Monday, August 24, 2009

नई बीजेपी के साथ संघ भी नया चाहिए


ज्यादा समय नहीं हुआ। सिर्फ एक दशक पहले की ही बात है। 1999 में मोहनराव भागवत से मेरी मुलाकात इलाहाबाद के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय पर हुई थी। भागवतजी तब RSS के सह सरकार्यवाह थे और संघ के अनुषांगिक संगठनों में विद्यार्थी परिषद से संवाद का जिम्मा उन्हीं के पास था। आधे घंटे की बातचीत में संवाद के जरिए निजी रिश्ते बना लेने की उनकी क्षमता से हम सारे लोग ही प्रभाव में आ गए थे। उनका जोर सिर्फ एक ही बात पर था कि समय के साथ बदलाव जरूरी है और नौजवान कैसे सोचता-समझता है उसके साथ तालमेल बिठाकर ही आगे बढ़ा जा सकता है इसलिए जरूरी है कि विद्यार्थी परिषद की इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उपस्थिति मजबूत रहे। करीब डेढ़ दशक बाद 1998 के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में परिषद की ताकत दिखी थी।


तब तक बीजेपी सत्ता में आ चुकी थी। और, देश के सर्वोच्च पद पर एक स्वयंसेवक के पहुंच जाने के दंभ की वजह से एक धारणा सी बनने लगी थी कि हमने वो किला फतह कर लिया। जो, केशवराव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय तय किया था। लेकिन, सच्चाई वो थी नहीं। सच्चाई तो ये थी कि संघ के विचारों के अनुकूल तैयार हुआ राजनीतिक दल सत्ता तक पहुंचा था। काम बस इतना ही हुआ था। लेकिन, सत्ता के जरिए समाज में बदलाव का लक्ष्य बीजेपी को याद ही नहीं रह गया। और, संघ के याद दिलाने पर सरकार चलाने वाले दो वरिष्ठ स्वयंसेवकों- प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी- और संघ के बीच शीतयुद्ध सा शुरू हो गया था।

Sunday, August 23, 2009

इसमें सरोकार भी है, समाज भी और कारोबार भी.. ये भी मीडिया है


इस चैनल ने मीडिया के वो सारे तर्क झुठला दिए हैं। मीडिया में बैठे उन सब लोगों को तमाचा मारा है जो, कहते घूमते हैं कि जो, बिकता है वहीं हम दिखाते हैं। और, उस बिकने के नाम पर नंगई, लुच्चई, एक हाथ की खबर को 4 हाथ की बना देते हैं। राखी सावंत को अपने प्रेमी को थप्पड़ मारते दिखाते हैं।


खबरों में मसाले की चाशनी लगाकर बेचने वालों के लिए ये ज्यादा समझने वाली बात है। लेकिन, वो क्या समझेंगे क्योंकि, उनके ऊपर तो ठप्पा लगा है कि वो, खबरों को ऐसे दिखाते हैं। बिना सनसनी बेचे उनका काम नहीं चलता। सवाल ये नहीं कि वो, कितना न्यायसंगत तर्क देते हैं। सवाल ये है कि वो, उस तर्क के साथ क्या कर रहे हैं। क्योंकि, मीडिया का काम ये तो हो ही नहीं सकता कि जो बिकता है वही दिखाएंगे। वो, फिर खबरों को दिखाने वाला हम लोगों का मीडिया हो यानी न्यूज चैनल या फिर एंटरटेनमेंट मीडिया या फिर फिल्म बनाने वाले या दूसरे ऐसे ही मीडिया के लोग।


