Wednesday, December 30, 2009

क्या सलीके से दर्शन होने पर भगवान का महत्व कम हो जाता है



वैसे तो अकसर धार्मिक स्थलों पर अराजकता के किस्से अकसर देखने-सुनने को मिल जाते हैं। लेकिन, अभी राजस्थान के दौसा जिले के एक धार्मिक स्थल पर अराजकता का जो नजारा दिखा वो, सब पर भारी था। दौसा जिले के मेंहदीपुर में स्थित बालाजी हनुमान का मंदिर कुछ ऐसी ही अराजकता का शिकार है।


मंदिर के बाहर बाकायदा बालाजी ट्रस्ट का बोर्ड दिखा जिससे ये तो तय हो गया कि कुछ स्वनाम धन्य स्वयंभू धार्मिक ठेकेदारों ने बालाजी मंदिर से आने वाली आय से अपना कल्याण करने का रजिस्ट्रेशन करा रखा है। लेकिन, भगवान के भक्तों का हाल इतना बुरा हो जाता है कि मैं बालाजी मंदिर के सामने करीब 4 घंटे की लाइन में लगने के बाद भी बाहर से ही दर्शन करके लौट आया।



वैसे तो, किसी भी धार्मिक स्थल पर हर आस्थावान मत्था टेकने चला जाता है। लेकिन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के लोगों के लिए बालाजी हनुमान का विशेष महत्व है। दिल्ली से करीब 270 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटे से गांव मेंहदीपुर में ये मंदिर है जो, इसी मंदिर की वजह से बेहद अस्त व्यस्त गंदे से कस्बे का रूप धर चुका है। एक मुख्य सड़क के दोनों तरफ आश्रम-धर्मशालाओं की लाइन लगी है। और, मंदिर के आसपास का पूरा इलाका प्रसाद की दुकानों में तब्दील हो गया है। हर घर में रुकने का भी इंतजाम है। कुछ मिलाकर पूरा इलाका इन्हीं बालाजी की ही कृपा से खा रहा है। लेकिन, जो भक्त यहां के लोगों के खाने का इंतजाम कर रहे हैं उन भक्तों की ऐसी दुर्दशा हो जाती है कि बहुत पराक्रमी और अंधभक्त न हो तो, दोबारा आने का साहस न कर पाए। कम से कम मेरे जैसे सामान्य आस्था वाले लोग तो नहीं ही।



दरअसल इस मंदिर की दुर्दशा के पीछे एक और बड़ी वजह है जो, मुझे वहां पहुंचने पर ही पता चली। वो, ये कि बालाजी हनुमान के साथ ही भैरव और प्रेत दरबार भी है। जहां ज्यादातर लोग रोग निवारण या प्रेत बाधा दूर कराने के लिए आते हैं। ऐसे लोगों की भीड़ थी जो किसी न किसी भूत-प्रेत बाधा के मरीज को लेकर आए थे। अंधमान्यता ये भी है कि यहां का दर्शन एक बार कर लेने के बाद किसी को कभी प्रेत बाधा नहीं होती है। मंदिर के सामने की लोहे की रेलिंग पर एक दूसरे के साथ गुंथे ताले दरअसल वो लोग बांधकर जाते हैं जिनकी प्रेत बाधा उन्हें लगता है कि बालाजी ने दूर कर दी।


हम लोग दिल्ली से निकले शाम के करीब 6 बजे और 9 बजे के आसपास मथुरा पहुंच गए। लेकिन, तय किया गया कि रात में ही मेंहदीपुर पहुंच जाया जाए तो, सुबह दर्शन करके जल्दी मथुरा वापसी कर लेंगे। रात के करीब बारह-साढ़े बारह बजे हम लोग मेंहदीपुर पहुंचे। जबरदस्त सर्दी की रात में सभी धर्मशालाओं-आश्रमों से हाउसफुल की सूचना मिल रही थी। हारकर एक धर्मशाला के केयरटेकर का नंबर मिलाया गया। उसने बुला लिया। अंदर बनी उस धर्मशाला में पहुंचे तो, पता चला कि कमरा तो, वहां भी नहीं खाली है। लेकिन, उसने स्टोर रूम साफ करवाकर उसी में गद्दे लगवा दिए। लगे हाथ ये हिदायत भी दे दी कि एकाध-दो घंटे जो सोना हो सो लीजिए। 3-4 बजे तक लाइन में लग जाएंगे तो, 12 बजे तक दर्शन हो जाएगा। लगा कि ये बेवजह डरा रहा है।


लेकिन, ये लगा कि जितनी जल्दी दर्शन हो जाएगा मथुरा-वृंदावन में उतना ज्यादा समय मिल जाएगा। आखिरकार आलस करते-ठंड से डरते हम लोग नहा-धोकर साढ़े चार बजे मंदिर पहुंच गए देखा तो, मंदिर के बगल से सटी गलियों में अंदर तक भीड़ लाइन लगाए खड़ी थी। खैर, हम लोग भी लाइन में लग गए। पता चला कि सात बजे से आरती शुरू होगी। आठ बजे से दर्शन शुरू होगा। फिर भई लाइन अभी से क्यों तो, जवाब ये कि अभी से लाइन में लगेंगे तो, ही जाकर 11-12 बजे तक दर्शन हो पाएंगे। दरअसल जानबूझकर आधी रात से ही लाइन लगाने की भूमिका मेंहदीपुर के दुकानदारों से लेकर आश्रम-धर्मशाला तक वाले ऐसी बना देते हैं कि बेचारा दर्शन करने वाला डरकर आधी रात से ही बालाजी की ब्रांडिंग मजबूत करने में जुट जाता है। कुल मिलाकर धर्म के ये ठेकेदार धार्मिक लोगों की आस्था का दोहन करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।


और, जो आधी रात से लाइन में लगते हैं वही बेवकूफ भी गजब बनते हैं। हम लोग भी बने। नियम का पालन करते लाइन में लग गए। बाद में देखा तो, मंदिर के सामने लाइन की बजाए पूरी जनसभा जैसी भीड़ फैलती चली गई। न तो कोई पुलिस का इंतजाम- नही मंदिर से कमाने-खाने वाले ट्रस्टियों का कोई अता-पता। मंदिर के ट्रस्ट का कार्यालय खोजना चाहा तो, पता चला कि ऑफिस तो, आठ बजे तक खुलेगा।


खैर, मंदिर के बाहर भूत-प्रेत बाधा से ग्रसित अभुआते-लटपटाते-गिरे लोगों को देखकर मेरा मन इतना खराब हो चुका था कि मैंने चार घंटे लाइन में लगने के बावजूद मंदिर में न जाने का फैसला कर लिया और मंदिर के बाहर से ही दर्शन करके जाकर गाड़ी में आराम करने लगा। लाइन में लगने के दौरान बालाजी के अनन्य भक्त पश्चिम उत्तर प्रदेश के निवासी एक अधेड़ उम्र के सज्जन ने दावा किया कि एक ट्रक दुर्घटना में उनकी रीढ़ की हड्डी इस कदर टूटी थी कि वो उठने-चलने लायक नहीं रहे थे लेकिन, ये बालाजी की ही कृपा थी कि कुछ ही दिनों में दवा बंद करने के बावजूद वो लाइन में फिर से बालाजी के दर्शन के लिए खड़े हैं। महिलाओं-लड़कियों पर ही ज्यादा भूत-प्रेत बाधा दिख रही थी इसका जवाब उन अधेड़ साहब ने दिया कि हम-आप भी तो लड़कियों की ही तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं। खैर, ये जवाब मुझे इसलिए नहीं पचा कि पहले तो मैं भूत-प्रेत नहीं मानता। और, अगर भूत-प्रेत होते भी हैं तो, क्या सिर्फ पुरुष ही होते हैं। ये नया शोध का विषय मिल गया। अगर ये हो तो अच्छा है कि महिलाएं ऐसे कर्म अपने जीवन में ऐसे कर्म कम ही करती हैं कि उन्हें भूत-प्रेत बनना पड़े।

अब मेरा ये लिखा बालाजी ट्रस्ट के लोग तो पढ़ने से रहे। लेकिन, अगर किसी तरह ट्रस्ट के लोगों को ये बात समझ में आ जाए तो, शायद मेंहदीपुर का बेतरतीब कस्बा बालाजी की कृपा से अच्छी प्रति व्यक्ति कमाई वाली जगह में बदल सकता है। वहां रहने वालों का जीवन स्तर सुधर सकता है। उन्हें भी आधी रात से ही जगकर प्रसाद-चाय, नाश्ता बेचकर रोटी का जुगाड़ करने की जद्दोजहद से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन, इसके लिए आधी रात से बालाजी दर्शन की लंबी लाइन का डर दिखाने के बजाए एक व्यवस्थित तरीका तैयार करना होगा। 

Friday, December 25, 2009

दलित-ब्राह्मणवाद को रामबाण बनने से रोकना होगा

ये नए तरह का मनुवाद है। इसको नए तरह का ब्राह्मणवाद भी कह सकते हैं। फर्क बस इतना है कि इस ब्राह्मणवाद का कवच दलित होने पर ही मिलता है। ये दलित ब्राह्मणवाद इतना अचूक नुस्खा हो गया है कि बस एक बार हुंकारी लगाने की जरूरत है फिर पीछे-पीछे लाइन लग जाती है। पुराना ब्राह्मणवाद धर्म के पाप लगने से डराता था और अपने पापों को छिपा ले जाता था तो, ये नया दलित ब्राह्मणवाद वोटबैंक खो जाने जैसे पाप का डर राजनीतिक पार्टियों को दिखाता है यही वजह है कि मायावती को खुद के राज में असल दलितों पर अत्याचार भले ही चिंतित नहीं करता लेकिन, आज के लिहाज से ब्राह्मण में तब्दील हो चुके कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के भ्रष्टाचार के खिलाफ महाभियोग के प्रस्ताव में एक दलित के खिलाफ साजिश की बू आने लगती है।
मायावती ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा है कि जस्टिस दिनकरन को बिना मौका दिए महाभियोग का प्रस्ताव लाना गलत है और वो इसके खिलाफ आवाज उठाएंगी। ये दलित नाम का न चूकने वाला नुस्खा ही है कि एक दलित कांग्रेसी सांसद की अगुवाई में सभी दलों के दलित सांसद अचानक दिनकरन के पक्ष में खड़े हो गए हैं। दिनकरन तो पहले से ही चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि दलित होने की वजह से मुझे फंसाया जा रहा है। दिनकरन कह रहे हैं कि उन पर जमीन घोटाले का आरोप तब लगाया गया जब उनके सुप्रीमकोर्ट में जज बनने की बात आई। लेकिन, सवाल ये है अगर दलित होने की वजह से उनके खिलाफ साजिश रचने वाली ब्राह्मणवादी ताकतें इतनी मजबूत हैं तो, उनके कर्नाटक हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने में अड़ंगा क्यों नहीं लगाया।
ऐसे में ये दिनकरन और दूसरे दलित से ब्राह्मण बन चुके लोगों की दलित-ब्राह्मणवाद की आड़ में भ्रष्टाचार जैसे आरोप को कमजोर करने की कोशिश ज्यादा लगती है। वरना भ्रष्टाचार के आरोप निराधार हैं तो, जस्टिस पी डी दिनकरन आरोपों को भारतीय संविधान के दायरे में खारिज करने की कोशिश क्यों नहीं करते। लॉबी बनाकर ब्राह्मण की श्रेणी में आ चुके दलितों की लामबंदी में क्यों जुटे हैं। दलित सांसदों, मुख्यमंत्रियों और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन बूटा सिंह तक का ये कहना कि दिनकरन पर ऐसे आरोप सिर्फ इसलिए लग रहे हैं कि वो, दलित हैं- ये बात कुछ हजम नहीं हो रही है। अब अगर बूटा सिंह साहब लगे हाथ ये भी याद कर लेते कि सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस बालाकृष्णन साहब कौन सी जाति के हैं तो, अच्छा रहता।
हाल ये हो गया है कि ये दलित-ब्राह्मणवाद ऐसा रामबाण हो गया है कि बस नाम भर ले लो फिर किसी की क्या मजाल जो, कुछ हमला करने की हिम्मत कर सके। अपराध करो, भ्रष्टाचार करो- कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। बेचारे सचमुच के दलितों से लेकर जाति में दलित लगाए महासवर्णों तक आपके साथ खड़े हो जाएंगे और जिनके जाति के आगे दलित नहीं लगा है वो, इस डर से विरोध नहीं करेंगे कि दलित विरोधी होने का ठप्पा न लग जाए। और, सच में दलित स्थिति में रह रहे दलित के दर्द की आवाज इस तमाशे के शोर में दब सी जा रही है।
इसीलिए, जरूरी है कि दलित-ब्राह्मणवाद नाम के इस मंत्र को रामबाण बनने से रोका जाए। क्योंकि, असल दलित तो अपना हक पाने की लड़ाई लड़ते-लड़ते आज भी अपनी स्थिति बहुत कम सुधार पाए हैं। लेकिन, मायावती और जस्टिस पी डी दिनकरन जैसे दलित ब्राह्मण नए तरह के दलित तैयार करने में कामयाब हो जाएंगे। वैसे ज्यादा समय इस बात को भी नहीं हुआ है कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के चेयरमैन बूटा सिंह ने एक बिल्डर से करोड़ो की धोखाधड़ी के मामले में बेटे की गिरफ्तारी पर सीबीआई के खिलाफ ही दलित होने के रामबाण का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे। इस नए रामबाण को अचूक होने से रोकना होगा नहीं तो, जाने कितने भ्रष्टाचार, गंदगियां और जाने कितनी दूसरी बुराइयों की ये ढाल बन जाएगा।

