Sunday, June 29, 2008

कश्मीर में बैलेट पर कब्जे के लिए फिर हावी हो रही है बुलेट पॉलिटिक्स

इस समय मेरा परिवार कश्मीर में है। तीन दिनों तक दहशत में श्रीनगर में जीने के बाद अब वो, वैष्णो माता का दर्शन करके कटरा लौट आए हैं। पिताजी ने जब घूमने का कार्यक्रम बनाया तो, मैंने सबसे मुखर तौर पर कश्मीर जाने को ही कहा। दरअसल दो साल पहले जब मेरी शादी हुई तो, घूमने जाने के लिए मुझे वैष्णो देवी के दर्शन के साथ श्रीनगर की वादियों में घूमना सबसे मुफीद कार्यक्रम लगा। और, कश्मीर में एक हफ्ते – इसी में श्रीनगर में 4 दिन (गुलमर्ग भी शामिल) रहना इतना सुखद अनुभव रहा था कि घर वालों को मैंने कहा- श्रीनगर जरूर घूमकर आइए।

शादी के बाद का पहला घूमना तो वैसे भी किसी को नहीं भूलता है। लेकिन, श्रीनगर इसलिए भी मेरी यादों का जबरदस्त हिस्सा बन चुका है कि यहीं से मेरी हिंदी ब्लॉग की पहली पोस्ट निकली थी। जिसमें मैंने वहां बह रही शांति की बयार का जिक्र किया था। और, ये भी लिखा था कि बाजार किस तरह से बंदूक पर भारी पड़ रहा हैलेकिन, अब दो साल बाद मुझे साफ दिख रहा है कि राजनीति, बाजार की वजह से जन्नत (कश्मीर) के सुधरे माहौल को बिगाड़कर उसे दोजख बनाने पर आमादा है।

बिना मुद्दे के किसी तिल जैसी बात को ताड़ कैसे बनाया जा सकता है ये कोई भारतीय राजनेताओं से सीखे। मामला बस इतना था कि अमरनाथ यात्रियों को कुछ सुविधाएं देने के लिए जरूरी व्यवस्था की जानी थी। इसके लिए पहलगाम और गुलमर्ग में धर्मशाला बननी थी। जिससे अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ पक्के कमरे बाथरूम-टॉयलेट बन सके। अभी कनात की आड़ में इन यात्रियों को ये सब करना होता है। जम्मू कश्मीर सरकार ने जंगल की करीब 100 एक जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने की मंजूरी दे दी। इस मंजूरी को बाकायदा कैबिनेट ने पास किया। कैबिनेट में राज्य के वनमंत्री ने भी हस्ताक्षर किए जो, पीडीपी के विधायक हैं।

लेकिन, शायद बेशर्मी से चुनावी फायदे के लिए पलटी मारना ही राजनीति है। यही वजह थी कि 26 मई को कैबिनेट में पीडीपी मंत्री ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 100 एकड़ जमीन देने पर सहमति जताई और उसके बाद महबूबा मुफ्ती ने इस मुद्दे पर भड़काऊ आंदोलन की योजना तैयार कर डाली। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती फैसले का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर गईं। आंदोलन हिंसक इसलिए हो गया कि महबूबा के साथ खड़े हो गए जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के हिमायती। मुझे तो लगता है कि इस आग में आतंकवादी भी अपना हित साधने की कोशिश कर रहे हैं।

मैं इसमें आतंकवादियों के शामिल होने का शक जता रहा हूं तो, इसके पीछे ठोस वजह भी है। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के फैसले का विरोध करने वाले लोग कह रहे हैं कि ये राज्य को डेमोग्राफी (जनसंख्या वितरण) को प्रभावित करने की साजिश है। अब मुझे ये बात समझ में नहीं आती कि अमरनाथ यात्रियों के लिए दो-चार धर्मशालाएं बन जाने से कश्मीर की मुस्लिम बहुल जनसंख्या में हिंदु कैसे ज्यादा हो जाएंगे। यानी साफ है कि ये कहकर श्रीनगर, गलुमर्ग, पहलगाम के मुस्लिम बहुल इलाके में आग लगाने की कोशिश की जा रही है। या यूं कहें कि कोशिश सफल हो चुकी है।

इसी मुद्दे पर हुई बहस में हमारे एक सीनियर ने एकदम सही बात कह दी। उनका कहना था कि वहां सारे मुसलमान ही हैं इसलिए डेमोग्राफी बिगड़ने के बेवकूफी भरे मुद्दे को भी भुना लिया जा रहा है। वरना तो, डेमोग्राफी कैसे बिगड़ी है पश्चिम बंगाल में ये कोई लेफ्ट की सरकार से क्यों नहीं पूछता। पूरे बंगाल में बांग्लादेशी थोक के भाव में भर गए हैं। जाने कितनी विधानसभा और लोकसभा सीटों पर उनके वोट सीपीएम को सत्ता दिलाते हैं। और, पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों की ताकत इससे भी साबित हो जाती है कि तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े लंबरदार वामपंथियों के शासन में तस्लीमा नसरीन को देश निकाला झेलना पड़ रहा है। क्योंकि, तसलीमा ने बांग्लादेश के सांप्रदायिक चरित्र पर काफी कुछ कड़वा लिखा है। लालू प्रसाद यादव के शासन में बंगाल से सटे बिहार के इलाकों में भी ये बांग्लादेशी मुसलमान तेजी से बढ़े। इस देश की राजनीति का हाल इसी से समझा जा सकता है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आए मुसलमानों का विरोध हो तो, भी वो सांप्रदायिक हो जाता है और अगर अमरनाथ यात्रियों के लिए कुछ जरूरी सुविधाओं के लिए सरकार जमीन दे तो, वो भी सांप्रदायिक।