क्योंकि, मीडिया तो, लोगों को जगाने-पढ़ाने-प्रेरित करने के रोल में रहना चाहिए। फिर वो खबरों वाले मीडिया के अच्छी खबरों के साथ बुरी खबरों के खिलाफ मुहिम चलाने की बात हो या फिर समाज को जागरूक करने वाली आगे बढ़ाने वाली खबरें हों। एंटरटेनमेंट मीडिया से एकदम से इस देश की आत्मा ही गायब हो गई। दूरदर्शन, पर सरकारी शिकंजे ने उसे दूर से दर्शन के लायक ही बना दिया तो, निजी खबरों, एंटरटेनमेंट चैनलों ने मुकाबले में गजब की परिभाषा गढ़नी शुरू कर दी। जो, ज्यादातर हर रोज अपनी सहूलियत और अपने संसाधन-हाथ आई खबर के लिहाज से तय होता रहा।

Saturday, August 15, 2009

सारे जहां से अच्छा ... वंदेमातरम

वंदेमातरम खूब सर्च हो रहा है। मेरे ब्लॉग पर ही हर रोज 2-4 लोग तो वंदेमातरम सर्च करते आ ही जा रहे हैं। मेरी पिछले 15 अगस्त को लिखी पोस्ट गूगल अंकल की कृपा से फिर ताजा हो गई है। साल भर बाद ठीक वैसे ही जैसे अपन लोगों में स्वाधीनता-आजादी-देश का स्वाभिमान ये सब हिलोरे मारने लगता है कुछ खास मौकों पर।


लेकिन, ये कमाल नहीं है कि हम अपनी आजादी का जश्न उससे जुड़ी खास तरह की गदगद अनुभूति रोज नहीं कर पाते। अब मैं ये क्यों कह रहा हूं। मुझे लगातार ये सवाल परेशान करता है। चीन हमारे 20-30 टुकड़े करने के सपने देख रहा है। लेकिन, फिर भी हम जब एक देश बनने की सोचते हैं चीन या अमेरिका हमें सबसे पहले याद आते हैं। हम अब भी गुलाम हैं इसका प्रमाण हम गाहे बगाहे देते हैं रहते हैं।



नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक दिन याद आ गई तो, लेख में मैंने ये भी लिखा दिया कि क्या वजह है कि आज भी हम जॉर्ज पंचम की शान में गाए गए गाने को अपना राष्ट्रगान माने बैठे हैं। वैसे इस पर बहुत विवाद है। लेकिन, जब विवाद खड़ा ही हुआ था तो, ये आखिर क्यों नहीं हो सका कि एक बार इसे ठीक से समझा समझाया जाता कि रवींद्र नाथ टैगोर ने भारत भाग्य विधाता किसे कहा है।

Tuesday, August 11, 2009

हम हाथ मिला लिए हैं .. तुम मरो-कटो हमारी बला से

लीजिए साहब सब शांति से निपट गया। बड़ा बुरा हुआ। कोशिश तो पूरी हुई थी फिर भी न तो कोई मार पीट हुई, न दंगा। अब जब कुछ नहीं हो पाया तो, चलो भाई हाथ मिला लेते हैं। आखिर भरोसा जो मिल गया है कि शांतिपूर्वक सब काम हो जाएगा।


ई भरोसा हो गया है कि अब उन्हें घर तो मिल जाएगा। उन्हीं लोगों के भरोसे पर वो शांत हो गए हैं। जिनसे वो, टीवी चैनल पर चिल्ला-चिल्लाकर पूछ रहे थे- क्या मैं आतंकवादी दिखता हूं? अरे मैं कोई सीरियल किलर थोड़े ना हूं, मैं तो सीरियल किसर हूं?