Thursday, December 24, 2009

मराठी भाजपा अध्यक्ष की चुनौतियां


भारी भरकम शरीर वाले नितिन गडकरी का भाजपा अध्यक्ष बनना कई मायनों में एतिहासिक है। वैसे तो नितिन गडकरी संघ के पूर्ण आशीर्वाद की वजह से ही उस कुर्सी पर बैठ पाए हैं जिस पद के जरिए अटल बिहारी वाजपेयी-लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जैसे भाजपा के दिग्गजों ने पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे तक पहुंचा दिया और, कांग्रेस का विकल्प भाजपा बन गई। गड़करी सिर्फ 52 वर्ष के हैं और भाजपा के इतिहास में सबसे कम उम्र के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। गडकरी मराठी हैं और संघ मुख्यालय नागपुर में होने के बावजूद पहली बार संघ ने किसी मराठी के लिए प्रतिष्ठा लगाई है।


इतनी एतिहासिक परिस्थितियों में कुर्सी संभालने वाले गडकरी अब आगे इतिहास बनाएंगे या खुद इतिहास में ठीक तरीके से दर्ज भी नहीं हो पाएंगे। गडकरी का नाम जब राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए पहली बार सामने आया था तो, राष्ट्रीय मीडिया में एक सुर था-- मरती भाजपा के लिए आत्मघाती कदम। राज्य स्तर के नेता को राष्ट्रीय दर्जा देने की संघ की कोशिश की खूब आलोचना हुई थी। लेकिन, गडकरी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही गडकरी के लिए फ्लाईओवर मैन, विकास पुरुष जैसे नारे सुर्खियां बन गए। टीवी चैनलों पर गडकरी का स्कूटर से वोट डालने वाला दृष्य भी खूब दिखाया। गडकरी को इस चुनौती को समझना होगा। मीडिया से संबंध बेहतर रखें लेकिन, सिर्फ और सिर्फ काम करना होगा। भाजपा की जगह आज भी है लेकिन, माहौल अच्छा नहीं है। खुद की राष्ट्रीय छवि तैयार करनी होगी।


गडकरी की सबसे बड़ी चुनौती तो ये है कि वो, दिल्ली दरबार के उन माहिर खिलाड़यों को पटकनी देकर भाजपा के मुखिया बने हैं जो, पिछले एक दशक से दिल्ली की राजनीति का रास्ता बनाते बिगाड़ते रहे हैं। भले ही आंतरिक संतुलन बनाए रखने के लिए आडवाणी को घर के बड़े बुजुर्ग जैसे भाजपा संसदीय समिति के चेयरमैन का पद दे दिया गया और सुषमा को लोकसभा और जेटली को राज्यसभा में भाजपा का मुखिया बना दिया गया। लेकिन, सच्चाई यही है कि ये दोनों नेता खुद को आडवाणी के बाद पार्टी के स्वाभाविक मुखिया के तौर पर देख रहे थे। यहां तक कि गडकरी की ताजपोशी के पहले तक पार्टी कार्यकर्ता भी इन्हीं में से किसी की ताजपोशी तय मान रहे थे। इसीलिए जब गडकरी का नाम तय हो गया तो, सुषमा स्वराज ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि उन्होंने और भाजपा के कुछ दूसरे नेताओं ने अध्यक्ष बनने से मना किया तब गडकरी का नाम आया। यानी गडकरी दूसरे दर्जे के नेता हैं जो, आज की बीजेपी के पहले दर्जे के नेताओं की छोड़ी सीट पर बैठ रहे हैं। गडकरी की सबसे बड़ी चुनौती दिल्ली दरबार के नेताओं से तालमेल बिठाते हुए इसी पहले दर्जे में खुद को स्थापित करने की होगी।


ठीक पहले के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के कार्यकाल से भी नितिन गडकरी सबक ले सकते हैं। राजनाथ सिंह देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश से आते हैं। और, अध्यक्ष बनते समय यही राजनाथ सिंह के मजबूत पक्ष को दिखा रहा था। लेकिन, कार्यकाल खत्म होते-होते साफ हो गया कि राजनाथ के समय में बीजेपी की देश में जो दुर्गति हुई सो हुई- उत्तर प्रदेश में पार्टी पहले-दूसरे की लड़ाई से नीचे उतरकर तीसरे नंबर पर पहुंच गई। अब गडकरी के सामने दो राज्यों में भाजपा का प्रभाव फिर से स्थापित करना तुरंत की चुनौती होगी। पहला उत्तर प्रदेश और दूसरा अपने गृह राज्य महाराष्ट्र में।


उत्तर प्रदेश में नया नेतृत्व तलाशना गडकरी के लिए सबसे मुश्किल काम होगा। बीजेपी में अब तक कद्दावर रहे नेताओं की लाइन एक दूसरे की इतनी छीछालेदर कर चुकी है कि वो, चाहकर भी किसी एक के साथ चल नहीं पाएंगे। ऐसे में गडकरी को कोई ऐसा नेतृत्व खोजना होगा जिसे संघ का आशीर्वाद मिले और जो, नौजवानों की टीम खड़ी कर सके। उत्तर प्रदेश में भाजपा के संगठन मंत्री नागेंद्र नाथ गडकरी के लिए बेहतर दांव साबित हो सकते हैं। नागेंद्र नाथ संघ के प्रचारक हैं। उनके समय में ही विद्यार्थी परिषद राज्य के हर विश्वविद्यालय में प्रभावी स्थिति में पहुंची। और, परिषद-कैडर के प्रत्याशियों को पिछले विधानसभा चुनाव में आजमाने की उन्होंने काफी कोशिश पिछले विधानसभा चुनाव में की भी थी। लेकिन, बसपा की सोशल इंजीनियरिंग और भाजपा के नेताओं की आपसी मारामारी में अपेक्षित परिणाम नहीं निकल सका।


उत्तर प्रदेश से भी बड़ी चुनौती गडकरी के लिए महाराष्ट्र में होगी। क्योंकि, महाराष्ट्र में जाकर भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को शिवसेना जैसी क्षेत्रीय पार्टी के पीछे चलना पड़ता है। यही वजह है कि मुंबई हमले और उत्तर भारतीयों पर राज ठाकरे के हमले के बावजूद भाजपा के कमल पर कांग्रेस का हाथ भारी पड़ गया। अच्छी बात ये है कि महाराष्ट्री की राजनीति को नजदीक से देखने वाले खूब जानते हैं कि गडकरी हमेशा महाजन-ठाकरे गठजोड़ के खिलाफ खड़े होकर मजबूत होते रहे। अब गडकरी को राज्य में गोपीनाथ मुंडे और विनोद तावड़े से संतुलन साधना होगा। और, साथ ही संकीर्ण ठाकरे छाया से भाजपा को मुक्त कराना होगा। गडकरी मराठी हैं और इसलिए कुछ समय पहले तक सिर्फ उत्तर भारत की मानी जाने वाली पार्टी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनकर महाराष्ट्र में मराठी-उत्तर भारतीय वोटबैंक को बेहतर तरीके से साध सकते हैं। 


भाजपा शासित राज्यों में सत्ता-संगठन तालमेल के लिए गडकरी को नए सिरे से योजना बनानी होगी। कर्नाटक में येदियुरप्पा का हाथ मजबूत करना होगा जिससे फिर कभी रेड्डी भाइयों की ब्लैकमेलिंग के फंदे में भाजपा न फंसे। गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में बेहद मजबूत मुख्यमंत्रियों की सत्ता में भाजपा संगठन खत्म न हो जाए इसकी चिंता भी गडकरी को करनी होगी। उत्तराखंड में कोश्यारी-खंडूरी की कलह अभी खत्म नहीं हुई है तो, राजस्थान में अब तक पार्टी के पास वसुंधरा राजे का विकल्प नहीं बन सका है।


इन सारी चुनौतियों के अलावा गडकरी के लिए संघ-भाजपा का संतुलन बनाए रखना भी कम बड़ी चुनौती नहीं होगी। वैसे, अभी भाजपा भले ही 116 सांसदों वाली और कई राज्यों में शासन वाली पार्टी हो लेकिन, सच्चाई यही है कि संघ कैडर लगभग भाजपा से दूरी बना चुका है। उसे वापस लाया जा सकता है इसके लिए कैडर को ये दिखना चाहिए कि संघ का कहा भाजपा अभी भी मानती है। ये खुद गडकरी की ताजपोशी से साबित भी हो चुका है। और, अब आने वाला समय ये तय करेगा कि सबसे कम उम्र सर संघचालक और सबसे कम उम्र भाजपा अध्यक्ष इतिहास में किस तरह से नाम दर्ज कराते हैं।



(ये लेख राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पृष्ठ पर छपा है)

Friday, November 27, 2009

अब कितनी सनसनी होती है


रात के करीब साढ़े दस बजे थे। दफ्तर की छत पर खुले में बैठकर हम खाना खाने जा ही रहे थे। पहला कौर उठाया ही था कि संपादक जी का फोन आ गया।
हर्ष, कोई गोलीबारी की खबर है क्या।
नहीं सर, ऐसे ही कुछ हल्की-फुल्की झगड़े की खबर थी मैंने देखा था लेकिन, शायद हमारे चैनल के लिहाज से खास नहीं थी।
नहीं देखो शायद कोई बड़ी गैंगवॉर है  या कोई आतंकवादी हमला है।
खाना छोड़कर मैं तुरंत भागकर न्यूजरूम में पहुंचा तो, हर चैनल पर वही खबर थी। कहीं पर दो माफिया गुटों के बीच भयानक गोलीबारी की खबर थी तो, कहीं कुछ और ... कोई भी चैनल एकदम से नहीं बता पा रहा था कि हुआ क्या है।


तब तक फिर संपादक जी का फोन आ गया था।
हर्ष, कौन-कौन है ऑफिस में।
अभी तो सर, गिने-चुने लोग ही बचे हैं। लगभग सब जा चुके हैं। क्या करना है सर
अच्छा देखो खबर पक्की हो जाए तो, फैसला लेते हैं नजर रखो। ये कोई बहुत बड़ी खबर हो गई है।


फोन रखते-रखते अचानक एक न्यूज चैनल पर फ्लैश आया - मुंबई पर हमला। लगा जैसे वज्रपात हो गया। फिर एक साथ गोलियों की तरह ब्रेकिंग न्यूज वाली पट्टी पर लगभग सभी न्यूज चैनलों पर मुंबई पर हमला। लियोपोल्ड कैफे पर गोलीबारी... सांताक्रूज में टैक्सी में धमाका ताज होटल में आतंकवादी घुसे ... ओबरॉय होटल में भी आतंकवादियों के घुसने की आशंका ...  ऐसे फ्लैश टीवी स्क्रीन से निकलकर जेहन को जकड़ रहे थे।


मैंने संपादक जी को फोन किया- सर, IBN7 लाइव कट कर लें क्या।
तुरंत कट करो, फिर देखते हैं। PCR के सारे लोग जा चुके थे। एंकर नहीं था। डेस्क पर भी मेरे अलावा एकाध लोग ही थे। सिर्फ टिकर पर एक साथी था। तुरंत फैसला लिया। IBN7 लाइव कट किया और ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी पर जैसे-जैसे खबरें आती गईं सूचना डालने लगे।


