Saturday, July 12, 2008

बेचने के चक्कर में हर घर में डर तो मत भरो

टीवी पर सब बिकता है। आंसू-मारधाड़-नौटंकी। हत्या-बलात्कार-रेव पार्टी। लेकिन, इस बेचने के चक्कर में अब टीवी वालों (खबरिया चैनल पढ़िए) का ईमान तक बिक गया है। पता नहीं ये सब दिखाने-चलाने के बाद वो न्यूजरूम में हंसते हैं या रोते हैं। ऐसा तो है नहीं कि उनमें संवेदनाएं नहीं हैं। सब मजबूरी में टीआरपी की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं। लेकिन, इतना सब करने पर भी टीआरपी नहीं मिल पा रही है। मैं खुद एक टीवी चैनल में हूं इत्तफाकन खुशनसीब हूं कि इस ईमान बेचने के धंधे से काफी बचा हुआ हूं। बिजनेस चैनल में होने से बच गया हूं। बल्कि सच्चाई तो ये है कि बच क्या गया हूं, जनरल न्यूज चैनल में जाना चाहता हूं लेकिन, डर लगने लगा है। जाके करूंगा क्या।

अब आरुषि को पता नहीं किसने मारा। सीबीआई भले ही तीन नौकरों को हत्यारा बता रही हो लेकिन, सच्चाई शायद ही ये हो। लेकिन, इस मामले पर न्यूज चैनलों ने जो हरकत की वो, आरुषि की हत्या से भी बहुत शर्मनाक है। एक प्यारी सी खूबसूरत बच्ची जो, किसी के भी घर की मासूम बच्ची नजर आती है। आरुषि की मौत की खबर आने के साथ ही न्यूज चैनलों पर जितनी तरह की फैंटेसीज हो सकती हैं वो, दिखानी शुरू कर दी गईं। किसी के पास कोई जानकारी नहीं थी। अभी भी नहीं है। लेकिन, जिस चैनल के रिपोर्टर को जिस तरह से आरुषि के मर्डर का प्लॉट समझ में आता। बस उसी का रिक्रिएशन या फिर आरुषि की खून टपकती फोटी लगाकर स्पेशल इफेक्ट्स के साथ अपनी कहानी दर्शकों के दिमाग में ठूंसने की कोशिश बेहयाई की हद तक करते रहे।

हाल ये हो गया कि घरों में कार्टून देखना पसंद करने वाले छोटे बच्चों से लेकर सुबह उठकर आस्था, संस्कार चैनल देखने वाले बुजुर्ग तक हर रोज चैनल पर टकटकी लगाए आरुषि का क्या हुआ जानना चाहते। आरुषि की हत्या हो गई। लेकिन, आरुषि को टीवी वालों ने सबके दिमाग में-मन में जिंदा कर दिया। और, आरुषि की हत्या के साथ ही लोगों के दिमाग में-मन में पश्चिमी दुनिया से आई सारी गंदगी भी दिमाग में बसा दी। आरुषि के मां-बाप के साथ ही उनके सबसे नजदीकी परिवार का भी चित्र ऐसा खींच दिया कि वो, मुंबई-दिल्ली के हाई प्रोफाइल सेक्स रैकेट का हिस्सा से लगने लगे। और, मीडिया वालों की फिल्मी फंतासी की स्क्रिप्ट जहां भी कमजोर होती, सीबीआई और नोएडा पुलिस पूरे मिर्च मसाले के साथ तैयार रहते ही थे।

अब सीबीआई ने पूरे पचास दिनों के बाद राजेश तलवार को निर्दोष ठहराकर तलवार के कंपाउंडर, तलवार के दोस्त दुर्रानी के नौकर और तलवार के बगल के घर के नौकर, तीनों को हत्या का आरोपी बना दिया है। न्यूज चैनल फिर से लग गए हैं। अब नौकरों के परिवार वाले स्टूडियो में हैं। चैनलों के सबसे सीनियर रिपोर्टर्स के साथ राजेश तलवार के भाई दिनेश तलवार के साथ इंटरव्यू करके ला रहे थे। कल तक पुलिस पर तलवार को बचाने का आरोप लगाने वाला एंकर चीख-चीखकर पूछ रहे हैं- कौन लौटाएगा डॉक्टर तलवार के वो 50 दिन। क्या डॉक्टर तलवार को जिल्लत से छुटकारा मिल सकेगा। कल तक खून टपकती आरुषि की फोटो चैनलों पर दिख रही थी। अब पापा की पीड़ा के साथ आरुषि की फोटो घूम रही है।

मैं विनती करता हूं। मैं खुद मीडिया में हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि देश के लोगों के दिमाग में इतनी फंतासियां मत भरो कि हर रिश्ते में उन्हें पाप दिखने लगे। हर रिश्ते में शक घुस जाए। लोगों को घर भी महानगरों की रात में तेज रफ्तार से कार चलाते-गली के किनारे आंखें चढ़ाए बैठे नशेड़ियों के बीच की जगह लगने लगे। मैं ईमानदारी से कह रहा हूं मुझमें आरुषि की असामयिक-दर्दनाक-समाज पर लगे काले धब्बे वाली मौत पर कुछ भी लिखने का साहस नहीं था। लेकिन, ऑफिस से लौटने के बाद सभी चैनलों पर फिर से जनाजा बिकते देखा तो, रहा नहीं गया। माफ कीजिएगा ...

6 comments:

  1. मैं सहमत हूं आप की बात से अच्छा लिखा है आप ने .... लिखते रहिये ...

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  2. बिल्कुल सही कह रहे हैं.

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  3. यह बोर हो रहा युग है - जो सेनसेशन के नाम पर टीवी के सामने कुछ भी देखने को अभिशप्त है।

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  4. बाजार में बेचने वाले ज्यादह और खरीदने वाले सीमित होते हैं तो सड़ियल से सड़ियल माल को भी चांदी का कवर लगा कर बेचा जाता है। अब बात यहाँ तक है कि कौन अधिक सड़ियल माल को अधिक महारत से बेचता है।

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  5. भाई,आपकी पीड़ा जायज है.हर संवेदनशील व्यक्ति की यह पीड़ा है.लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है ? क्या सिर्फ चैनल या अखबार वाले ही.भाई बाजारीकरण के इस युग में सभी मुनाफा काटने के चक्कर में हैं.माल बिके.कैसे भी बिके.बंधु अब संचार पर भी बाजार का कब्जा हो चुका है और बाजार सिर्फ ग्राहक की तलाश करता है.लेकिन इसका मतलब यह नहीं हम और आप जैसे लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें.आप इसी तरह पूरी शिद्दत के साथ इस बाजारू मानसिकता के विरोध की जद्दोजहद करते रहें.आपके जोश,जज्बे व जुनून को सलाम.

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  6. हर्ष भाई
    आप ने अपनी ही नहीं इस पोस्ट के जरिये हर संवेदन शील व्यक्ति की पीढा को शब्द दे दिए हैं...बहुत कडुवी लेकिन सच बात लिखी है आपने...टी.वी. चेनलों की इस अंधी दौड़ के कारण अब टी.वी. देखने से ही घृणा होने लगी है.
    नीरज

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