जवाब किसी ने दिया नहीं लेकिन, सच्चाई तो यही है कि तुम हरकत तो आतंकवादी जैसी ही कर रहे थे। परदे पर दूसरों की बीवी पर बुरी नजर रखते थे, घर तोड़ने की कोशिश करते थे। अब देश में तोड़फोड़ करने की कोशिश कर रहे हो। चिल्ला-चिल्लाकर जो बोल रहे थे कि क्या मैं आतंकवादी हूं, मुझे घर इसलिए नहीं मिल रहा है कि मैं मुसलमान हूं। ये क्या है आतंकवाद नहीं है। लगे हाथ इमरान हाशमी अपने माई बाप महेश भट्ट के साथ ये भी बताए जा रहे कि ऐसा नहीं है। मेरी पत्नी तो हिंदु है लेकिन, मैं तो सबके अधिकारों की बात कर रहा हूं। बस फिर क्या था- टीवी चैनलों पर देश की सेक्युलर जमात के इकलौते अगुवा दंपति जावेद अख्तर और शबाना आजमी की पुरानी बाइट और ग्राफिक्स प्लेट पर किसको कब मुंबई में मुसलमान होने की वजह से घर नहीं मिला। सब बैक टू बैक चलने लगा।


अब ई हाशमी और भट्ट भइया को कौन बताए कि आतंकवाद हमेशा AK 47 उठाकर गोली चलाने से ही तोड़े न आता है। जो, तुम कर रहे थे। वो, भी तो वही था। दो धर्मों के बीच कटुता फैलाने की पूरी कोशिश की। जब तुम्हारे लाख भड़काने पर भी कोई नहीं भड़का तो, तुमने हाथ मिला लिया। तर्क ये भी कि भई सब शांति से करना है तो, ये तो पहले भी कर सकते थे। औ अगर सही में तुमको सिर्फ मुसलमान होने की वजह से घर नहीं मिला तो, लड़ो। काहे चुप बैठ गए। इसीलिए कि अब तो तुमको कोई भाव भी नहीं दे रहा। सच्चाई तो यही है कि तुमने जो सवाल पूछे थे वो, करने की कोशिश तो पूरी की थी लेकिन, हाय जालिम जमाना तुम्हारे साथ खड़ा नहीं हुआ। और, सब गड़बड़ हो गया। अभी भी तुम्हारी गिनती सेक्युलर जमात के अगुवा लोगों के साथ नहीं हो पाएगी। चलो मौका मिले तो, फिर कोशिश करना। मामला बन गया तो, रील लाइफ से रियल लाइफ में भी हीरो बन जाना। न बन पाना तो, फिर हाथ मिला लेना। हिंदुस्तान में इस बात की आजादी तो सबको है कि थोड़ी कूबत हो तो, कुछ भी करके शांति से हाथ मिला लो ...

Sunday, August 09, 2009

इंडिया ने तो कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है

अब जो बनना चाहते हैं ऊ तो हम बनेंगे ही। भले थोड़ी मुश्किल झेलनी पड़ जाए। आखिर कितना सोच समझकर तो हममें से ज्यादा का मानस इस पर एकमत हुआ है कि ऐसा ही बनने लायक है। वरना तो हम हमेशा ही ढेर सारा कन्फ्यूजियाए रहते हैं कि कैसे बनें कि मजा आ जाए। लेकिन, कुछ बुद्धिमान लोग हैं डरा रहे हैं कि वैसा बनने की कोशिश की तो, जाने कैसा-कैसा हो जाएगा। अरे आप नहीं समझ पाए- कैसा। अरे वही अमेरिका जैसा।


घर खरीदने के लिए करीब-करीब सबसे ज्यादा लोगों को कर्ज देने वाले वाले HDFC के दीपक पारेख साहब पता नहीं क्यों मूडा गए हैं। कह रहे हैं कि अमेरिका के सबप्राइम संकट जैसा खतरा हमें झेलना पड़ सकता है। अब बताइए गजब बात हुई हम हिंदुस्तानी बेचारे अमेरिका जैसे मजे के आसपास भी नहीं पहुंच पा रहे हैं औ ई साहब पहिलवै कहने लगे हैं कि सबप्राइम संकट (अरे वही दुर्दशा जिससे अमेरिका 2 साल से एड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी छुटकारा नहीं पा रहा है। ओबामौ क देख लिहे बेचारे)का खतरा झेलना पड़ जाएगा।



