सिर्फ एक छोटे से राज्य में लोगों को जरूरी सामान कम कीमत पर उपलब्ध कराने का जिम्मा है लेकिन, अपने केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार साहब का क्या करिएगा जिनके ऊपर पूरे देश को सस्ते में जरूरी खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने से लेकर किसानों के हितों की चिंता का जिम्मा है उनकी बात तो, शायद ही आप लोग भूले होंगे। नहीं जनता तो, भूल ही जाती है इसीलिए वो, लगातार ऐसे बयान देते रहते हैं कि आप उनकी असलियत पहचानने में भूल न करें। क्योंकि, ये तो वो भी जानते हैं जनता की याददाश्त कमजोर होती है। दरअसल ये कृषि मंत्री ही हैं जो, हैं तो, जनता के सेवक लेकिन, अपने बयानों से कंपनियों, मुनाफाखोरों की सेवा करते दिखते हैं। इनके बयानों की लंबी लिस्ट है जो, साफ दिखाती हैं कि महंगाई कम क्यों नहीं होती।



ज्यादा दिन नहीं बीते। जब कृषि मंत्री पवार साहब ने बयान दिया कि मैं कोई ज्योतिषी थोड़े ही हूं जो, बता सकूं कि महंगाई कब घटेगी। लेकिन, समय-समय पर वो, ये जरूर बताते रहे कि अब चीनी महंगी होने वाली है, अब दूध महंगा होने वाला है। और, बिना ज्योतिषी हुए कमाल का ज्ञान है पवार साहब को। सब उन्हीं की आशंकाओं या उम्मीदों कह लीजिए, के मुताबिक, महंगा होता रहा। जुलाई के आसपास बारिश का बहाना भी था। तो, प्रधानमंत्री ने अपनी आर्थिक सलाहकार मंडली के साथ खुद ही मोर्चा संभाल लिया। प्रधानमंत्री जी से लेकर उनके आर्थिक सलाहकार सी रंगराजन, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और सारी सरकार ने जनता को भुलावा देना शुरू कर दिया कि दिसंबर तक सब ठीक हो जाएगा। उसकी वजह भी साफ थी सरकार सितंबर से नया होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) लागू करने जा रही थी। इसी आधार पर महंगाई का बढ़ना तय होता है। अब नए WPI का आधार वर्ष 2004-05 को बनाया गया था तो, जाहिर 1993-94 के आधार वर्ष वाले पुराने महंगाई मापने के पैमाने से ये तो, कम ही महंगाई बढ़ना बताएगा। 14 सितंबर को नए WPI के आधार पर आई अगस्त महीने की महंगाई दर करीब दो परसेंट घटकर साढ़े आठ प्रतिशत पर आ गई।



बस प्रधानमंत्री और उनकी आर्थिक सलाहकार मंडली ने दावा करना शुरू कर दिया कि अच्छे मॉनसून की वजह से फसलें अच्छी होंगी और देश में अनाज और दूसरी जरूरी चीजों की अधिकता हो जाएगी तो, दिसंबर तक महंगाई अपने आप कम हो जाएगी। अब मनमोहन जी तो सचमुच बहुत सीधे आदमी हैं। वो, बहुत कठिन समीकरणों को न राजनीति में समझने की कोशिश करते हैं न महंगाई के मामले में। इसीलिए दूसरा कार्यकाल आराम से पूरा करते दिख रहे हैं। लेकिन, चूंकि वो अर्थशास्त्री हैं तो, आंकड़े जरूर समझते हैं।





कुछ आंकड़े मेरे पास हैं वो, मैं पेश कर रहा हूं खुद ही अंदाजा लग जाएगा कि ये महंगाई किसी मांग-आपूर्ति के असंतुलन का नतीजा है क्या ?