तब तक न्यूज चैनलों पर खबर  आ चुकी थी कि मुंबई CST पर आतंकवादी गोलीबारी करके भागे हैं। स्क्रीन पर हेमंत करकरे का गाड़ी से उतरकर बुलेटप्रूफ जैकेट और लोहे वाली टोपी पहने तस्वीरें दिखीं। ATS प्रमुख को स्क्रीन पर देखकर समझ में आ गया था ATS हरकत में आ चुकी है। भरोसा हुआ कि अब कुछ घंटे में मामला निपट जाएगा। फिर अचानक कुछ शांति सी लगी। लगा कि आतंकवादी घिनौनी वारदात को अंजाम देकर भाग चुके हैं। लेकिन, वो तूफान के पहले की शांति थी। लाल-लाल ब्रेकिंग न्यूज चमकी ATS प्रमुख हेमंत करकरे शहीद, मुंबई पुलिस के शूटर सालस्कर, डीआईजी अशोक काम्टे शहीद। तेजी में फ्लैश बनाते मेरे रोंगटे खड़े हो गए। खून खुद के शरीर पर दिखने लगा।


बुरी से बुरी खबरें अब आनी शुरू हुई थीं। पता चला ताज को आतंकवादियों ने कब्जे में कर लिया है। ओबरॉय आतंकवादियों के कब्जे में है। मुंबई CST पर भयानक खून खराबा आतंकवादियों ने किया है। नरीमन हाउस भी आतंकवादियों के कब्जे में चले जाने की खबर आई। लगा जैसे पाकिस्तान ने घुसकर हमें मसल दिया हो। खबर ये भी आई कि आतंकवादी पुलिस की एक गाड़ी लेकर उससे भी मौत बरसाते बहुत देर तक घूमते रहे। खैर, थोड़ी ही देर में खूनियों के मरीन ड्राइव पर मरने की खबर भी आई।


बॉसेज से बात की तो, तय हुआ कि सुबह आठ बजे से हम अपना बुलेटिन खोलेंगे। एक बिजनेस न्यूज चैनल सारी रात लाइव था। देश पर हमला जो हुआ था। सारी फ्लैश बनाते थक गया था। आंख में नींद पानी में बालू की तरह भरी हुई थी लेकिन, हमले की वजह से सोने का मन नहीं हो रहा था। सुबह की शिफ्ट आ गई थी लेकिन, आठ का बुलेटिन मैंने खुद ही बनाया था। पूरी रात की टाइमलाइन मुंहजुबानी याद हो गई थी। करीब ग्यारह बजे कमरे पर गया कि थोड़ा आराम कर लूं। लेकिन, फ्रेश होकर, नहा धोकर सोने की लाख कोशिश कामयाब नहीं हुई। एकाध घंटे में ही फिर से ऑफिस में था।


ह्रदयविदारक तस्वीरों को तेजी से चलने लायक बनाने के काम में मैं भी सबके साथ जुट गया। फिर तय हुआ कि हमारे अपने रिपोर्टर भी जाने चाहिए। स्वभावत: रिपोर्टर होने की वजह से वैसे तो, हमेशा रिपोर्टिंग ही करने की इच्छा होती रही। लेकिन, इस मौके पर तो ये इच्छा या यूं कहूं कि आतंकवादियों के खिलाफ जंग में अपनी सामर्थ्य भर शामिल होने की इच्छा जोर मार रही थी। लेकिन, न तो मैं बॉसेद से कह पाया और न ही वो मेरी इस इच्छा को भांप सके या भांपकर भी उन्हें लगाकि ये शो प्रोड्यूस करने, प्रोडक्शन के लिए इस समय ज्यादा उपयोगी है, मुझे नहीं भेजा गया। लगा क्या खाक पत्रकारिता कर रहे हैं हम। शायद इसी कोफ्त में मैंने 27 नवंबर 2008 को ये गुस्सा निकाला था।


खैर, सुबह तक के अखबारों में कलावा बांधे आतंकवादी की तस्वीरें क्या आईं। ATS प्रमुख के हिंदू अतिवादियों के शिकार होने की रात की अफवाह एक बार फिर जोर पकड़ने लगी। अच्छा हुआ जल्दी ही ये साफ हो गया। वरना तो, लोग करकरे की शहादत को हिंदू आतंकवाद, साध्वी प्रज्ञा और मालेगांव धमाकों की ATS जांच तक से जोड़ने लगे थे। फिर तो NSG, मार्कोस के जवानों के जिम्मे देश बचाने का काम आ चुका था। मुंबई की तीन महत्वपूर्ण इमारतों से कम से कम लोगों की जान जाए इसे समझते हुए कमांडो कार्रवाई शुरू हो गई थी। खैर, जवानों की जांबाजी के बीच टीवी की टीआरपी के खिलाड़ियों ने शुरू में जल्दी से जल्दी और कुछ हद तक लाइव तस्वीरें दिखाकर TRP बटोरने की जो कोशिश की उसने शायद आतंकवादियों को जवानों की पोजीशन बताने में भी मदद कर दी।


दुनिया के सबसे बड़े और कठिन इस तरह के आतंकवादी हमले को हमारे जवानों ने मुंहतोड़ जवाब दिया। होटलों, नरीमन हाउस में फंसे लोगों को बचाकर आतंकवादियों को मार गिराया। आतंकवादी घटना को रोक न पाने की नैतिक जिम्मेदारी थोपकर कांग्रेस ने विलासराव देशमुख को वहां से हटाकर केंद्र में बड़ा मंत्री बना दिया। अच्छा हुआ कि रस्मी कहिए, TRP की मजबूरी कहिए, पत्रकारिता कहिए या आप जो भी कहिए- देश के जख्म को साल भर बाद फिर से टीवी चैनलों ने, मीडिया ने थोड़ा कुरेदा तो सही। टीवी पर देखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 26 नवंबर 2008 को याद करके। 26, 27 नवंबर की काली रात याद करके। ये दहशत मुंबई में ऐसे भर गई है कि हल्का सा खटका भी आतंकवादी हमला लगता है। रोजी-रोटी की मजबूरी है जिसे हम मुंबई SPIRIT कहते हैं और मुंबई की जिंदादिली समझते हैं लेकिन, बताइए ना ऐसी सरकारों में हम क्या कर सकते हैं गोली खाकर सिवा जिंदादिल रहने के। अच्छा है कि टीवी है, अच्छा है कि टीवी TRP के फेर में या फिर सनसनी फैलाने के लिए जख्म याद कराती रहती है वरना तो, सरकारें तो चाहती हैं जनता गोली खाकर सो जाए या फिर बची रहे तो, भी सोती रहे बस उनकी सत्ता चलती रहे। देश जाए भाड़ में ...

मैं जब ये पोस्ट लिख रहा था तो, रात 12.27 बजे पत्रकार मित्र अमोल परचुरे का ये संदेश आया
A year after 26/11, the safest person in the country is, ironically ...


kasab

Monday, November 23, 2009

ऐसा चमत्कार कैसे हो जाता है

हिंदी-अंग्रेजी का व्यवहार-बोलचाल हमें गजब का बदल रहा है। हिंदी के जिन शब्दों, क्रिया कलापों को हम हिंदी में सुनना नहीं चाहते वही अंग्रेजी भाषा में तब्दील होते ही अरुचिकर नहीं लगता। और, ये ऐसे घुस रहा है हमारे घर, परिवार, समाज में कि जाने-अनजाने हम भी इसका हिस्सा बनते जाते हैं। गालियों का तो है ही। बेहद आधुनिक दिखने वाले लड़के-लड़कियां ऐसे अंतरंग शब्दों को अंग्रेजी में सरेआम प्रयोग कर लेते हैं जिसे हिंदी में कह दिया जाए तो, असभ्य, जाहिल, जंगली जाने क्या-क्या हो जाएं। लेकिन, अंग्रेजी में उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करके स्मार्ट।


हिंदी की टट्टी गंदी लगती है उसमें से बदबू भी आती है लेकिन, अंग्रेजी की potty होते ही उसमें की गंध और गंदगी पता नहीं कहां गायब हो जाती है। और, हम इन शब्दों को बोलते वक्त भाव भी चेहरे पर ऐसे ही लाते हैं जाने या अनजाने। कैसे हो जाता है ये चमत्कार। हिंदी-अंग्रेजी किसी में भी बताइए ना ...

Sunday, November 22, 2009

ये हिंदी की लड़ाई थी ही नहीं


इसे हिंदी की लड़ाई कहा जा रहा था। कुछ तो हिदुस्तान की लड़ाई तक इसे बता रहे थे। देश टूटने का खतरा भी दिख रहा था। लेकिन, क्या सचमुच वो हिंदी की, हिंदुस्तान की लड़ाई थी। दरअसल ये राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी।


अब सोचिए भला देश अबू आजमी को लेकर संवेदनशील इसलिए हो गया कि हिंदी के नाम पर आजमी ने चांटा खाया। सोचिए हिंदी की क्या गजब दुर्गति हो गई है कुछ इधर कुआं-उधर खाई वाले अंदाज में। उसको धूल धूसरित करने खड़े हैं राज ठाकरे और उसको बचाने खड़े हैं अबू आजमी। जबकि, सच्चाई यही है कि न तो राज ठाकरे की हिंदी से कोई दुश्मनी है न अबू आजमी को हिंदी से कोई प्रेम।


ये दो गंदे राजनेताओं की अपनी जमीन बचाने के लिए एक बिना कहा समझौता है जो, समझ में खूब ठीक से आ रहा है। समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।



हिंदी न इनकी बेहूदी हरकतों से मिटेगी न बचेगी। कभी-कभी कुछ सरकारी टाइप के लगने वाले बोर्ड बड़े काम के दिखते हैं। रेलवे स्टेशन पर हिंदी पर कुछ महान लोगों के हिंदी के बारे में विचार दिखे जो, मुझे लगता है कि जितने लोग पढ़ें-सुनें बेहतर। उसमें सबसे जरूरी है भारतीय परंपरा के हिंदी परंपरा के मूर्धन्य मराठी पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का हिंदी पर विचार। पराड़कर जी की बात साफ कहती है हिंदी हमारे-आपके जैसे लोगों की वजह से बचेगी या मिटेगी। बेवकूफों के फेर में मत पड़िए।

Wednesday, November 18, 2009

ये सोचकर करना-होना जरा मुश्किल था

कुछ बदलाव ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत पहले से सोचकर करना शायद ही संभव हो। यहां तक कि कई बार जो बुराई दिख रही होती है उसी में छिपे बदलाव कुछ मायनों में बड़े सुखद होते हैं। मैं ये बदलाव महसूस तो पहले भी कर रहा था। लेकिन, अभी जब बिटिया के साथ इलाहाबाद में था तो, उत्तर प्रदेश के राज्य-शहर के लिए इस अच्छे बदलाव को समझा। पहले भी मैं इलाहाबाद के रिक्शा बैंक की कहानी बता चुका हूं।



अल्लापुर के साकेत हॉस्पिटल में हमारी बिटिया हुई। रोज शाम को मैं हॉस्पिटल के सामने से शानदार पीली बसें गुजरते हुए देखता था। शंभूनाथ इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी। शानदार पीली बसों पर ऐसे ही यूनाइटेड, वाचस्पति, पुणे, एलडीसी, मदर टेरेसा और जाने कितने नामों का बैनर लगाए बच्चों को उनके घर छोड़ने ये बसें आती हैं। ये बच्चे इंजीनियरिंग, मेडिकल, पैरामेडिकल, फार्मेसी, मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं। और, वो भी अपने शहर में रहकर। इन्हें अब दक्षिण भारत या देश से बाहर नहीं जाना है।


वैसे तो, शिक्षा के निजीकरण की बुराई का हल्ला ही इस पर होता है। और, ये सही भी है कि कॉलेज, इंस्टिट्यूट खोलना बाकायदा कमाई के दूसरे धंधे जैसा ही हो गया है। मायावती की सरकार हो या फिर उसके पहले की मुलायम सरकार बाकायदा रेट तय हैं कि बीएड, MBA, MBBS, BDS, BHMS, इजीनियरिंग, पैरामेडिकल कॉलेज के लिए कितना घूस खिलाना होगा। लेकिन, इस भ्रष्टाचार के बीच अच्छी बात जो निकलकर आई वो, ये कि इलाहाबाद शहर में ही करीब 19 इंजीनियरिंग कॉलेज हो गए हैं। और, दक्षिण भारत के इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेजों में दाखिले जैसा डोनेशन भी नहीं देना पड़ रहा है।


और, चूंकि इलाहाबाद के बच्चों को उनकी मनचाही शिक्षा उनके शहर में ही मिल रही है तो, उनका खर्च बचने के साथ उन्हें शहर भी नहीं छोड़ना पड़ रहा है। सरकारी राजस्व भी बढ़ रहा है। बच्चे पढ़ अपने शहर में रहे हैं तो, विस्थापन (MIGRATION) के खतरनाक दुष्परिणाम से भी वे बचेंगे। राज ठाकरे जैसों को लुच्चई का कम मौका मिलेगा। पढ़ाई पुणे या बुंगलुरू में होती है तो, बच्चा भी उसी के आसपास नौकरी खोजने लगता है। इलाहाबाद में परिवार में कुछ प्रयोजन पर ही साथ रह पाता है। अब यहां आसपास थोड़े कम पैसे की नौकरी भी वो कर सकेगा। इतना स्किल्ड वर्कर जब इलाहाबाद में ही मिलेगा तो, शायद यहां लगी कंपनियां बाहर से लोगों को नहीं बुलाना चाहेंगी और कुछ नई कंपनियां भी इधर का रुख करें।