पता नहीं क्यों पारेख साहब ओवररिएक्ट कर रहे हैं। बात बस इत्ती सी है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (अरे वही बैंक जो सरकारी है फिर भी ई पारेख-कोचर-कामत टाइप लोग मिलकर भी जिसको पिछाड़ नहीं पा रहे हैं)ने ब्याज दर फिर घटा दी है। अब सबप्राइम के खतरे से ही डरकर तो सबने पारेख-कोचर टाइप के महाउद्यमी लोगों के बैंक से अपना खाता हटाया था। पहिले तो ई लोग दौड़ा-दौडाकर क्रेडिट कार्ड हम सबैका पर्स भर दिए, उधार पे जीने की आदत डाल दी। अब कह रहे हैं कि जो, सैलरी अकाउंट में रखा है उसी से सब उधारी भरवा लेंगे।





शनिवार को जब मैंने पारेख साहब को हेडलाइन बनाया तो, मुझे लगा कि ई बउरा गए हैं का। एक बैंक के ब्याज दर थोड़ा और घटा देने से का हो जाएगा। ऐसे थोड़ी ना सबप्राइम संकट आ जाता है। लेकिन, आज सुबह जब बिग बाजार में बिल की लाइन में लगा था तो, आगे वाले सज्जन के चार्वाक दर्शन पर अटूट भरोसे ने मुझे भी पारेख साहब की लाइन लेने के लिए तैयार कर दिया। मेरे आगे के सज्जन बिल देने के लिए विचार नहीं पा रहे थे कि पर्स में आभूषण और तमगे की तरह सजे क्रेडिट कार्ड में से कउन वाला बिल के लिए दिया जाए। दू ठो कार्ड निकाले फिर झटके में इसमें से एक हजार काट लीजिए और इसमें से बाकी। इस्तेमाल तो भइया ने दुइयै ठो कार्ड किया। लेकिन, उनकी हैसियत बड़ी थी। चाहते तो, 6-8 भी दे सकते थे।


भाईसाहब का फंडा गजब था। मेरे भी एकाध जानने वाले इस फंडे की कहानी बड़े मजे से सुनाते हैं कि कैसे उनके चार क्रेडिट कार्ड एक दूसरे के कर्ज और 45 दिन की समयसीमा के बीच संतुलन बिठाते हुए उनका हर महीना मजे से गुजार देते हैं। ई सब भाईसाहब लोग कर्ज पर चल रहे हैं।


अब मुझे लग रहा है पारेख साहब एकदम सही कह रहे हैं कि सस्ता कर्ज मिलेगा तो, जिसकी हैसियत चवन्नी की है ऊ अठन्नी-रुपय्ये का घर खरीदेगा। औ मुंगेरीलाल की तरह हसीन सपना देखेगा कि जइसनै कीमत दुइ रुपया होए बेचके अढ़ाई रुपया वाला घर खरीदैं। फिर वही सस्ता कर्ज लैके। पारेख साहब की बात में दम दिखता है। फिर से रियल एस्टेट के नए प्रोजेक्ट के विज्ञापन ग्लेज्ड (चमकदार, रंगीन) पेपर पर पूरे-आधे पन्ने में चमकने लगे हैं। पहले प्रोजेक्ट पर काम शुरू होने से पहले ही 100% sold out के दावे के साथ phase 2, 3 की लॉन्चिंग की खबरें दिखने लगती हैं। हम मीडिया वाले भी खबर करते हैं कि रियल एस्टेट सेक्टर में फिर मजबूती लौट रही है। सुनहरा भारत दिखाने का जिम्मा भी तो हमारा है। वैसे भी बहुत दिन तक मंदी-मंदी करेंगे तो, लोग टीवी बंद कर देंगे औ हमारी भी नौकरिया चली जाएगी। लेकिन, भइया पारेख साहब कह सही रहे हैं।