कश्मीर की राजनीति में अलगाववादियों के साथ मिलकर वहां की क्षेत्रीय पार्टियों ने किस तरह से जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ा है ये, किसी से छिपा नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में कैंपों में रहते कश्मीरी पंडितों का दर्द ये साफ बता देता है। और, राज्य विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला का बयान भी बता रहा है कि राजनीतिक हित के लिए अभी कश्मीर काफी खून बहेगा। गुलाम नबी आजाद सरकार के अलपमत में आने के बाद उमर अब्दुल्ला एक टीवी चैनल पर फोनलाइन पर कह रहे थे कि श्रीनगर में चल रहा आंदोलन यहां की अवाम की भावना है जबकि, जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मांग करने वाला आंदोलन सांप्रदायिक है। क्यों, हिंदुओं को भारत में ही अपने धार्मिक स्थलों के दर्शन के लिए जरूरी सुविधाएं मांगना सांप्रदायिक कैसे हो गया। कश्मीर और अमरनाथ मंदिर तो भारत में ही है ना। कैलाश-मानसरोवर की बात अलग है—वहां तो, चीन सरकार अपनी मर्जी से यात्रा की इजाजत देती ही है।

पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। वो, कह रही हैं कि जनता की भावनाओं को देखते हुए उन्होंने ये फैसला लिया है। जबकि, राजनीति की सामान्य सी समझ रखने वाला भी आसानी से समझ सकता है कि महबूबा निरा झूठ बोल रही हैं। दरअसल, जब छे साल पहले 2002 में कांग्रेस और पीडीपी ने आधे-आधे कार्यकाल तक सरकार चलाने के फॉर्मूले के तहत सरकार बनाई थी तब से महबूबा इसी फिराक में थी कि कोई भड़काऊ मुद्दा मिले जिससे वो, कांग्रेस को ठेंगा दिखा सकें। क्योंकि, सबसे बड़ी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के पास 25 विधायक होने के बाद सत्ता की मलाई चाटने के लिए 18 विधायकों वाली महबूबा, 21 विधायकों वाले गुलाम नबी आजाद के साथ अनमना सा करार किए हुए बैठी थीं।

पहले तीन साल महबूबा मुख्यमंत्री रहीं तो, सब ठीक चलता रहा। लेकिन, गुलाम नबी आजाद को सत्ता सौंपने के बाद से ही वो, इस साजिश में लग गईं थीं कि कब कांग्रेस समर्थन वापसी की कोई ठोस वजह मिल सके। जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने की वजह से सितंबर में तो चुनाव होने ही थे। अब उसके ठीक पहले इतने भड़काऊ मुद्दे पर सरकार गिराकर महबूबा अपनी खुद की सरकार चाहती हैं। महबूबा कह रही हैं कि हफ्ते भर से चल रहे आंदोलन में निर्दोष लोग मारे जा रहा हैं इसलिए सरकार से समर्थन वापस लेना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। आखिर किसकी वजह से निर्दोष लोग मारे गए। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अलगाववादी नेता यासीन मलिक के साथ पीडीपी के आंदोलन की ही वजह से ना।

खैर, चुनाव के पहले अपना वोटबैंक पक्का करने की कोशिश में लगे इन नेताओं के बहकावे में आकर वहां की जनता ने एक बार फिर कश्मीर को बंदूक की राजनीति के हवाले कर दिया है। महबूबा का एक और बयान पढ़िए- कश्मीर में फिर से पुरानी स्थिति हो गई है। पिछले कई सालों की शांति प्रक्रिया पूरी तरह बेकार हो गई है। यानी, अब अगले छे सालों के लिए फिर से उन्हें सत्ता दीजिए जिससे वो, छे साल शांति प्रक्रिया चलाएं और आखिरी साल में ऐसे ही किसी मुद्दे पर जनता को भड़काकर कश्मीर की शांति को श्रीनगर के लाल चौक पर हिंदुस्तान के प्रति नफरत की आग में जलाकर खाक कर दें।

उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे युवा नेताओं से थोड़ा आस थी कि ये कुछ लीक से हटकर चलेंगे। लेकिन, जिनको राजनीति ही विरासत में मिली है वो, राजनीति करने में भी तो विरासत ही संभालेंगे। अब ये राजनीति तो चलती रहेगी। इस सबके बीच हुआ ये कि मेरे घर वाले 4 दिन श्रीनगर में रहने के बावजूद बिना श्रीनगर देखे वापस लौट आए। क्योंकि, 25 जून को जब वो, लेह से श्रीनगर पहुंचे तो, हालात खराब होने की वजह से सीधे एयरपोर्ट से बोट पर पहुंचा दिए गए। दूसरे दिन यानी 26 जून को हिम्मत करके गुलमर्ग चले तो, गए लेकिन, वहां सब बंद था। चाय तक नहीं मिली। और, शाम को लौटते-लौटते हालात बहद बिगड़ चुके थे। गुलमर्ग से श्रीनगर के रास्ते में लोगों ने जाम लगा रखा था। गाड़ियां जला दी थीं। मैंने शाम सात बजे के आसपास फोन किया तो, छोटे भाई ने कहा- हम लोग एक गांव में फंसे हैं। श्रीनगर पहुंचकर फोन करूंगा। टूरिस्टों की 15-20 गाड़ियां साथ में हैं। खैर, किसी तरह वो श्रीनगर पहुंचे।

लेकिन, 27 जून को दिन भर बोट पर ही रहे। जबकि, 27 को उन लोगों का पहलगाम जाने का कार्यक्रम था। 28 जून को 11.30 बजे की फ्लाइट थी जम्मू के लिए। लेकिन, हालात बिगड़ने के डर से सुबह 5 बजे ही एयरपोर्ट पहुंच गए। एयरपोर्ट नौ बजे के बाद खुला इसलिए इतनी देर तक बाहर ही रहना पड़ा। अब मैंने तो, श्रीनगर के अच्छे अनुभवों के बूते घरवालों को कश्मीर घुमा दिया। लेकिन, दहशत के चार दिन बिताने के बाद क्या मेरे घरवाले किसी को कश्मीर घूमने जाने की सलाह दे पाएंगे। और, अगर नहीं तो, कश्मीर टूरिस्ट नहीं जाएंगे तो, इसकी वजह से बेरोजगार होने वाले कश्मीरी नौजवानों को आतंकवादियों का पैसा और बातें ज्यादा समझ में आएंगी या फिर महबूबा और उमर अब्दुल्ला की खाली राजनीति।

Saturday, June 28, 2008

ट्रांसफर सीजन

मुझे आज एक ई मेल मिली। जिसमें किसी ने बिना नाम बताए उत्तर प्रदेश की राजनीतिक-नौकरशाही जुगलबंदी पर कुछ लाइनें भेजी हैं। मैं मेल सहित वो लाइनें आप सबके सामने पेश कर रहा हूं।

हर्षजी, आपका बतंगड़ पढ़ता रहता हूँ। आप यूपी से हैं और यहाँ की राजनीति व नौकरशाही से परिचित हैं। आज-कल यहाँ जो कुछ चल रहा है उसकी एक बानगी इस कविता में है। यदि बात कुछ जमे तो अपने ब्लॉग पर डाल सकते हैं। अपनी ही ओर से। धन्यवाद।

बीत गया है मार्च, मई ने दस्तक दी है।
वित्त वर्ष की लेखा बन्दी, सबने की है॥

'जून आ गया भाई',यूँ सब बोल रहे हैं।
तबादला-सीजन है, अफसर डोल रहे हैं॥


शासन ने तो पहले, इसकी नीति बनायी।
अनुपालन होगा कठोर, यह बात सुनायी॥

अब ज्यों सूची-दर-सूची, जारी होती है।
घोषित नीति ट्रान्सफर की, त्यों-त्यों रोती है॥

सक्षम अधिकारी को, भूल गया है शासन।
तबादलों के नियम, कर रहे हैं शीर्षासन॥

मंत्री जी के दर पर, जाकर शीश झुकाओ।
स्वाभिमान, ईमान, दक्षता मत दिखलाओ॥

टिकट कट रहे वहाँ, मलाईदार सीट के।
बिचौलिए भी कमा रहे, धन पीट-पीट के॥

जैसी भारी थैली, वैसी सीट मिलेगी।
मंत्रीजी तक परिचय है, तो छूट मिलेगी॥

देखो प्यारे आया कैसा, विकट जमाना।
चोर-लुटेरे चढ़े शिखर पर, बदले बाना॥

नेता-नौकरशाह मिलाकर हाथ, खजाना लूट रहे हैं।
मजबूरी में 'हरिश्चन्द्र' हैं जो, अपना सर कूट रहे हैं॥

Sunday, June 15, 2008

हम सबको राज ठाकरे के साथ खड़े हो जाना चाहिए

राजनीतिक फायदे के लिए ही सही लेकिन, इस बार बात राज ठाकरे की बात एकदम कायदे की है। सबसे बड़ी बात ये वो, मुद्दा है जिस पर राज ठाकरे ने शायद ही कभी कायदे की बात की हो। पहली बार है कि मराठी अस्मिता से जुड़ा मुद्दा होने के बाद भी राज ठाकरे भावना को उबारने की बजाए तर्क दे रहे हैं।