80 के दशक में देश के विश्वविद्यालयों और सरकार संस्थानों के बाद बचे लोग रूस डॉक्टर, इंजीनियर बनने चले जाते थे। इस मौके को दक्षिण भारत और फिर महाराष्ट्र ने अच्छे से समझा। थोक के भाव में वहां इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज खुल गए। और, जनसंख्या बहुल उत्तर भारत के ही राज्यों  के बच्चे वहां मोटी फीस देकर पढ़ते थे। माता-पिता की गाढ़ी कमाई का पैसा वहां चला जाता था। विस्थापन के चलते यहां के घरों में रहने वाले लोग कम बचते थे और बच्चा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र में जाकर वहां की प्रॉपर्टी के रेट भी बढ़ाता था।


अब बस जरूरत इस बात की है कि जहां ये प्रतिभा तैयार हो रही है। वहीं पर उसे कमाने के मौके मिल जाएं। वैसे, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार से ऐसी कोई लगाना बेवकूफी हो होगी। लेकिन, कई बार बदलाव बिना किसी सरकार और लोगों की मंशा के हो जाते हैं। वो अपने निजी लालच में समाज का कुछ भला कर जाते हैं। इसका उदाहरण ऊपर मैं दे ही चुका हूं। उम्मीद करता हूं ये बदलाव होगा और तेजी से होगा। ये बीमारू राज्य में शामिल उत्तर प्रदेश को बेहतर कर सकता है। क्षेत्रीयता की राजनीति करने वाले लोगों को सार्थक जवाब भी यही होगा।

Saturday, November 14, 2009

ढोंगी बाबाओं के अमीर भक्त

सत्यसाईं बाबा के चरणों में गिरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की तस्वीरें ज्यादा दिन नहीं हुआ जब मीडिया में लगातार छाई हुईं थीं। मेरे मन में इसे लेकर कुछ सवाल उठे थे। वैसे सत्यसाईं के चरणों में गिरने वालों में अशोक चव्हाण ही नहीं थे। ICICI बैंक के चेयरमैन के वी कामत, रिलायंस के पी एम एस प्रसाद और जाने कितने बड़े-बड़े लोग थे।



फिर जब मैंने थोड़ा जोर देकर सोचने की कोशिश की तो, मुझे दिखा कि इस साईं बाबा के तो कोई कम पैसे वाले भक्त मुझे दिखते ही नहीं। अभी इलाहाबाद में हूं तो, ऐसे ही घूमते शहर के सबसे पॉश सिविल लाइंस की बाजार में शहर की सबसे ऊंची इमारत इंदिरा भवन से भी बड़े सत्यसाईं दिख गए। 9 मंजिले इंदिरा भवन से भी ऊंचे साईं का कटआउट भी चमत्कार जैसा ही दिख रहा था। वैसा ही ढोंगी चमत्कार जिस चमत्कार का जाने कितनी बार अंधनिर्मूलन संस्था और टीवी चैनलों ने पर्दाफाश किया है।



थोड़ा आगे बड़े तो, सिविल लाइंस वाले हनुमान मंदिर वाले चौराहे पर ही सत्यसाई के कार्यक्रम का पूरा विवरण मिला तो, पता चला कि सत्यसाईं 84 साल के हो रहे हैं। उसी होर्डिंग से ये भी पता चला कि सत्यसाईं के जन्मदिन का कार्यक्रम 23 नवंबर के शहर के महंगे रिहायशी इलाकों में  से एक अशोक नगर में है। जाहिर है इन बाबा को शायद इलाहाबाद के सिविल लाइंस और अशोक नगर से बाहर के भक्त चाहिए भी नहीं। क्योंकि, इन भक्तों को बाबा चमत्कार से सोने की चेन निकालकर आशीर्वाद देते हैं तो, ये बड़े वाले भक्ते हुंडियां बाबा के चरणों में डाल देते हैं। अब बेचारे असर साईं के भक्त तो शिरडी में उनके दर्शन से ही चमत्कार की उम्मीद में रहते हैं। मैं भी शिरडी गया हूं। किसी तस्वीर में शिरडी वाले साईं बाबा तो बहुत अच्छे कपड़ों में नहीं दिखे। हां, उनके चमत्कार दूसरे बताते अब भी मिल जाते हैं। ये पुट्टापरथी वाले सत्यसाईं लकदक कपड़ों में रहते हैं अपने चमत्कार किसी जादूगर की तरह खुद दिखाते हैं। अब यहां तो मीडिया इनकी तारीफ भी नहीं करता बल्कि, कपड़े उतारता रहता है फिर भी जाने क्यों ...

Friday, November 13, 2009

इलाहाबाद का रिक्शा बैंक


उत्तर भारत से तरक्की के विचार, आइडियाज हमेशा देश की तरक्की के काम आते रहे हैं। लेकिन, इसने एक बुरा काम ये किया कि उत्तर भारत के राज्य खासकर उत्तर प्रदेश-बिहार बस विचार भर के ही रह गए। और, यहां के लोग विचार और श्रम के साथ तालमेल नहीं बिठा सके। लेकिन, अब धीरे-धीरे यहां से निकलकर बाहर विचार का प्रयोग करने के बजाए लोग यहीं प्रयोग कर रहे हैं। और, इस पर तो शायद ही किसी को संदेह हो कि उत्तर भारत की तरक्की के बिना देश की तरक्की संभव नहीं है। बिटिया की वजह से मैं भी इलाहाबाद में हूं। जिस हॉस्पिटल में बिटिया हुई है उसी के सामने किसी को छोड़ने के लिए खड़ा था कि एक नए किस्म का रिक्शा देखकर उसे समझने की जिज्ञासा मन में जोर मार गई। ये रिक्शा थोड़ा ज्यादा सुविधाजनक है दूसरे रिक्शों से ऊंचा है और इसमें जगह भी ज्यादा है।



मैंने उस रिक्शे वाले को रोका और, पहले तो, आगे-पीछे से उस रिक्शे की तस्वीरें अपने मोबाइल कैमरे से उतार लीं। फिर मैंने उससे पूछा तो, चौंकाने वाली बात पता चली। सिर्फ 25 रुपए रोज पर वो रिक्शे का मालिक बन गया था। जबकि, रिक्शे की कीमत थी करीब तेरह हजार रुपए।


इलाहाबाद के जारी गांव के मोहित कुमार ने मुस्कुराते हुए बताया कि सिर्फ फोटो और 500 रुपए जमाकर रिक्शा बैंक से उन्हें ये रिक्शा मिल गया है। मैंने कहा 25 रुपए रोज। तो, मोहित ने तुरंत बताया कि 25 रुपए रोज में हम इस रिक्शे के मालिक बन रहे हैं जबकि, बगल में खड़ा साधारण रिक्शा जो, दस हजार रुपए का आता है इसके लिए 35 रुपए रोज का किराया देना पड़ता है। जैसा आप भी देख सकते हैं इस रिक्शे में मोहित को सर्दी-गर्मी-बारिश से भी बचत होती है। आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक की ओर से मोहित को दिया गया रिक्शा नंबर 135 है और, कई रिक्शे के मालिक इसी तरह तैयार हो रहे हैं सिर्फ 25 रुपए रोज पर।



दिन में घूमते-घूमते 259 नंबर का रिक्शा भी मिल गया। उसी रिक्शे वाले ने बताया करीब 500 ऐसे रिक्शे शहर में चल रहे हैं। पता ये भी चला कि पंजाब नेशनल बैंक और इलाहाबाद बैंक आर्थिक अनुसंधान रिक्शा बैंक के जरिए जरूरतमंदों को रिक्शा मालिक बनने में मदद कर रहा है। रोज के रिक्शे के किराएदार से किराए से भी कम पैसे में करीब डेढ़ साल में रिक्शे के मालिक बन रहे हैं।



सिर्फ रिक्शा ही नहीं ट्रॉली भी मिल रही है। बढ़िया लाल-पीले रंग में रंगी। विचारों की धरती पर रंगीन विचार के साथ रंगीन रिक्शे-ट्रॉली भी कम कमाने वालों की जिंदगी रंगीन कर रहे हैं।

Thursday, November 12, 2009

कहिए कि इसी वजह से गरीब रथ इतनी बची हुई है

गरीब रथ की दुर्दशा पर मेरी कल की पोस्ट पर विनीत ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया कि हमारे जैसे लोग गरीबों का हक मार रहे हैं। विनीत की टिप्पणी मैं यहां जस का तस चिपका रहा हूं।

"इस ट्रेन के बारे में आपको इस बात पर भी लिखना चाहिए था कि किस दर्जे के लोगों के लिए ये ट्रेन लायी गयी थी औऱ किस दर्जे के लोग इसमें बैठते हैं। वैसे तो दुकान-बाजार-हाटों में किसी को कुछ कह दे तो तुरंत अपनी औकात बताने में लग जाता हैं लेकिन गरीब रथ में बैठने के लिए अपनी औकात तुरंत गिरा देते हैं। मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं जो कि पेशे से लेक्चरर हैं,वकील हैं,सम्पन्न घरों से आते हैं लेकिन गरीब रथ में यात्रा करते हैं और वो भी शान से। असुविधा होने पर आपकी तरह गरियाते हैं। एक मिनट के लिए भी नहीं सोचते कि हम ऐसा करते हुए किसी की हक मार रहे हैं।"


अब हमने जिस दिन गरीब रथ से यात्रा की। उसी दिन की बात करते हैं। बहुत संपन्न तो लोग मुझे गरीब रथ में यात्रा करते नहीं दिखे। हम जैसे बहुत संपन्न तो नहीं लेकिन, जरूरत भर के पैसे वाले लोगों के गरीबों का हक मारकर गरीब रथ में सफर के बावजूद कई सीटें खाली थीं। कोई गरीब कम से कम इलाहाबाद के रास्ते तक तो अपना हक यानी गरीब रथ की सीट मांगने नहीं आया। राजेंद्रनगर तक में कोई मिला हो तो, पता नहीं। विनीत बाबू ये भी बता दीजिए कि दिल्ली से इलाहाबाद के लिए कौन सा गरीब 469 रुपए दे पाएगा जिसकी आप बात कर रहे हैं। क्योंकि, वो गरीब तो भइया किसी भी ट्रेन से जनरल डिब्बे में 160 रुपए में सवारी करने के लिए पुलिस के डंडे खाकर घंटों लाइन में लगा रहता है। और, ये कहिए कि हम-आप जैसे लोग गरीब रथ में सफर कर लेते हैं इसलिए गरीब रथ में कम से कम अंदर कुछ सुविधाएं बची हैं वरना पूरी ट्रेन पर जब काम भर की बुकिंग न होती और रेवेन्यू न मिलता तो, इसके हाल का अंदाजा लगा सकते हैं आप।


खैर, विनीत ने टिप्पणी की थी इसलिए ये थोड़ी सी बात मुझे लिखनी पड़ी। दरअसल तो, हमारा इरादा गरीब रथ के हमारे इलाहाबाद तक के यात्रियों के बारे में लिखने का था। बहुत अरसे बाद ये हुआ कि यात्रा के दौरान ऐसे सहयात्री मिले कि हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर खरीदी नई इंडिया टुडे निकालने की फुर्सत ही नहीं मिली।



गरीब रथ की सवारी शुरू हुई तो, लगा कि ट्रेन के बाहर से जो चिरकुट खयाल ट्रेन की हालत देखकर दिमाग में जमा है वो, सफर बुरा बना देगा। अंदर घुसे तो, एक भाईसाहब लैपटॉप खोले उस पर जुटे थे तभी एक भाईसाहब कुली के साथ घुसे। और, सीट नंबर चेक करते कुली को बोला डिब्बा सीट के नीचे डाल दो। लेकिन, माइक्रोवेव ओवन का हृष्ट-पुष्ट डिब्बा भला सीट के नीचे कैसे जाता। बस उन्होंने खट से सीटों के बीच में खाने का सामान रखने के लिए बनी छोटी टेबल के नीचे उसे घुसेड़ दिया। अब हाल ये हो गया कि सीट पर किनारे बैठे लैपटॉप युक्त सज्जन को पैर बाहर लटकाकर बैठना पड़ा।