कुल मिलाकर क्रेडिट कार्ड, लाखों की सैलरी, बढ़िया फ्लैट और लंबी कार वाला चमकता इंडिया तो, बहुत पहले से कोई कसर नहीं छोड़ रहा है लेकिन, का करें ई बेवकूफ भारत हर बार रस्ता रोके खड़ा हो जाता है अडियल सांड़ की तरह। बताइए पूरी मंदी गुजर गई औ हम सबप्राइम संकटवा का मजै नहीं ले पाए। थोड़ा तो अमेरिका की तरह बड़े हो पाए होते। चलिए लगे रहते हैं आज नहीं तो, जैसे-जैसे इंडिया बड़ा, भारत छोटा होता जाएगा। अमेरिका के मजे औ अमेरिका के सबप्राइम संकट की चिंता दोनों अनुभव मिलने में आसानी होती जाएगी।

Sunday, August 02, 2009

इस प्रेमचंद्र से आप परिचित हैं क्या


उपन्यासकार नहीं मेरी नजर में सबसे बड़े समाजशास्त्री मुंशी प्रेमचंद्र होते तो, १२९ साल के होते। खैर, वो हैं नहीं लेकिन, उनका लिखा जिसने जितना पढ़ा उसके लिए वो जिंदा हैं-रहेंगे। हम तो कोई उपन्यासकार-साहित्यकार-हिंदी के बड़े मूर्धन्य तो हैं नहीं। लेकिन, ऐसे ही मैं जब प्रेमचंद्र को याद करने का कोई भी लेख देख रहा था तो, उसमें उन्हें दलित उत्थान, महिला उत्थान की नींव रखने वाला समाज को बदलने वाला बताया गया है। लेकिन, मैं जब प्रेमचंद्र को याद करता हूं तो, कुछ दूसरे तरह से प्रेमचंद्र मुझे याद आते हैं।


प्रेमचंद्र का असली नाम धनपत राय तो, जबरदस्ती ठोंकने-पीटने पर दिमाग याद करता है। हमें तो, सिर्फ प्रेमचंद्र याद आते हैं। मुझे प्रेमचंद्र याद आते हैं उनकी लिखाई से और अपनी पढ़ाई से। वो, कोई अलग से बड़ी मेहनत करके साहित्य की पढ़ाई नहीं थी। पाठ्यक्रम की हिस्सा रही बूढ़ी काकी, हामिद का चिमटा से। अब जो मेरे परिचित प्रेमचंद्र हैं वो, मुझे कभी दलित, महिला उत्थान की बात करते नहीं दिखे। अच्छा ही हुआ, कम से कम मुझे तो यही लगता है। प्रेमचंद्र तो समाज के निचले पायदान पर खड़े हर आदमी के उत्थान की बात करते थे।


प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी मुझे अपनी बड़कीअम्मा (पिताजी की स्वर्गीय माताजी) जैसी दिखती थी। और, उस कहानी में भी बूढ़ी काकी पर कोई दरअसल जोर-जुल्म नहीं हुआ था। काकी की उम्र के लिहाज से थोड़ी चंचल हो गई जिह्वा और काकी की चचेरी बहू की अपने घऱ में शादी की प्राथमिकता का द्वंद भर था। कितने सलीके से काकी के सामने उनकी बहू शर्मसार हो गई। कोई प्रवचन नहीं। सास-बहू का आंदोलन नहीं। काकी को मेहमानों की पत्तल से जूठन खाते देख काकी के बेटे की पत्नी शर्म से जमीन में गड़ गई। भाव यही कि जिसके आशीर्वाद से सबकुछ हुआ (पैसे मिल रहे हों) उसे ही खाने के लिए पत्तल की जूठन चाटनी पड़ रही है। अब प्रेमचंद्र ने जिस तरह से हमारा परिचय बूढ़ी काकी से कराया। मैं गलती से भी अपनी बड़की अम्मा की किसी भी इच्छा को दबा नहीं सकता था। हमारी अम्मा ने बड़कीअम्मा ने आखिरी दम तक अम्मा की पूरी सेवा की लेकिन, अगर जरा भी कोर कसर होती तो, शायद प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी का परिचय हमें इस बात के लिए तैयार कर चुका था कि अपनी अम्मा को हम कहते कि बड़कीअम्मा की हर इच्छा पूरी करिए।