मामला मराठी स्वाभिमान के सबसे बड़े प्रतीक का है इसलिए राज सीधे विरोध करने के बजाए तर्क दे रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने राज ठाकरे की ये पूरी दलील पहले पन्ने पर छापी है। और, अब तक ऐसी कोई खबर नहीं आई है कि राज ठाकरे के घर पर किसी शिवसैनिक, किसी शिवसंग्राम के सिपाही या फिर और किसी मराठी अस्मिता के ठेकेदार ने हमला किया हो (शायद किसी में इतना दम ही नहीं है)। अभी तक तो बयान भी नहीं आया है पूरी उम्मीद है कि बयान तो आएंगे ही। लेकिन, सबको याद होगा कि छत्रपति शिवाजी महाराज की मूर्ति समुद्र में लगाने के सरकार के फैसले का विरोध अपने संपादकीय में करने के बाद लोकमत के संपादक का क्या हाल हुआ था। अच्छा हुआ कुमार केतकर ने घर का दरवाजा नहीं खोला। नहीं तो, एनसीपी विधायक की शिवसंग्राम सेना के सिपाही जाने क्या कर गुजरते। अब विनायक मेटे के सिपाही कहां हैं।

राज ठाकरे की बात सुनिए—मैं शिवाजी की प्रतिमा के खिलाफ नहीं हूं। शिवाजी महाराष्ट्र के, भारत के सबसे बड़े महापुरुषों में हैं (मेरे जैसे लोग पढ़ाई के दिनों से ही शिवाजी को देश के महापुरुषों में जानते थे। मुंबई में ठाकरे परिवार ने इसे देश की बजाए सिर्फ मराठी अस्मिता के प्रतीक महापुरुष में बदल दिया था)। लेकिन, समुद्र के बीच में मूर्ति – फिर चाहे वो इंदिरा गांधी हों या फिर शिवाजी ठीक नहीं है। ये एक बीमार विचार है।

राज ठाकरे के अलावा शायद ही किसी की हिम्मत थी कि इस तरह से सरकार के इस फैसले का विरोध करता। क्योंकि, मराठी स्वाभिमान के नाम पर शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के बाद एनसीपी के विधायक भी ऐसा तांडव कर चुके हैं कि कोई सही बात भी कहने से डरता है। लेकिन, राज ठाकरे की इस कायदे की बात को इस तरह से समर्थन मिलना चाहिए कि आगे राज भी बेवजह की मराठी अस्मिता का नाम लेकर लोगों को बांटने की कोशिश करें तो, उनको किसी का साथ न मिले।

राज ठाकरे को पर्यावरण की चिंता है। राज कह रहे हैं कि अगर मूर्ति बनाने और साढ़े सात एकड़ में एम्फीथिएटर, म्यूजियम और कैफेटेरिया बनाने के लिए समुद्र में खुदाई की गई तो, ECOLOGICAL BALANCE बिगड़ जाएगा। और, बेशकीमती समुद्री जीव-जंतुओं के जीवन को खतरा हो जाएगा। राज इसे तकनीकी तौर पर पूरी तरह से गलत बता रहे हैं। साथ ही वो, मूर्ति और टूरिस्ट स्पॉट बनाने के लिए सरकारी बजट को भी पूरी तरह निराधार बता रहे हैं। राज कहना है कि 200 करोड़ का बजट धोखा है। इस PROJECT पर करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे। राज कह रहे हैं कि अमेरिका स्टैचू ऑफ लिबर्टी की नकल बनाने की बात बेवकूफी है। वो, दुनिया की एक अनूठी चीज है, उसकी नकल की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए।

राज ऐसे ढेर सारे तर्क दे रहे हैं। सारी बातें सही है। ऐसी ही बात महाराष्ट्र के सबसे प्रतिष्ठित संपादकों में से एक कुमार केतकर ने भी कही थी। केतकर ने कहा था कि सरकार शिवाजी महाराज की मूर्ति लगाने पर 200 करोड़ खर्च करना चाहती है जबकि, किसान भूखों मर रहे हैं। लोगों को रोजगार नहीं मिल रहा है। लोगों की जिंदगी का स्तर गिरता जा रहा है। लेकिन, इस बात पर केतकर के घर पर हमला हो गया। घर के शीशे तोड़ दिए गए। और, ये सब करने वाले बेशर्मी से कह रहे हैं कि शिवाजी महाराज के खिलाफ टिप्पणी करने वालों के साथ ऐसा ही होना चाहिए।

राज ठाकरे राजनीति कर रहे हैं। उनकी बातें सही हैं लेकिन, ये सारे तर्क सिर्फ इसलिए कि महीनों की कड़ी मेहनत के बाद मराठी और उत्तर भारतीयों के बीच नफरत का कुछ बीज बोने में कामयाब हो पाए राज के मराठी वोटबैंक की फसल कहीं कांग्रेस-एनसीपी काट न ले जाए। लेकिन, मैं तो यही कहूंगा इस समय वो सभी लोग जो, चाहते हैं कि लोगों के बीच नफरत न रहे। वो, सब राज ठाकरे के साथ खड़ें हों, जिससे नफरत पैदा करने की बुनियाद पर मजबूत चोट पड़े और वो बुनियाद धसक जाए जिससे कि दुबारा खुद राज ठाकरे भी उस नफरत की बुनियाद पर किसी वोटबैंक की इमारत न खड़ी कर सकें।