ब्लॉगर मन चंचल हुआ तो, मैंने माइक्रोवेव ओवन की तस्वीर उतार ली। माइक्रोवेव ओवन के रखने से त्रस्त पैर बाहर लटकाए बैठे बालक ने तुरंत कहाकि ऐसे लीजिए ना कि मेरा पैर भी आए। जिससे लगे कि ट्रेन में इस तरह के सामान लेकर चलने से दूसरे यात्रियों को कितनी परेशानी होती है। मैंने वो भी तस्वीर मोबाइल कैमरे से ले ली। बाद में पता चला कि कष्ट में बैठे बालक का नाम सौरभ था जो, सहजयोग कराने वाली किन्हीं निर्मला माता का भक्त था। सफर खत्म होते-होते ये भी साफ हो गया कि वो, भक्त क्या दूसरों को भी निर्मला माता के जरिए भक्त बनाने की कोशिश करने वाला सहजयोगी गुरु था।


माइक्रोवेव ओवन घर ले जा रहे सज्जन थे विशाल। एचआर कंसल्टेंसी फर्म चलाते हैं। नोएडा, इलाहाबाद में ऑफिस खोल रखा है। और, शुरू में तो, सहजयोगी भाईसाहब और हमें दोनों को ही विशाल का पैर रखने की जगह में माइक्रोवेव ओवन ठूंस देना जमा नहीं। लेकिन, बाद की यात्रा में थोड़ा परिचय हुआ तो, विशाल का माइक्रोवेव उतनी मुश्किल करता नहीं लगा। समझ में आया कि सब मन:स्थिति का मसला है। चार मित्र एक सीट पर बैठकर पूरी रात गुजार देते हैं और एक अजनबी का दो मिनट के लिए भी सीट पर बैठना बुरा लग जाता है। खैर, विशाल बाबू थोड़ा बहुत छोड़ ज्यादातर अपने फोन पर ही व्यस्त थे।


सफर को यादगार बनाया एक और सहयात्री रजनीश और सहजयोगी सौरभ के वार्तालाप ने। रजनीश घोर स्वयंसेवक हैं। ऐसे कि हर बात पर वो संघ के जरिए राष्ट्रनिर्माण की बात बताने से नहीं चूकते हैं। और, अच्छी बात ये थी कि खुद अमल भी करते हैं। स्वदेशी व्यवहार में अपना रखा है। सहजयोगी ये भी दावा कर रहा था कि एक जमाने में वो भी संघी था लेकिन, अब उसे सारी मुश्किलों से निकालने का सिर्फ एक रास्ता दिख रहा है वो, है कुंडलिनी जागरण यानी निर्मला माता का आशीर्वाद। लगे हाथ सहयोगी ने ये भी बताया कि दुनिया भर में निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण से लाखो लोग फायदा उठा चुके हैं। वो, तो ये भी दावा कर रहा था कि पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी के असाध्य रोग का इलाज निर्मला माता के कुंडलिनी जागरण के जरिए ही हुआ था। और, इसी के बदले रेड्डी साहब ने निर्मला माता को दिल्ली में महंगी जमीन उपहार स्वरूप दे दी थी।



हम सभी में सबसे कम उम्र के सहजयोगी ने सफर खत्म होते-होते स्वयंसेवक को भी सहजयोग का एक डोज दे ही दिया। खुद को ऑस्ट्रेलिया में काम करने वाला और बड़े-बड़े संपर्कों के बारे में बताकर सहजयोगी ने थोड़ा बहुत प्रभाव पहले ही जमा लिया था। ये अलग बात है कि सहजयोग की उस शॉर्ट ट्रेनिंग के बाद सहजयोगी को तो, स्वयंसेवक के हाथ से ऊष्मा निकलती महसूस हो रही थी लेकिन, खुद स्वयंसेवक ऐसी कोई ऊष्मा महसूस नहीं कर पा रहा था। दोनों में इस बात पर भी बहस हो गई कि कलियुग है या घोर कलियुग। इस बहस में स्वयंसेवक बेचारे ऐसे फंसे कि झोले से निकालकर रखी किताब WHO WILL CRY WHEN WE DIE भी धरी की धरी रह गई।


इस सब बहस में हमसे भी थोड़ा कम सक्रिय एक डॉक्टर साहब हमारे पांचवें सहयात्री थे। डॉक्टर सिद्दिकी साहब इलाहाबाद के करेली मोहल्ले के थे और बनारस में मेडिकल अफसर हैं। सिद्दिकी साहब के रहने से ये मदद जरूर मिली कि चारों पैगंबरों के बारे में थोड़ा ज्ञान और बढ़ा। वैसे बहस हिंदु, मुस्लिम के अलावा इसाइयों तक भी गई थी। और, उनकी दोनों धाराओं पर भी ज्ञानगंगा बही। काफी कुछ बातें ऐसी थी जो, एकदम से मेरे सिर के ऊपर से गुजर जा रही थी। लगा कि इसीलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि घुमक्कड़ी से बढ़िया अनुभव कुछ नहीं। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा।

Wednesday, November 11, 2009

अब लगने लगा है कि गरीब रथ है

दिल्ली से राजेंद्र नगर पटना को जाने वाली राजधानी नई दिल्ली स्टेशन से छूटती है और करीब इसी समय शाम को चार बजकर पचास मिनट पर दिल्ली से राजेंद्र नगर पटना को जाने वाली गरीब रथ हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से छूटती है। राजधानी में टिकट वेटिंग था और गरीब रथ में आसानी से टिकट मिल गया तो, तुरंत मैंने आरक्षण करा लिया। लेकिन, स्टेशन से लेकर ट्रेन में बैठने तक गरीब रथ के बुरे हाल का नजारा साफ दिखा।



लालू प्रसाद यादव के रेलमंत्री न रहने से बिहार का कितना नुकसान रेलगाड़ियों के विषय में हुआ ये राजनीतिक बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन, लालू जी के जाने का सबसे बुरा असर पड़ा है तो, उनके सबसे पसंदीदा गरीब रथ प्रोजेक्ट पर। हजरत निजामुद्दीन से राजेंद्र नगर पटना जाने वाली गरीब रथ प्लेटफॉर्म नंबर2 पर आकर लगी तो, लगा कि कौन सी गंधौरी ट्रेन आकर खड़ी हो गई है।



धूल से सनी प्लेट पर पढ़कर यकीन करना पड़ा कि ये गरीब रथ ही है। दरअसल पूरी ट्रेन पर ही धूल-गंदगी की इतनी परतें चढ़ गईं थीं कि लग रहा था महीनों से ट्रेन की सफाई नहीं हुई है। डिब्बों के शीशे तो परादर्शिता का अपना स्वभाव ही एकदम भूल चुके थे।




ट्रेन में ही बैठने पर पता चला कि इस ट्रेन के कुछ डिब्बों में एयर कंडीशनर का पानी भी चूता रहता है। और, लालू की दी हुई दुर्गति के शिकार यात्री गरीब रथ में अभी भी हो रहे हैं कि किनारे की सीटें दो से बढ़कर तीन हो गई हैं। और, ज्यादा सीटें ठेलने के चक्कर में सीटों की संख्या रिजर्वेशन टिकट पर पड़ी संख्या से भी मेल नहीं खातीं। बस भला इतना है कि करीब आधे दाम में राजधानी जैसी सुविधा (खाना-कंबल-चद्दर छोड़कर) गरीब रथ अभी भी दे रही है और टिकट एक दिन पहले भी मिल गया।




अब ये जिस स्टेशन से रवाना हुई उस हजरत निजामुद्दीन स्टेशन का भी हाल जरा देख लीजिए। ये साफ-सफाई पर गर्व करने वाला गंदगी से चमकता बोर्ड आप देख चुके ना। अब देखिए स्टेशन पर इस बोर्ड के लिखे को कीचड़ में मिलाती ये तसवीरें।

बिटिया के बहाने


हमारी बिटिया हुई तो, थोड़ा सा एक जो समाज में बेटा होने की खुशी होती है उससे थोड़ी सी कम खुशी के साथ लोग मिलते दिखे। जमकर जो खुश भी थे वो, लक्ष्मी के आने की बधाई दे रहे थे और साथ ही ये भरोसा भी कि अरे पहली लड़की हो या लड़का कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छी बात ये कि हमारा पूरा परिवार और ज्यादातर मित्र, रिश्तेदार प्रसन्न थे। हां, बीच-बीच में कोई शुभचिंतक बोलता कि पैसा खर्चा करावै आइ ग। साथ ही कोई ये कहके बात बनाने की कोशिश करता कि लक्ष्मी आई तबै तो जाई। ज्यादातर लोग कह रहे थे कि पहली बिटिया शुभ होती है। साथ ही ये भी लड़की पिता पर जाए तो, और भाग्यवान होती है।



जिस दिन बिटिया हुई उसके दूसरे दिन हमारी बड़ी दीदी कर्नलगंज इंटर कॉलेज से देर से आईं। थकी सी आईं दीदी ने बताया बेटियों को बचाने के लिए रैली निकाली गई थी। दूसरे दिन के अखबारों में खबर थी बेटियों ने उठाई बेटियों को बचाने की आवाज हेडलाइन के साथ ये खबर और तस्वीर छपी थी। ये सब सुखद संकेत हैं। समाज किस तरह से बदल रहा है। बेटियां बोझ नहीं रहीं। हां, ज्यादातर लोग ये जरूर चाहते हैं कि एक बेटा भी हो जाए तो, बढ़िया। थोड़ा और वक्त गुजरेगा तो, शायद समाज का ये दबाव भी घट जाएगा।



हमारी बिटिया के लिए जो पहला कपड़ा तोहफे में आया। उसके डिब्बे पर बेटियों को बचाने की अपील के साथ मुस्कुराती बिटिया छपी थी। साथ में पोलियो ड्रॉप की दो बूंद से बच्चे को जिंदगी भर के लिए स्वस्थ रखने की नसीहत भी। पोलियो मुक्त भारत के निर्माण की नसीहत देने वाला डिब्बा अच्छा लगा।

Monday, November 09, 2009

निजी जिंदगी की अहम पदोन्नति

ये बड़ा प्रमोशन है। हर प्रमोशन की तरह इसमें भी जिम्मेदारी, अधिकार सब बढ़ गए। हमारी बिटिया आ गई है। अभी इलाहाबाद में ही हूं। अभी सिर्फ तस्वीरें डाल रहा हूं







Friday, November 06, 2009

अमर प्रभाष जोशी


इलाहाबाद में हूं और खबरों से कटा हुआ हूं इसलिए अभी थोड़ी देर पहले प्रभाष जी के न रहने की खबर पता चली। निजी मुलाकात का कभी मौका नहीं लगा था। लेकिन, ये खबर पता चली तो, लगा जैसे कुछ शून्य सा हो गया हो हिंदी पत्रकारिता में कौन भरेगा इस शून्य को। अभी कुछ दिन पहले ही तो ये 73 साल का शेर आंदोलनों में दहाड़ रहा था। बड़-बड़ी बहसों को जन्म दे रहा था। एक आंदोलनकारी संपादक शांत हो गया।


हमारे जैसे लोगों के लिए प्रभाष जोशी उम्मीद की ऐसी किरण दिखते थे जिसे देख-सुनकर लगता था कि पत्रकारिता में सबकुछ अच्छा हो ही जाएगा। अखबारों के चुनावों में दलाली के मुद्दे को करीब-करीब आंदोलन की शक्ल इसी शख्स की वजह से मिल गई थी। मुझे नजदीक से उनको सुनने का मौका लगा था कई साल पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघव भवन में। तब भी वो आंदोलन की ही बात कर रहे थे। छात्रों को व्यवस्था, समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए तैयार कर रहे थे।


जनसत्ता में नियमित स्तंभ कागद कारे और आंदोलनकारी अखबार जनसत्ता के आंदोलनकारी संपादक के तौर पर प्रभाष जी पत्रकारिता में अमर हो गए हैं। बस मुश्किल ये है कि चश्मा लगाए देश के किसी भी कोने के हर आंदोलनकारी मंच पर पत्रकारों-समाज को सुधारने-बेहतर करने के लिए बेचैन शख्स नहीं दिखेगा। नमन है पत्रकारिता के इस शीर्ष पुरुष को