हमारी प्रेमचंद्र से जो और पहचान है वो, हामिद के चिमटे के जरिए है। वही ईदगाह वाला हामिद जिसका चिमटा ईदगाह के मेले के हर खिलौने का बाजा बजा देता है। आजजब टीवी पर एक विज्ञापन देखता हूं तो, लगता है जैसे प्रेमचंद्र की कहानी के हामिद और उसकी अम्मी को विज्ञापन लिखने वाले ने पर्दे पर उतार दिया हो। छोटा सा बच्चा अपनी मां के हाथ जलने से बचाने के लिए सड़क पर पडे स्टील के सरिए को चिमटे जैसा बनाकर देता है। ये प्रेमचंद्र स्टाइल विज्ञापन अधनंगे लड़के-लड़कियों के किसी भी विज्ञापन को मात देता है। ये प्रेमचंद्र की समाज से जुड़ने की ताकत है आज भी, उनकी पैदाइश के 129 साल और दुनिया से जाने के 73 साल बाद भी।


आजकल हमारे नए मानव संसाधन मंत्री जी को भूत सवार है कि सारे घर के बदल डालना है। कहते हैं ना वो अंग्रेजी में कि change is life तो, सिब्बल साहब को भी यही लग रहा है। वो, कह रहे हैं कि देश भर में एक बोर्ड कर दो। देश भर में 10वीं की परीक्षा वैकल्पिक कर दो। मतलब बच्चे का मन हो पढ़े न पढ़े। परीक्षा दे न दे। सिब्बल साहब तो ज्ञानी आदमी हैं उनको हम क्या सलाह देंगे। लेकिन, अगर सिब्बल साहब एक चीज देश में एक जैसी कर देते तो, मजा आ जाता। हम उनके साथ खड़े हो जाते। सिब्बल साहब प्रेमचंद्र से पूरे देश का परिचय करा दीजिए। हर स्कूल के पाठ्यक्रम में प्रेमचंद्र की बूढ़ी काकी, हामिद के चिमटे को जगह दिलवा दीजिए। यकीन मानिए बच्चे ये प्रेमचंद्र से परिचित हो गए तो, दलित, महिला उत्थान के लिए ज्यादा लड़ने, सरकारी कार्यक्रम चलाने मंच पर खंखारकर गला साफ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


हमें तो प्रेमचंद्र का होरी भी हमारे घर-गांव-परिवार का धोती-और बनियान पहने आदमी लगता है। हमारा पंडितों का गांव है लेकिन, वेशभूषा, पहनावे-रहन सहन से होरी ज्यादा अलग नहीं लगता। उससे परिचित होने के बाद किसी भी कमजोर को किसी मजबूत के कर्मों से पिसते देखता हूं तो, गुस्सा आती है। कमजोर के साथ मजबूत से लड़ने का मन करता है। पाठ्यक्रम में बच्चों को प्रेमचंद्र से परिचित करा दीजिए। देखिए सच का सामना जैसे सीरियल टीवी पर दिखाए जाएं या नहीं इस चर्चा से संसद बच जाएगी। राखी का स्वयंवर और इस जंगल से मुझे बचाओ जैसे सीरियल टीआरपी चार्ट पर जाने कहां सरक जाएंगे। मां-बाप, परिवार, पड़ोसी के साथ गलत बर्ताव की खबरों का मीडिया में अकाल पड़ जाएगा। बस साहब प्रेमचंद्र का समाजशास्त्र बच्चों को समझा भर दीजिए, प्रेमचंद्र से परिचित करा दीजिए। और, इससे बड़ी श्रद्धांजलि प्रेमचंद्र को क्या दी जा सकती है।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...