Saturday, June 14, 2008

कोई कुछ भी कहे.. मायाराज ही ठीक है

मायावती सरकार के पूर्व मंत्री आनंदसेन यादव के खिलाफ आखिरकार गैरजमानती वारंट जारी हो गया। इसी हफ्ते में मायावती ने अपनी सरकार के एक और मंत्री जमुना प्रसाद निषाद को भी दबंगई-गुंडई के बाद पहले मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया। उसके बाद जमुना निषाद को जेल भी जाना पड़ा। इससे पहले भी मायावती की पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया था और उन्हें भी जेल जाना पड़ा था।

अब अगरउत्तर प्रदेश में कोई रामराज्य की उम्मीद लगाए बैठा है तो, इस दिन में सपने देखना ही कहेंगे। लेकिन, सारी बददिमागी और अख्कड़पन के बावजूद मुझे लगता है कि बरबादी के आलम में पहुंच गई उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था मायाराज में ही सुधर सकती है। ऐसा नहीं है कि मायाराज में सबकुछ अच्छा ही हो रहा है। लेकिन, इतना तो है ही कि मीडिया में सामने आने के बाद, आम जनता की चीख-पुकार, कम से कम मायावती सुन तो रही ही हैं।

मुझे नहीं पता कि मायावती के आसपास के लोग सत्ता के मद में कितनी तानाशाही कर रहे हैं। लेकिन, मायावती ने जिस तरह से कल राज्य के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को जिस तरह से लताड़ा है वो, इतना तो संकेत दे ही रहा है कि मायावती को ये पता है कि अगर इस बार मिला स्वर्णिम मौका उन्होंने गंवा दिया तो, उत्तर प्रदेश के विकट राजनीतिक, सामाजिक समीकरण में दुबारा शायद ही उन्हें अपने बूते सत्ता में आने का मौका मिले।
उन्होंने भरी बैठक में कहाकि
जब थाने बिकेंगे तो, जनता कानून हाथ में लेगी ही।
और, जनता कानून हाथ में तभी लेती है जब जनप्रतिनिधियों और कानून के रखवालों से उसे सही बर्ताव नहीं मिलता।


और, मायावती के इस कहे पर यकीन इसलिए भी करना होगा कि इसके दो दिन पहले ही मायावती की सरकार के एक मंत्री जमुना प्रसाद निषाद जेल जा चुके थे। उन पर थाने में घुसकर गंडागर्दी करने, गोलियां चलाने का आरोप है। इसी में थाने में ही एक सिपाही की मौत हो गई थी। इससे पहले बसपा सरकार के मंत्री आनंदसेन यादव को बसपा के एक कार्यकर्ता की बेटी के साथ संबंध बनाने के बाद उसकी हत्या का आरोप लगने के बाद पहले मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। और, अब गैरजमानती वारंट जारी हो चुका है।

आनंदसेन के खिलाफ गैरजमानती वारंट और मंत्री पद से हटाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि इसी घटना के आसपास यूपी के पड़ोसी राज्य बिहार में एक बाहुबली विधायक अनंत सिंह ने पत्रकारों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था। लेकिन, देश भर से प्रतिक्रिया होने के बाद भी अनंत सिंह का कुछ नहीं बिगड़ा। सिर्फ पत्रकारों की पीटने के लिए अनंत सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात मैं नहीं कर रहा हूं। दरअसल वो पत्रकार अनंत सिंह से सिर्फ इतना पूछने गए थे कि एक लड़की ने मुख्यमंत्री को खत भेजकर अपनी जान का खतरा आपसे बताया है। साथ ही आप पर आरोप है कि आपने उस लड़की के साथ बलात्कार किया था। बस क्या था बिहार के छोटे सरकार गुस्से आ गए और पत्रकारों को दे दनादन शुरू हो गए। ये बता दें कि लालू के गुड़ों के मुकाबले नितीश के पास अनंत सिंह जैसे कुछ गिने-चुने ही गुंडे थे।

बस इतनी ही उम्मीद है कि मायावती ने राज्य के अधिकारियों को जो भाषण दिया है। वो खुद उस पर अमल करती रहेंगी।

Monday, June 09, 2008

... जाने चले जाते हैं कहां

आज मुंबई मिरर में एन विट्ठल का लेख पढ़ रहा था। जिसमें वो कंसल्टेंसी फर्म मैकेंजी के किसी प्रजेंटेशन का हवाला दे रहे हैं। और, जिस प्रजेंटेशन में भारत के सुपरपावर बनने की इम्मीद दिखी थी। ये प्रजेंटेशन मैकेंजी ने तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दिखाया था। पूरा प्रजेंटेशन देखने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पूछा- आखिर ये सब होगा कैसे।

पूर्व मुख्य सतर्कता अधिकारी (chief vigilance officer) एन विट्ठल कहते हैं कि यही वो सवाल है कि हम सोचते बड़ा अच्छा हैं। योजनाएं बहुत बड़ी-बड़ी बनाते हैं। लेकिन, उसका क्रियान्वयन (implementation) बहुत ही कमजोर होता है, जिसकी वजह से बड़ी-बड़ी योजनाएं बेकार (flop) हो जाती हैं। विट्ठल ने अपने लेख में टी एन शेषन और तमिलनाडु के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के एक डिप्टी रजिस्ट्रार का हवाला देकर कहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी की बात का जवाब हैं ये लोग। जिन्होंने अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल करके क्रियान्वयन (implementation) को धारदार बना दिया।