Sunday, November 01, 2009

फिर से पूछ रहा हूं घूरा बनने में कितना दिन लगता है

2000-2001 में इलाहाबाद महाकुंभ में रिपोर्टिंग के समय दुनिया भर के बाबाओं और साधुओं की हकीकत देखी थी। ऐसा नहीं है कि सब ढोंगी ही थे। कई संत ऐसे भी थे जिन्हें देखकर-मिलकर उनकी संगत का मन होता था। लेकिन, बड़ी संख्या ऐसे ही बाबाओं  की थी जिनके लिए प्रयाग के महाकुंभ की रेती पर उनका आश्रम विदेशी-देसी मालदार भक्तों को बढ़ाने का जरिया भर था। मुझे याद है कि रिपोर्टिंग के दौरान एक रमेश तांत्रिक के आश्रम में हम लोग पहुंच गए थे। अब मुझे नहीं पता कि वो, तांत्रिक होने का दावा करने वाला बाबा क्या कर रहा है। लेकिन, उस समय वो सिर्फ और सिर्फ विदेशियों को नशे की पिनक में रेती पर लोटने का आनंद देकर उनसे ज्यादा से ज्यादा वसूली का तंत्र फैला रहा था। हम लोगों को वो ज्यादा सम्मान इसलिए भी दे रहा था कि उसका फंडा एकदम साफ था। उसने कुटिल मुस्कान के साथ कहाकि देखो अखबार-टीवी से विदेशी भक्त नहीं मिलेंगे। विदेशी भक्त तो इंटरनेट से मिलेंगे।


उस समय मैं http://www.webdunia.com/ के लिए रिपोर्टिंग कर रहा था। आपको लग रहा होगा अचानक मुझे करीब 10 साल पहले की घटना क्यों याद आ रही है। दरअसल इसके याद आने के पीछे एक वजह ये भी है कि इसी समय एक वीडियो मैंने देखा था जिसमें सत्यमसाईं बाबा के चमत्कारों की असलियत बताई गई थी। दिखाया गया था कि किस तरह से सत्यसाईं लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। आज अचानक जब मैं आज इंदिरा गांधी के विशेष कार्यक्रमों की खोज में टीवी पर पहुंचा तो, खबर दिखी किस तरह से ढोंगी सत्यसाईं के चरणों में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के साथ पूरी सरकार झुकने को बेताब है। मुझे लगा कि क्या तमाशा है चव्हाण और उनकी पूरी सरकार कैसे पूरे राज्य को एक ऐसे व्यक्ति का अअंधभक्त बनने के लिए प्रेरित कर सकती है जिसके चमत्कारों की पोल देसी-विदेशी, हिंदी-अग्रेजी चैनल जाने कितनी बार खोल चुके हैं।


अब अगर अशोक चव्हाण को उनके मुख्यमंत्री बनने में बाबा का चमत्कार दिख रहा है तो, इसके लिए सत्यसाईं बड़े अपराधी साबित होंगे क्योंकि, चव्हाण को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया गया कि तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई और देश की शान ताज पर हमले को भांप-समझ नहीं पाए। उसके बाद जो, घटनाक्रम बने उस शर्म-छीछालेदर से बचने के लिए कांग्रेस को चव्हाण को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। चव्हाण नेताओं में नौजवान थे। मैं उस समय मुंबई में ही था अच्छा लगा था। लेकिन, इस तरह से अशोक चव्हाण सत्यसाईं के चरणों में लोट जाएंगे अंदाजा न था। टीवी की फुटेज में कांग्रेस-एनसीपी सरकार के ढेर सारे मंत्रियों के अलावा पुराने गृहमत्री शिवराज पाटिल भी दिख रहे थे। पता चला कि मुख्यमंत्री के सरकारी निवास 'वर्षा' पर अशोक चव्हाण सत्यसाईं का चरण पूजन करेंगे।


अशोक चव्हाण ने इससे पहले बाबा को बांद्रा वर्ली सी लिंक भी घुमाया था ताकि, पुल को बाबा का 'आशीर्वाद' मिल सके। अब सोचिए खबर जब इसे बरसों की मेहनत के बाद बनाने वाले इंजीनियरों-मजदूरों को पता चली होगी तो, उनके दिल पर क्या गुजरी होगी। खैर, ऐसे बाबाओं के किस्से अनंत हैं और इनके चरणों में गिरने वाले राजनेताओं के भी। नरसिंहाराव के समय में तांत्रिक चंद्रास्वामी के जलवे तो किसी को भूले नहीं होंगे। अब तो बस यही लगता है कि काश घूरा बनने का भी समय तय होता

Wednesday, October 28, 2009

ये पूरा बेड़ा गर्क करके ही मानेंगे

अब सोचिए कि क्या होगा। ये कुछ समझने-मानने को तैयार ही नहीं हैं। वैसे ये मान ही लेते तो, इस हाल में थोड़े न पहुंचते। इतनी गंभीर बीमारी है और इनके शुभचिंतकों से लेकर आलोचक तक अलग-अलग तरीके से इन्हें आगाह कर रहे हैं। लेकिन, इनको क्यों फर्क पड़े आखिर पूरी तरह से स्वस्थ पार्टी को गंभीरमरीज जैसे हाल में पहुंचाने में इनके जैसे बड़े लोगों की पूरी टोली के सत्कर्मों का तो बड़ा योगदान रहा है।


ये हैं बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह जो, ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि भारतीय जनता पार्टी को भारतीय जनता की पार्टी बने रहने के लिए बड़े इलाज की जरूरत है। पार्टी के पेस्ट कंट्रोल की जरूरत हम जैसे लोग तो बहुत पहले से कह रहे हैं। अब तो, ये बात खुद - कम से कम भारतीय जनता पार्टी के तो, सबसे बड़े समाजविज्ञानी- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहनराव भागवत भी कह रहे हैं। पत्रकारों के सवाल पूछने पर भागवत जी ने कहा बीजेपी हमसे सलाह मांगेगी तो, हम देंगे। लेकिन, बिन मांगे सलाह दे ही दी कि भाजपा को बड़ी सर्जरी या कीमोथेरेपी तक की जरूरत है।


लेकिन, अभी करीब डेढ़-2 महीने तक और बीजेपी के ठेकेदार रहने वाले राजनाथ से जब पत्रकारों ने भागवत जी इस सलाह पर प्रतिक्रिया मांगी तो, उन्होंने कहा ये कौन कह रहा है कि बीजेपी का बुरा हाल है। अब पता नहीं राजनाथ सिंह अपने प्रदेश में चार लोगों से मिल बैठके बतियाते भी हैं या नहीं। क्योंकि, अगर जरा भी बतियाते रहते तो, उन्हें पता लग जाता कि उनकी पार्टी की बीमारी इतनी बड़ी हो गई है कि अब लोग पार्टी में रहने वाले लोगों को इस छूत से दूर रहने की सलाह देने लगे हैं। मैं अभी चार दिन पहले इलाहाबाद से लौटा हूं और कांग्रेस के लिए ये सुखद है कि लोग बीजेपी में पड़े अपने नजदीकियों को सलाह देने लगे हैं कि राहुल गांधी से कोई जुगाड़ खोजो ना। क्योंकि, ढंग की राजनीति करने वालों के लिए सपा-बसपा में तो पहले ही जगह नहीं बची है।

Sunday, October 25, 2009

इलाहाबाद से बदलाव के संकेत

हिंदी ब्लॉगिंग पर 2 दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने के लिए इलाहाबाद आया हूं। ब्लॉगिंग पर कुछ खट्टा-कुछ मीठा टाइप की चर्चा हुई। कुछ खुश हुए कुछ खुन्नसियाए। सबकी अपनी जायज वजह थी। लेकिन, हमको तो भई बड़ा मजा आया। अपने शहर में 2 दिन रहने का भी मौका मिला। और, शहर से कुछ संकेत भी मिले कि भई काफी कुछ बदल रहा है वैसे मेरे गांव की तरह कभी-कभी ठहराव का खतरा भी दिखता है।

इलाहाबाद दैनिक जागरण अखबार के पहले पेज पर खबर है- “वाह ताज नहीं अब बोलिए वाह संगम!”। वाह ताज तो दुनिया कह रही है खबर के जरिए समझने की कोशिश की वाह संगम क्यों। तो, पता चला कि घरेलू पर्यटकों की अगर बात करें तो, 2008 में दो करोड़ सैंतीस लाख से ज्यादा लोग संगम में एक डुबकी लगाने चले आए। बयासी हजा से ज्यादा विदेशी पर्यटकों को भी संगम का आकर्षण खींच लाया।


आगरा करीब साढ़े सात लाख विदेशी पर्यटकों के साथ विदेशियों का तो पसंदीदा अभी भी है लेकिन, देश से सिर्फ इकतीस लाख लोगों को ही ताज का आकर्षण खींच पाया। मथुरा 63 लाख से ज्यादा, अयोध्या 59 लाख से ज्यादा देसी पर्यटक पहुंचे। आगरा के साथ अगर इन स्थानों का टूरिस्ट मैप पर थोड़ा असर बढ़े तो, इस प्रदेश के लिए कुछ बेहतरी की उम्मीद हो सकती है।


जागरण में ही एक और खबर है कि “यहां से भी कटेगा टिकट टू बॉलीवुड”। खबर ये है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थिएटर का स्थाई सेंटर मंजूर हो गया है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इंदिरा गांधी सामाजिक विज्ञान संस्थान भवन में थिएटर एंड फिल्म इंस्टिट्यूट विभाग खुल रहा है। विश्वविद्यालय में अत्याधुनिक थिएटर सेंटर शुरू होगा और यहां से छात्रों को थिएटर में डिप्लोमा और डिग्री मिल सकेगी। विश्वविद्यालय के कुलपित प्रोफेसर राजेन हर्षे के निजी प्रयास से ये थिएटर यहां शुरू हो पा रहा है। गुलजार की इसमें अहम भूमिका होगी।


ये खबरें बदलाव का संकेत तो हैं ही मीडिया कितना आतुर होता है ऐसी खबरों के लिए ये भी दिखता है। दरअसल अगर अच्छी खबरें मिलती रहें और उन्हें पढ़ने सुनने का लोगों के पास समय हो तो, मीडिया अच्छी खबरें दिखाने से क्यों गुरेज करेगा। इस समय हिंदुस्तान अखबार उत्तर प्रदेश 10 साल बाद कैसे बेहतर हो सकता है। इसकी बहस चला रहा है। हिंदुस्तान समागम के नाम से हर दिन हिंदुस्तान अखबार के दफ्तरों में शहर के लोगों को बुलाकर उनसे इस पर चर्चा की जा रही है। ब्लॉगर सेमिनार के नाते इलाहाबाद में था इसी बहाने मुझे भी मित्रों ने इस परिचर्चा में बुला लिया। अच्छा पहलू ये था कि इस बहाने शहर के लोग बैठकर बेहतरी की चर्चा कर रहे थे। बुरा ये था कि चर्चा में राजनीति के भरोसे ही सारी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे थे। खुद से निराश लोगों की जमात कितनी बड़ी हो गई है यहां इसका अंदाजा साफ लग रहा था। आगे के लिहाज से मेरे तैयार होने की बात से बूढ़े साहित्यकार टाइप के लोग इसलिए नाराज हो रहे थे। आगे की दुनिया कुछ लोगों की दुनिया है। नेट का नाम सुनकर वो बिदक रहे थे। वो 20 साल पुरानी चीजों को लेकर ही जी रहे थे।


कुल मिलाकर साहित्यिक-सांस्कृतिक नगरी होने की वजह से धीरे-धीरे ही बदलाव आ रहा है। और, हर चीज में थोड़ी बहुत मठाधीशी भी बचाए रखने की कोशिश जारी है। और, जो मठाधीश बन गए हैं वो, चाहते ही नहीं कि नई पीढ़ी उनसे आगे निकलकर कुछ सोच पाए। बुद्धिप्रधान समाज है ये अच्छाई है लेकिन, मुश्किल भी है किसी चीज पर इतने तर्क-कुतर्क शुरू हो जाते हैं कि बात ही आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन, नई पीढ़ी है तो, वो मान नहीं रही है। धकियाते, उल्टाते बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद से संकेत अच्छे लेकर लौट रहा हूं। हां, ये जरूर है कि एक जोर के धक्के की जरूरत है। और, जरा ये पुराने गुमानों को संग्रहालय में रख दें तो, बेहतरी पक्की है।

Saturday, October 24, 2009

इलाहाबाद में हिंदी ब्लॉगिंग और पत्रकारिता पर चर्चा

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और हिंदुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद की ओर से आयोजित राष्ट्रीय ब्लॉगर संगोष्ठी का पहला दिन कल बेहद शानदार रहा। देश भर के ब्लॉग लिक्खाड़ इस चर्चा में शामिल हुए। चर्चा के दौरान रवि रतलामी जी के सौजन्य से लगातार लाइव रिपोर्टिंग आप लोगों ने कल ज्यादा चित्रों के जरिए देखी। संजय तिवारी ने विस्फोट किया ब्लॉगरों के निशाने पर नामवर सिंह। उसके बाद विनीत ने विस्तार से एक रपट में पूरी चर्चा से आप लोगों को रूबरू कराया। उस चर्चा में मेरे विचार मैं विस्तार से यहां डाल रहा हूं। वैसे, जो वहां बोला वो तुरंत की स्थितियों के लिहाज से दिमाग में आई बात थी लेकिन, ज्यादातर इसी के इर्दगिर्द थी।