2006 के बाद से लगातार हमारा अनाज का उत्पादन बढ़ा है। पिछले साल के कुछ सूखे की वजह से इस साल की फसल पर थोड़ा असर जरूर पड़ा है फिर भी वो, मांग से काफी ज्यादा है।

2007-08 में भारत का गेहूं का उत्पादन रिकॉर्ड 7 करोड़ 80 लाख टन हुआ था। जबकि, उम्मीद 7 करोड़ 68 लाख टन की ही थी।

2009-10 में सिर्फ गेहूं ही नहीं सभी अनाजों की बात करें यानी गेहूं और दालों की तो, अनाज का कुल उत्पादन 21 करोड़ 80 लाख टन तक होने की उम्मीद है। ये पिछले साल से करीब 1 करोड़ 60 लाख टन कम है लेकिन, फिर भी कुल पैदावार इतनी ज्यादा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में लाखों टन गेहूं सड़ चुका है।





2009-10 में गेहूं का उत्पादन पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 8 करोड़ 7 लाख टन होने की उम्मीद है। जबकि, दालों का उत्पादन भी रिकॉर्ड 1 करोड़ 46 लाख टन।



चावल भी इस साल करीब 9 करोड़ टन हुआ। और तिलहन उत्पादन करीब ढाई करोड़ टन का है। गन्ना 27 करोड़ 78 लाख टन का सरकारी अनुमान है।



महंगाई में अब बचती है सब्जी तो, उसका कोई ऐसा बुआई चक्र नहीं होता कि जुलाई-अगस्त की बारिश से सब सुधर जाएगा या सब बिगड़ जाएगा। और, अब तो, दिसंबर भी बीतने वाला है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री जी और उनकी आर्थिक मंडली अब मार्च तक महंगाई दर के साढ़े पांच से छे परसेंट के बीच आ जाने का ख्वाब जनता को दिखा रही है। लेकिन, लगे हाथ कभी रिजर्व बैंक का कोई डिप्टी गवर्नर तो, कभी खुद सरकार का कोई आर्थिक सलाहकार ये बयान भी देता रहता है कि महंगे कच्चे तेल से महंगाई का दबाव बना हुआ है।



जाहिर है सरकार तब तक सोती रहती है जब तक सामान महंगे नहीं हो जाते। और, जनता के साथ मीडिया भी त्राहि-त्राहि नहीं चिल्लाने लगती। मीडिया के लाख चिल्लाने के बाद भी कृषि मंत्री पवार साहब को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि, वो तो उस महाराष्ट्र के विदर्भ से आते हैं जहां किसान फसल बर्बाद होने के बाद आत्महत्या कर लेते हैं फिर भी पवार साहब का राजनीतिक सिक्का सबसे ऊंचे भाव पर महाराष्ट्र में चलता है। और, केंद्रीय सरकार भी मांग-आपूर्ति संतुलन बिगड़ने, बारिश कम-ज्यादा होने, पैदावार घटने-बढ़ने जैसे बहानों से जनता को फुसलाती है और मीडिएटर यानी मुनाफाखोरों को कमाने का मौका दिए रहती है। बहुत ज्यादा हल्ला मचा तो, कुछ मीडिया पर ठीकरा फोड़कर और कुछ जमाखोरों पर कार्रवाई के विजुअल-तस्वीरें मीडिया को उपलब्ध कराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है। क्योंकि, 3 दिन में प्याज 20 से 80 रुपए किलो और फिर 80 से 40 रुपए किलो आ सकता है तो, एक दो दिन में सामान्य भाव पर भी आ जाएगा। शायद ऐसे ही टमाटर भी एक दो दिन में रसोई में लाने के भाव पर आ जाएगा। इसीलिए शायद ये सवाल इस देश में कभी अहम नहीं रहा कि आखिर पिछले 4 साल में जरूरी खाने-पीने का सामानों का उत्पादन कई गुना बढ़ने के बाद भी कीमतें 300-400 प्रतिशत तक क्यों बढ़ गई हैं। खेती करने वाले किसान को मिलने वाली रकम अभी भी वही है। जाहिर है 200 प्रतिशत भाव सिर्फ मुनाफाखोर बढ़ा रहे हैं। ये छोटी सी बात सरकार समझकर उसका कोई नियमित फॉर्मूला क्यों नहीं लाती। वरना मुनाफाखोर महंगाई के जरिए ऐसे ही अपना खेल करके लोगों की गाढ़ी कमाई खाते रहेंगे और सरकार मीडिया को दोष देकर या फिर कुछ छापे और दूसरी कार्रवाई करके खुद को बचाती रहेगी।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)

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