विट्ठल साहब की ये बात एकदम सही है। विट्ठल साहब उन अफसरों में से हैं जिन्होंने इस देश में चीफ विजिलेंस ऑफीसर की पोस्ट के सही मायने लोगों को बता दिए। सब कुछ पारदर्शी था। एक बार पहले भी रायपुर में मैंने एन विट्ठल को सुना है। जिसमें उन्होंने संस्कृत के एक श्लोक की पैरोडी बनाकर बताया था कि किस तरह भ्रष्टाचार क्लर्क स्तर का कर्मचारी बकरी, आईएएस लोमड़ी और नेता शेर जैसे अपना हिस्सा खाता है। मुझे अच्छे से विट्ठल का उदाहरण याद नहीं है लेकिन, इसी के आसपास उन्होंने कहा था और तालियां भी खूब बटोरीं थीं। अब एन विट्ठल के बारे में मुंबई मिरर के रेगुलर कॉलम के अलावा कोई खबर नहीं दिखती।

ऐसे टीएन शेषन इस देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त थे, जिसके बाद इस देश में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति, संसद और चुनाव की तरह देश का आम आदमी चुनाव आयोग के बारे में भी जान गया था। दरअसल शेषन को कोई असीमित अधिकार नहीं दिए गए थे। लेकिन, जब शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो, उन्होंने इस संवैधानिक पद के सारे अधिकारों को क्रियान्वित (implement) किया। इसके बाद ही चुनाव आयोग में इतना दम आया कि वो, दम ठोंककर कहीं भी निष्पक्ष चुनाव करवा देता है। टीएन शेषन के बारे में आखिरी खबर ये थी कि उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ा था।

हमारी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान बहुत ही कम समय के लिए एक एसपी सिटी आए थे, जसबीर सिंह। मेरी जानकारी के मुताबिक, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से पढ़ाई के दौरान जसबीर छात्रसंघ में भी थे। और, बहुत ही कम उम्र में इंडियन पुलिस सर्विस में चुन लिए गए थे। जसबीर के एसपी सिटी रहते ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का एक चुनाव हुआ जिसमें हर दूसरे क्षण जसबीर सिंह और छात्रों-छात्रनेताओं में गंभीर विवाद की स्थिति बन जाती थी। खैर, जसबीर की यही काबिलियत रही होगी कि मायावती जब इससे पहले मुख्यमंत्री बनीं थीं तो, मायावती को जसबीर प्रतापगढ़ जिले के लिए सबसे उपयुक्त कप्तान लगे। जसबीर जिले के पुलिस कप्तान बने तो, जसबीर का पहला निशाना बने वहां के रजवाड़े। दबंग और कई अपराधों के आरोपी विधायक रघुराज प्रताप सिंह को महल छोड़कर भागना पड़ा था। लेकिन, मायावती की सरकार गिरने के बाद सपा की सरकार आई तो, जसबीर कहां गए किसी को पता नहीं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ही पढ़ाई के दौरान उस समय के देश के सबसे चर्चित अफसर गोविंद राघव (जी आर) खैररनार को हम लोगों ने सिविल लाइन्स, इलाहाबाद के मुख्य चौराहे सुभाष चौक पर सुना था। मुंबई बीएमसी के तोड़ू दस्ते के इंचार्ज खैरनार दाउद के अवैध निर्माणों को धड़ाधड़ा तोड़ने और उसके बाद हुए जानलेवा हमलों की वजह से देश के सबसे चर्चित अफसर थे। ईमानदारी और निडरता की मिसाल बन चुके खैरनार को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इलाहाबाद में बुलाया था। उसके बाद मैंने खैरनार के बारे में आखिरी खबर मुंबई मिरर में ही पढ़ी थी। खबर ये थी कि तोड़ू दस्ता का इंचार्ज रहते खैरनार के ऊपर सरकारी कमरे का कुछ बकाया किराया वसूलने के लिए बीएमसी ने नोटिस दी है। किराया बहुत ही मामूली था।

अब सवाल ये है कि एन विट्ठल, टीएन शेषन, जीआर खैरनार, तमिलनाडु के त्रिचुरापल्ली जिले के एम्प्लॉयमेंट डिपार्टमेंट के डिप्टी रजिस्ट्रार सरत कुमार और इलाहाबाद, प्रतापगढ़ में तेज-तर्रार एसपी रहे जसबीर सिंह जैसे लोगों की खबरें कहां जाती हैं। आखिर ये लोग कहां चले जाते हैं। क्या planning implementation सलीके से करने वाले लोग system को अपच हो जाते हैं। मुझे संस्कृत का कोई श्लोक तो अब याद नहीं रहा। लेकिन, एन विट्ठल की पैरोडी के अंदाज में बस सवाल इतना ही है कि .... सिस्टम को सुधारने की कोशिश करने वाले ... जाने चले जाते हैं कहां ...