हिंदी पत्रकारिता विश्वसनीयता खोती जा रही है। कुछ इसके लिए टीवी की चमक दमक को दोष दिया जा रहा है। और, उसमें मिलने वाले पत्रकारों के पचाने लायक पैसे से ज्यादा पैसे मिलने को तो, कुछ TRP जैसा एक भयावह डर है जो, पत्रकारिता को अविश्वसनीय बना रहा है। लेकिन, सवाल ये है कि जब टीवी की चमक-दमक, पैसे या फिर TRP का दोष दिख रहा है तो, फिर अखबार-पत्रिका क्या कर रहे हैं।



इसका भी जवाब खोजने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। थोड़ा सा दिमाग दौड़ाइए तो, साफ दिखेगा कि दरअसल अखबार-पत्रिका टीवी को सुधारने की बात कहते-उस पर अंकुश लगाने की लंतरानी बतियाते कब टीवी टाइप खबरें पढ़ाने लगे पता ही नहीं चला। अब अखबार न अखबार जैसे रह गए और टीवी जैसे बनने की उनकी प्रकृति ही नहीं है। टीवी तो पहले ही हर सेकेंड ब्रेकिंग न्यूज के दबाव में काम कर रहा था।


निर्विवाद रूप से टीवी के सबसे बड़े पत्रकारों में से राजदीप सरदेसाई को भी लगने लगा है कि भारतीय पत्रकार- फिर चाहे वो उनके जैसे टीवी के संपादक हों या फिर अखबार के विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं' वहीं प्रिंट और टीवी दोनों माध्यमों में लगातार अपने हिसाब से पत्रकारिता गढ़ने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी को ये डर लगने लगा है कि पत्रकारिता कैसे की जाए। वैसे, वो खुद ही अपने ब्लॉग पर आगे ये कह देते हैं कि एक रहो, पत्रकार रहो। सब ठीक हो जाएगा। और, पुण्य प्रसून की ये सलाह उनके टीवी चैनल जी न्यूज के जरिए कैसे आई मैंने नहीं देखी लेकिन, उनके ब्लॉग पर उनका लिखा पत्रकार और राजनीतिक द्वंद पर बहस की सबसे बड़ी वजह बन गया।


यही ब्लॉग की ताकत है। ताकत ये कि इसका कोई सेंसर बोर्ड नहीं है। न सरकार-न अखबार संपादक -न टीवी संपादक या फिर कोई मीडिया हाउस। पुण्य प्रसून बाजपेयी और राजदीप सरदेसाई इतने हल्के लोग नहीं हैं कि ये जहां काम करते हैं वहां उनके मालिक उन्हें इतना दबा दें कि वो, अपने मन की खबर-विश्लेषण दिखा-सुना नहीं सकते। राजदीप तो, अपने अंग्रेगी और हिंदी चैनलों के सह मालिक भी हैं। और, पुण्य प्रसून संपादक की हैसियत में हैं। लेकिन, मीडिया के टीवी माध्यम की मजबूरियां इन्हें अच्छे से पता है। और, ब्लॉग की पकड़ और पहुंच का भी इन्हें अच्छे से अंदाजा है कि ये वो, माध्यम है जिससे बात दुनिया के किसी भी कोने तक पहुंचाई जा सकती है।


अब अगर दुनिया में बैठे किसी व्यक्ति को भारतीय मीडिया के बारे में अंदाजा लगाना होगा तो, वो टीवी चैनल तक पहुंच तो बन नहीं सकता। वो, भरोसे होता है इंटरनेट के। और, इंटरनेट पर भी अगर विषय संबंधित खोज करनी है तो, किसकी सर्च इंजन की मदद लेता है। अब अगर आप किसी विषय पर गूगल अंकल या दूसरे सर्च इंजन परिवार की मदद लेते हैं तो, कमाल की बात ये सामने आती है कि अब किसी न्यूजपेपर-टीवी की वेबसाइट के साथ लगे हाथ ढेर सारे ब्लॉगों का वेब पता भी आपके सामने परोस दिया जाता है। अब आपकी इच्छा है जैसे चाहो चुन लो।


यानी कम से कम इंटरनेट पर तो, इंटरनेट की ही सबसे मजबूत पैदाइश ब्लॉग को तो, स्वीकार किया जा चुका है। और, इसी इंटरनेट के जरिए कुछ तो, टीवी-प्रिंट माध्यम के पत्रकार ही इस विधा को आगे बढ़ा रहे हैं। कुछ एक नई जमात पैदा हो रही है। ये नई जमात है जो, टीवी चैनलों पर एक रुप में दिखती है- सिटिजन जर्नलिस्ट नाम से। टीवी चैनल के माध्यम की मजबूरी की ही तरह इसके सिटिजन जर्नलिस्टों की भी अपनी सीमा है लेकिन, ब्लॉग के अनंत आकाश में विचरने वाले सिटिजन जर्नलिस्ट इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि, कोई सीमा नहीं है।


पुण्य प्रसून बाजपेयी अपना खुद का ब्लॉग चलाते हैं और गंभीर मुद्दों पर वहां बहस की कोशिश करते हैं तो, राजदीप सरदेसाई अपने टीवी चैनल में काम करने वाले हर पत्रकार से चाहते हैं कि वो, जो खबर टीवी पर नहीं दिखा पा रहे हैं एयरटाइम की मजबूरी से या फिर किसी और वजह से उसे अपने ब्लॉग के जरिए चैनल की वेबसाइट पर पोस्ट करे। और, ये पोस्टिंग टेक्स्ट यानी सिर्फ लिखा हुआ या फिर उस लिखे को जीवंत बनाने वाली कुछ तस्वीरों और वीडियो के साथ का ब्लॉग।


मैंने खुद जब बतंगड़ नाम से अप्रैल 2007 में अपना ब्लॉग शुरू किया तो, उसके पीछे एक जो, सबसे बड़ी वजह ये थी कि बहुत सी बातें हैं जो, दिमाग में आती हैं लेकिन, स्वाभाविक तौर पर किसी चैनल-अखबार या पत्रिका में दिख छप नहीं सकती हैं। ययहां तक कि अगर उनका स्तर किसी भी छपे लेख या विश्लेषण से बेहतर भी है तो, इसलिए नहीं छप सकती कि फलाना अखबार या पत्रिका में छापने के अधिकार वाले संपादक से हमारी कोई जान-पहचान नहीं है।


अब इस ब्लॉग के असर को लेकर मुझे बेवजह का कोई गुमान तो नहीं है। लेकिन, गुमान करने लायक कुछ आंकड़े मेरे पास हो गए हैं। करीब हर महत्वपूर्ण खबर पर और दूसरे समसामयिक विषयों पर मेरे 300 लेख हो चुके हैं। 102 देशों में भले ही एक व्यक्ति ने ही सही बतंगड़ ब्लॉग को देखा है। देश के लगभग सारे हिंदी अखबारों में मेरे ब्लॉग का जिक्र हो चुका है। और, हिंदी के दो बड़े अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर मैं दिखा तो, ये ब्लॉग लेखन की बदौलत है। और, ये कमाल मेरा नहीं है मैं इसे अपने ब्लॉग के उदाहरण से सिर्फ समझाने की कोशिश कर रहा है। ये कमाल है मेरे जैसे ढेर सारे पत्रकार-गैर पत्रकार- नागरिक पत्रकार ब्लॉगरों का। यही कमाल है कि किसी भी हिंदी अखबार, वेबसाइट का काम बिना ब्लॉग चर्चा, ब्लॉग कोना, ब्लॉग मंच जैसे कॉलम के नहीं चल रहा है। यानी इसे माध्यम के तौर पर मान्यता मिलना तो शुरू हो चुकी है।



अब इस ब्लॉगरी के अगर अच्छे पहलुओं को देखें तो, इस पर TRP जैसे डर का दबाव नहीं है। इसमें ब्लॉग पत्रकारिता करने वालों को पूंजी बहुत कम लगानी पड़ती है। टीवी-अखबार की तरह एक खबर का एक ही पहलू एक तरीके से बार-बार देखने की मजबूरी नहीं है। अलग-अलग ब्लॉग पर आपको अलग-अलग तरीके से खबर का विश्लेषण मिलेगा। किसी के विचार पर कोई रोक नहीं है।

लेकिन, इसके बुरे पहलू भी हैं जो, ब्लॉग जगत में अकसर देखने को भी मिल रहे हैं। TRP का दबाव नहीं है तो, कोई भी कुछ भी लिख रहा है। पूंजी लगानी बहुत कम पड़ती है तो, पूंजी मिलने की गुंजाइश उससे भी कम है जिससे फुलटाइम ब्लॉग पत्रकारिता के लिए हिम्मत जुटाना मुश्किल काम हो जाता है। अलग ब्लॉग पर अलग तरह से विश्लेषण मिलता है तो, कभी अति जैसा विश्लेषण होता है जो, पूरी तरह से किसी एजेंडे, अफवाह फैलाने या कम जानकारी की वजह से सिर्फ भावनात्मक तौर पर पोस्ट कर दिया जाता है।



इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है कि ब्लॉग हिंदी पत्रकारिता के खालीपन को भर सकता है। और, पूरी मजबूती के साथ आम जनता के माध्यम तौर पर स्थापित हो सकता है। लेकिन, जब मैं इसे पत्रकारिता के विकल्प के तौर पर देख रहा हूं तो, ये भी स्पष्ट है कि मैं बेनामी ब्लॉगों को इसमें शामिल नहीं कर सकता। बेनामी इसकी विश्वसनीयता के लिए खतरा बनता दिखता है। और, जब विश्वसनीयता पर चोट होगी तो, अभी की पत्रकारिता के खालीपन को भरने की एक जरूरी शर्त ये खो बैठेगा। बेनामी ब्लॉग मीडिया के तौर बमुश्किल दस कदम जाकर लड़खड़ा जाएगा और ये बस स्व आनंद का माध्यम भर बनकर रह जाएगा। अब इसका मतलब ये नहीं है कि मैं एकदम से बेनामी का विरोध कर रहा हूं। राज्य सत्ता के खिलाफ किसी जरूरी मुहिम को, खबर को बिना किसी का नाम दिए भी चलाया जा सकता है। कई बार ये जरूरी भी हो जाता है। कई बार अपनी बात रखने के लिए पहचान छिपानी भी पड़ सकती है। लेकिन, बेनामी बनकर किसी के खिलाफ साजिश रचने, किसी को अपमानित करने की बात ब्लॉग के लिए कलंक जैसी ही है।


अब सवाल ये है कि इन अच्छे-बुरे पहलुओं के बीच ब्लॉगिंग पत्रकारिता के मानदंडों पर कैसे खरा उतर पाएगी। तो, मेरा साफ मानना है कि जिस वैकल्पिक पत्रकारिता की बात अकसर होती है। वो, वैकल्पिक पत्रकारिता इसी ब्लॉग पगडंडियों से गुजर कर जवान होगी। इसमें सहयात्री मेरे जैसे पत्रकार भी होंगे जो, खबरों को अपने से जोड़कर उससे कुछ अच्छा विश्लेषण करके समझाने की कोशिश करते हैं। ज्ञानजी जैसे सामाजिक पत्रकार भी होंगे जो, रोज सुबह गंगा नहाने जाते हैं और गंगा किनारे की वर्ण व्यवस्था, आस्था के अंधविश्वास, सिमटती नदी पर लोगों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे हैं। सही मायनों में ब्लॉग पत्रकारिता – आज की पत्रकारिता के तेज भागते युग के अंधड़ में गायब हुई असल पत्रकारिता को वापस ला सकेगी। जमकर ब्लॉगिंग करिए, खुद पर अंकुश रखिए। बचा काम तो, अपने आप हो जाएगा।

Wednesday, October 21, 2009

ठीक-ठीक सोच तो लो कि क्या करना है

आप करना क्या चाहते हैं। कुछ ढंग का है दिमाग में या बस ये सोच रखा है कि कुछ-कुछ ऐसा करते रहना है जिससे लोग ये तो, जानें कि ये बड़े मंत्री जी हैं। या आपको किसी ने ये समझा दिया है कि जो लोग ये वाले मंत्री जी बन जाते हैं। आगे सबसे बड़े मंत्री जी यानी प्रधानमंत्री जी बनने की रेस में उनका नाम तो आ ही जाता है भले ही वो बने ना बने। वरना एक के एक बाद एक ऐसी ऊटपटांग हरकतें भला आप क्यों करते।


आप समझ तो गए ही होंगे कि मैं अपने मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल साहब की बात कर रहा हूं। बड़े वकील हैं तो, किसी भी बात जलेबी की तरह कितना भी घुमाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। लेकिन, आपको कुछ तो समझना ही होगा सिब्बल साहब। अभी आप अपने पिछड़ने के ब्लू प्रिंट को जस्टीफाई नहीं कर पाए थे तब तक एक और फॉर्मूला ठेल दिया आपने। अब कह रहे हैं कि IIT’s में दाखिला कैसे हो ये तय करना IIT’s का काम है, सरकार का नहीं। फिर क्यों आपने लंतरानी मार दी कि हम कोचिंग संस्थानों की दुकान बंद कराने के लिए IIT’s के दाखिले में 12वीं की परीक्षा के नंबरों को ज्यादा वरीयता देंगे। कुछ 80 प्रतिशत नंबर लाने पर ही IIT’s में दाखिले लायक समझने की बात आई।


जब बिहार के सारे नेता राशन-पानी लेके चढ़ बैठे। और, सिब्बल के फॉर्मूले को anti poor टाइप कहने लगे तो, सिब्बल साहब डर गए। एक बात बड़ी अच्छी है हमारे देश में गरीबों का भला करने को कोई भले न सोचे। गरीबों के खिलाफ जाने से डरते सब हैं सो, सिब्बल साहब भी डर गए। नीतीश मुख्यमंत्री हैं बिहार के तो, आंदोलन नहीं किया। मंच से मीडिया के जरिए बोला कि ये बिहार के छात्रों को IIT’s में जाने से रोकने की साजिश है। लालू प्रसाद यादव की पार्टी सत्ता में नहीं है तो, उन्होंने आंदोलन शुरू कर दिया।


खैर, अच्छी बात ये है कि चाहे जैसे बिहारी आंदोलित होना नहीं छोड़ रहे हैं। ये अलग बात है कि एक देश के सबसे बड़े आंदोलन से निकले नेताओं ने ही बिहार को नर्क बना दिया। और, अजीब टाइप का बिहारी गौरव-बिहारी उपेक्षा में बदल गया था। अब ठीक बात है कि उसी छात्र आंदोलन से निकला एक नेता ही बिहार को कुछ बदलने की कोशिश कर रहा है। सिब्बल के बेतुके फॉर्मूले के खिलाफ भले ही सिर्फ बिहार के लोग आंदोलित हुए और इसे anti poor टाइप कह रहे हों। सच्चाई ये है कि ये फॉर्मूला anti poor states और anti state education board तो है ही। क्योंकि, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे पिछड़े राज्यों की छोड़िए महाराष्ट्र बोर्ड के भी बच्चों के नंबर शायद ही CBSE, ICSE बोर्ड के छात्रों के नंबर का मुकाबला कर सकें।


अब हो सकता है कि सिब्बल अपने देश भर में एक बोर्ड के फैसले को लागू करने का इस तरह का घुमाके काम पकड़ने वाला तरीका आजमाने की सोच रहे हों। क्योंकि, जब यूपी-बिहार बोर्ड का बच्चा सारी मेहनत करके भी बोर्ड की परीक्षा के तरीके की वजह से 50-60% से ज्यादा नहीं जुटा पाएगा तो, वो CBSE, ICSE बोर्ड के स्कूलों में दाखिला लेकर 80% लाने का रास्ता खोजेगा। धीरे-धीरे करके एक बोर्ड हो जाएगा। अंग्रेजी स्कूलों की दुकान और तेजी से विस्तार ले लेगी। राज्यों के बोर्ड के स्कूल सरकारी विद्यालय जैसे हो जाएंगे। सिब्बल की दिल्ली की इलीट क्लास मानसिकता की विजय हो जाएगी।


और, मैं तो स्वार्थी हूं। मैं यूपी बोर्ड से पढ़ा हूं। नियमित रूप से सेकेंड डिविजनर रहा। अब मैंने तो रास्ता ही ऐसा चुना लिया कि इनके फर्स्ट सेकेंड, डिवीजन से मैं ऊपर उठ गया। लेकिन, अब क्या मुझे जिंदगी के किसी मोड़ पर फर्स्ट डिवीजन की तरफ बढ़ने का हक सिर्फ इसलिए नहीं मिलेगा क्योंकि, हाईस्कूल, इंटर या फिर ग्रैजुएशन में मैं सेकेंड डिविजनर रहा। और, यूपी या राज्यों का बोर्ड खत्म होगा तो, फिर प्रेमचंद या स्थानीय महापुरुषों से परिचय तो होने से रहा। परिचय उनसे होगा जिनका भारत-भारतीयता से वास्ता ही नहीं होगा। पता नहीं देश के सबसे अहम मानव संसाधन विकास मंत्रालय – बार-बार हम ये कहते रहते हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी जवान है, उसी पर देश का भविष्य टिका है और जवान होती आबादी को हम ऐसे तैयार करने की सोच रहे हैं - में ऐसे बेतुके फैसले लेने से पहले सिब्बल साहब सोच भी रहे हैं या सिर्फ इसीलिए कि पिछले मानव संसाधन मंत्रियों से ज्यादा चर्चा में बने रहने की सनक सवार है।

Sunday, October 18, 2009

दौड़ादौड़ी की झमाझम चर्चा

बहुत साल बाद ऐसा हुआ कि इस बार इलाहाबाद से वापस दिल्ली लौटने का मन नहीं कर रहा था। खैर, वापसी तो करनी ही थी। रोजी-रोजगार- वापस लौटा लाया। लेकिन, 2 दिनों का भरपूर इस्तेमाल मैंने किया या यूं कह लें कि ऐसे संयोग बने कि दो दिनों का पूरा इस्तेमाल हो गया। 2 दिन में विश्वविद्यालय टाइप की राजनीति, अड्डेबाजी से लेकर कराह की पूड़ी तक खाने का अवसर हाथ लग गया। मस्त कंजरवेटिव भारत के दीपावली मौज से मनाने के उत्साह का दर्शन भी हो गया। वैसे, इस साल तो दीपावली पर- वो क्या कहते हैं न कि सेंटिमेंट सुधर गया है- यानी मंदी भाग गई है- ऐसा मानने से सभी दिवाली मजे से मना गए। पिछले साल तो, कैसा डरावना माहौल था याद है ना। लेकिन, इसी कंजरवेटिव भारत ने दिवाली की रोशनी बचा ली थी।


दरअसल धर्मपत्नी जी को घर छोड़ने जाना था। तो, शनिवार की शिफ्ट करके प्रयागराज से इलाहाबाद के लिए निकल लिए। इलाहाबाद का कार्यक्रम में लगे हाथ मास कम्युनिकेशन के बच्चों की क्लास लेने का आमंत्रण मिला। पहली बार गुरु जी बनने का अवसर था तो, मैं भी भला चूकता कैसे। आर्थिक पत्रकारिता की करीब डेढ़ घंटे की एक बेसिक बातचीत भी हो गई। लेकिन, पता नहीं क्यों- आर्थिक पत्रकारिता इतनी महत्व रखते हुए भी भावी पत्रकारों में रुचि पैदा नहीं कर पा रही है। फिर वो मुंबई, दिल्ली हो या इलाहाबाद- खास फर्क नहीं दिखता।



अब इलाहाबाद पहुंचे थे तो, राजनीति के बिना बात कहां बनती। उस पर पता चला कि अपने प्राणेश जी इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन का चुनाव लड़ रहे हैं। प्राणेश दत्त त्रिपाठी अनुभवी वकील हैं। और, पिछली बार भी बहुत कम वोटों से सचिव बनते-बनते रह गए थे। इस बार चुनाव लगभग पक्का दिख रहा था। अब चूंकि ज्यादातर विश्वविद्यालय के नेता जो, इलाहाबाद रह गए हैं और रोजगार का दूसरा जरिया नहीं ढूंढ़ सके हैं तो, काला कोट पहनकर हाईकोर्ट में उनको अपना सम्मान सबसे आसानी से बचता दिख रहा है तो, पूरा का पूरा चुनाव भी बार का होते हुए भी विश्वविद्यालय जैसा हो गया था। खांटी विश्वविद्यालय के नेताओं की भाषा में- धोवावा कुर्ता जैसे धोवावा काला कोट पहिर के- कॉफी हाउस से हाईकोर्ट चौराहे तक जमावड़ा था।



मेरे भीतर के भी विश्वविद्यालय के अंदर वाले राजनीतिक कीटाणु अइसे सक्रिय भए कि करीब 4 घंटे हम भी कॉफी हाउस, सिविल लाइंस से हाईकोर्ट चौराहा तक पेंडुलम की तरह टहलते रहे। 4 घंटे की टहलाई ने भूख भी बढ़ा दी थी। अब गरम चाय पेट को कितना सहारा दे पाती सो, लगे हाथ हाईकोर्ट के सामने एक के बाद एक सजी बाटी-चोखा की दुकानों पर बैठकी का भी मौका वक्त की जरूरत बन गया। वैसे, हम लोग के विश्वविद्यालय टाइम में एकै दुकान थी। अब तो, पूरा बाटी-चोखा स्पेशियलिटी मॉल रोड जैसा अहसास दे रहा था- इलाहाबाद बैंक के पीछे वाली सड़क पर। बढ़िया घी में सना दिव्य बाटी औ चोखा के साथ मूली, प्याज, मिर्च, चटनी परोसी गई। जिह्वा पेट पर भारी पड़ रही थी 2 में मान नहीं रही थी लेकिन, थोड़ा संयम का ध्यान किया तो, कुछ रोक लगी।


खैर, दो-तीन बार मतगणना रुकने और दो दिन के बाद मतगणना पूरी होने के बाद प्राणेश जी के जीतने की खबर आई। लगा बढ़िया भवा- काफी टाइम बाद कउनौ चुनाव लगे दुइयै-चार घंटा बिना सही- नतीजा पॉजिटिव आवा। ई पॉजिटिव बड़ी सही चीज है- कुछौ पॉजिटिव होत रहै तो, ऊर्जा मिल जाथै। भले सीधे कुछ फायदा होय न होय। का कहथैं ऊ सेंटिमेंट ठीक होए जाथै। वही जइसे मार्केट, देश के मंदी भागै के संकेत से सेंटिमेंट सुधर गवा है। ढाई महीना पहिले तक सावधान, खतरा क बोर्ड लगाए घूमै वाले एनलिस्ट अब मौका हाथ से जाने न दीजिए टाइप सलाह निवेशकों को देने लगे हैं।



खैर, ई एनलिस्ट के सलाह पे बमुश्किल 5-7% इंडिया चल रहा है। कंजरवेटिव भारत मस्त है। सिविल लाइस की महात्मा गांधी रोड अइसे जगमग थी दिवाली में कि मंदी टाइप बात कभो भ रही देश में यादे नै पड़त रहा। पिछली बार की ही तरह मेला भी लगा है औ खरीदारी भी जमकर भई। घर आए तो, पता चला
मामा के यहां गजेंद्र मोक्ष जाप हुआ है। शाम को निमंत्रण है। पूछा कि हम्हीं लोग हैं या लंबा कार्यक्रम है पता चला कि 100 लोग तो लगभग हो ही जाएंगे। हमारे मामा जी जैसे लोग कंजरवेटिव भारत के वही लोग जो, हर चौथे-छठएं सत्यनारायम पूजा सुनके पंजीरी बांट देते हैं तो, गजेंद्र मोक्ष जाप कराके 100 लोगों को भोजन पर बुल लेते हैं। अब जिस इंडिया में तब्दील होने के लिए भारत मशक्कत कर रहा है वहां तो, जिस शाम कोई एक आदमी भोजन पे आ जाए- मियां-बीवी में झगड़ा होने की संभावना बढ़ जाती है। औ बहुत बड़े लोगों के यहां भी सालाना जलसे में बमुश्किल 100 लोग बुलाए जाते हैं।




कॉलोनी में मामा जी का घर है। कॉलोनी की छत पर ही भोजन का इंतजाम था। बढ़िया कड़ाहा चढ़ा था। ज्यादा तामझाम नहीं टाट पट्टी पे मजे से बैठके गले तक चांप के भोजन हुआ वरना तो, ऊ खड़े होके खाने वाले में – का कहते हैं बुफे सिस्टम – तो, न खाना खाया जाता है औ जितना खाया वो पच भी नहीं पाता है। जमकर खाया। काम की नीरसता से दूर दो दिन का इतना एनर्जेटिक दौरा था कि मजा आ गया। लेकिन, ऑफिस भी लौटना था। रात की राजधानी पकड़ी और, दूसरे दिन ऑफिस पहुंच गए। दिवाली तक फुर्सत नहीं थी आज रविवार की छुट्टी मिली तो, लिख मारा।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...