Friday, June 06, 2008

साहब, खाली पेट और भूख लगती है

कर्नाटक में ब्लैकमेलर देवगौड़ा परिवार की धोखाधड़ी और ऐन मौके पर दिखी महंगाई (महंगाई खतरे के निशान पर पहुंच तो, साल भर पहले ही गई थी। आज शुक्रवार है और फिर महंगाई दर बढ़ गई है।) इन दोनों ने दक्षिणपंथी बीजेपी को दक्षिण दुर्ग का द्वार भेदने में मदद कर दी। वरना फिलहाल ऐसा कोई मुद्दा नहीं था जो, बीजेपी के पक्ष में वोट का अंबार लगा पाता। कांग्रेस के युवराज को डिस्कवर इंडिया में कुछ काम का नहीं मिला जो, नेहरू जी के डिस्कवरी ऑफ इंडिया से आगे बढ़ पाता। पूरा देश घूमने वाले युवराज की महंगाई से भी मुलाकात नहीं हुई। जबकि, मेरी महंगाई से मुलाकात एक ही दिन में नैनीताल के स्टेट गेस्ट हाउस में मुन्ना खां की शक्ल में हो गई।

बीजेपी कर्नाटक में सत्ता में आ गई है। और, उत्तरांचल में पहले से ही है। अचानक बने प्रोग्राम में एक दिन के लिए मैं नैनीताल पहुंच गया। रात की फ्लाइट से मुंबई से दिल्ली। रात भर चलकर सड़क के रास्ते से रुद्रपुर और वहां से नैनीताल। एक रात नैनीताल में दूसरे दिन शाम को फिर वापस और रात की फ्लाइट से फिर मुंबई। वैसे तो नैनीताल पहुंचना ही बहुत सुखद अनुभव रहा। लेकिन, नैनीताल के स्टेट गेस्ट हाउस (नैनीताल क्लब के नाम से मशहूर) में सुबह हुई मुन्ना खां से मुलाकात ने बता दिया कि- महंगाई मार गई, का डर ऐसे ही बड़ी-बड़ी सरकारों पर भारी नहीं पड़ता।


सुबह उठा तो, कड़ुआ तेल की शीशी चटकाते बुजुर्ग सज्जन मालिश के आग्रह के साथ दरवाजे पर खड़े थे। पहाड़ों का खुशनुमा मौसम और दिल्ली से नैनीताल तक सड़क के रास्ते आने की थकान में मेरा मन भी मालिश के लिए मचल गया। लेकिन, चुचके गालों और झुर्रियों से सिकुड़े मुन्ना खां के हाथ और चेहरे को देखकर मेरा मालिश कराने का मन थोड़ा हिचका। मुन्ना खां ने कहा- साहब, 130 रुपए में बढ़िया मालिश करूंगा। मैंने कहा- 100 रुपए (क्योंकि, मुझे लगा कि ये मालिश क्या करेंगे, ऐसे ही निपटा देंगे।)

मुन्ना खां ने कहा- साहब, बस मई-जून। उसके बाद तो 10-20 रुपए में भी कोई मालिश के लिए नहीं पूछता। और, साहब मन खुश होगा तो, आप मुझे 10-20 रुपए ज्यादा ही देंगे। घड़ी दिखाकर बोले- पूरे आधे घंटे लगते हैं। कड़ुए तेल की शीशी भी सुंघा दी। एकदम असली कड़ुआ तेल था— महक आंखों तक उतर गई थी (असली कड़ुए तेल का अनुभव जिनको न हो उनके लिए, कड़ुए तेल के आंखों में उतरने का अहसास जरा मुश्किल ही है।)

मैं तैयार हो गया। मुझे क्या पता था कि मुन्ना खां की शक्ल में खुद महंगाई मेरी मालिश करने जा रही थी। मैंने उमर पूछी तो, मुन्ना ने 60 साल बताई। जबकि, मुझे 70 के ऊपर लग रही थी। ठीक वैसे ही जैसे महंगाई दर के आंकड़े कुछ और होते हैं और हमारे-आपके घर में पहुंचकर वो और ज्यादा दिखने लगती है। खैर, मुन्ना खां ने जब मेरी मालिश शुरू की तो, मुझे अहसास हुआ कि मुझसे ज्यादा ताकत अभी भी उनमें बची है।

साहब, मई-जून के बाद तो काम ही नहीं मिलता। खाली रहता हूं। चूल्हा जलना मुश्किल हो गया है। सबकुछ इतना महंगा हो गया है। चावल-दाल किलो भर लेने में खून जल जाता है। और, जब काम नहीं मिलता, खाली रहता हूं, कमाई नहीं होती तो, खाली पेट भूख और ज्यादा लगती है। काम में तो फिर भी भूख से ध्यान हट जाता है। और, पहाड़ों पर तो, वैसे भी महंगाई कुछ ज्यादा ही असर करती है। सब बड़े-बड़े घरों के बच्चे आते हैं। या फिर शहरों से लोग मौसम बदलने आते हैं। उनकी जेब तो भरी होती है। पहले से महंगी चीज को और महंगा कर जाते हैं।

मुझे मुन्ना खां की बात में दम लगा। मैंने भी नैनीताल की मॉल रोड से 100 रुपए का बैटरी से चलने वाला मसाजर ले लिया। तुरंत ही बगल में खड़े एक सरदारजी बोले- पचास रुपए से ज्यादा का नहीं है। दूसरी सुबह हम झील में बोटिंग करने के बाद निकले तो, दूसरा मसाजर बेचने वाला 70 रुपए में ही देने को तैयार हो गया। दुपट्टे जैसे हल्के कपड़े के शॉल 150 रुपए में मिल रहे थे। झील के किनारे के होटल पीक सीजन (गर्मियों में) एक रात के लिए 3,000 से 7,000 रुपए तक वसूलते हैं। और, हमें घुमाने वाले गाइड ने रास्ते का एक होटल दिखाकर बताया- ये यहां का सबसे महंगा होटल है। एक रात का 10,000 रुपए से ज्यादा लगता है। मुझे लगा बाहर से आने वाले लोगों को जो, इतने महंगे सामान या फिर होटल के कमरे मिलते हैं। उसकी कमाई में मुन्ना खां जैसा खांटी पहाड़ियों को हिस्सा अब भी क्यों नहीं मिल पा रहा। अब तो सिर्फ पहाड़ के लोगों के लिए अलग से राज्य भी बन गया है।

खैर, मालिश के साथ ही मुन्ना खां की बात आगे बढ़ चुकी थी। बाहरी लोग आके साहब पहाड़ काट रहे हैं। दो मंजिल की परमीशन पर 4-5 मंजिल की बिल्डिंग तान देते हैं। 3500 घर ऐसे ही बने हैं साहब। कभी-कभी कुछ घर टूटते भी हैं। नैनीताल क्लब में ही साहब पहले सिर्फ 40-50 कमरे थे अब 300 कमरे हैं। बहुत विरोध हुआ था। पुलिस ने लाठियां बरसाईं थीं। लड़कों ने बहुत बवाल किया था।

मुन्ना खां नैनीताल में हैं। वहां बीजेपी की सरकार है। ये दूसरी बार है। लेकिन, मुन्ना खां महंगाई पर बरस रहे थे। और, सरकार पर बरस रहे थे। एक बार भी उन्होंने बीजेपी या कांग्रेस का नाम नहीं लिया। हां, ये जरूर कह दिया कि अंग्रेज सरकार हमारे सरकार से अच्छे थे। महंगाई भी नहीं थी। कोई गलती करे—गलत काम करे तो, सीधे गोली से उड़ा दिया जाता था। इस वजह से लोगों में डर था। अब तो ऐसी सरकार है कि कुछ भी करके आदमी बच जाता है। पैसा सारे पाप छिपा लेता है।

पहाड़ों में मैंने कभी हिंदू-मुस्लिम भी नहीं सुना। देहरादून में करीब डेढ़ साल रहते हुए। मुन्ना खां से नैनीताल क्लब में आधे घंटे मालिश करवाते हुए और मुस्लिम घोड़े वालों के साथ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए जाते हुए भी। नैनीताल की सैर करवाने वाले ज्यादातर घोड़े वाले मुस्लिम ही थे। हम लोगों जिन 4 घोड़ों पर ऊपर तक गए। उसे ले जाने वाले भी दोनों ही मुस्लिम ही थे। और, ये सिर्फ यहीं नहीं है। वैष्णो देवी के दर्शन के लिए ले जाने वाले सारे घोड़े वाले और पालकी वाले भी मुस्लिम हैं। हिंदू भक्तों का देवी दर्शन मुस्लिमों के ही भरोसे हो रहा है।

खैर, नैनीताल भी पहाड़ पर है तो, कोई न कोई देवी-देवता तो होंगे ही। नैनीताल की झील के बगल में ही नयना देवी का मंदिर है। मेरी पत्नी और उनकी दोनों बहनें मंदिर गईं। मैंने कहा- मैं जूते पहने हूं, बाहर से ही प्रणाम कर लेता हूं। दरअसल, मैं आज तक ये जान नहीं पाया हूं कि भगवान में मेरी कितनी आस्था है। ये जरूर लगता है कि कोई न कोई शक्ति तो जरूर है जो, सुपरपावर है। खैर, मैं बाहर खड़ा था एक अधेड़ उम्र दंपति आए। पत्नी ने कहा- गोपाल आओ, दर्शन कर लेते हैं। लेकिन, गोपाल बाहर ही रुक गए। पत्नी अंदर चली गई। थोड़ी ही देर बाद गोपाल भी कुछ सोचते विचारते मंदिर के अंदर थे। मैं सोचने लगा कि क्या उम्र बढ़ने के बाद मैं भी इसी तरह पत्नी के पीछे मंदिर में दर्शन करने जाने लगूंगा।

नयना देवी मंदिर के बाहर मैं खड़ा इंतजार कर रहा था। और, प्रसाद की दुकान पर फुल वॉल्यूम में गाना बज रहा था- नयनों की मत सुनियो ... नयना ठग लेंगे। और, जिस तरह से महंगाई की राजनीति शुरू हो गई है। उससे तो साफ लग रहा है कि कांग्रेस को महंगाई ठग लेगी।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

हर्ष वर्धन त्रिपाठी Harsh Vardhan Tripathi अभी सकट चौथ बीता। आस्थावान हिन्दू स्त्रियाँ अपनी संतानों के दीर्घायु होने के लिए निर्जला व्रत रखत...