Monday, July 23, 2007

पश्चिम बंगाल में लाल सलाम के ३० साल

21 जून 2007 को पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के तीस साल हो गए। ये दुनिया की अकेली ऐसी कम्युनिस्ट सरकार बन गई। जो, चुनकर इतने सालों तक शासन में रही। ये रिकॉर्ड शासन इतने सालों का रहा कि इस शासन की शुरुआती बागडोर संभालने वाले मुख्यमंत्री कामरेड ज्योति बसु को हटाकर (बूढ़ा हो जाने का हवाला देते हुए ) दूसरे खांटी कामरेड बुद्धदेब भट्टाचार्य को राज्य की बागडोर देनी पड़ी। लेकिन, जब वामपंथी शासन के तीस सालों पर नजर डालें तो, साफ दिख जाएगा कि शासन तो, भले ही पश्चिम बंगाल में कहने को वामपंथियों का ही चल रहा है। लेकिन, दरअसल ये शासन पूरी तरह से पूंजीवादियों के हाथ में है। और, ये बात में नहीं कह रहा हूं। ये बात निकलकर आई है अभी के पश्चिम बंगाल के मुखिया बुद्धदेब भट्टाचार्य के श्रीमुख से।

तीस साल पूरे होने पर अलग-अलग टीवी चैनलों-अखबारों ने बुद्धदेब से जानना चाहा कि आखिर दुनिया की सबसे ज्यादा समय तक चुनकर चलने वाली वामपंथी सरकार की दिशा-दशा क्या है। बुद्धदेब ने कहा पुराने वामपंथी लकीर के फकीर रह गए हैं। उन्हें आज के जमाने की समझ नहीं है। आज की जरूरतों की समझ नहीं है। और, समय आ गया है कि जब वामपंथी बुद्धिजीवियों को ये समझना होगा कि राज्य के विकास के लिए उद्योगों की जरूरत है और उद्योग लगाने के लिए पूंजी चाहिए। बुद्धदेब बाबू ने कहा इसलिए साफ है कि हमें पूंजीपतियों के लिहाज से ही चलना होगा। उन्होंने इसके लिए राज्य के नौजवानों के रोजगार का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि कुछ पुराने वामपंथियों को खुश रखने के लिए वो राज्य के लाखों नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते हैं।


बुद्धदेब बाबू को तीस साल के लाल सलाम के बाद ये बात समझ में आ गई कि अब सिर्फ लाल सलाम से बात नहीं बनने वाली। अब रेट कार्पेट बिछाने की आदत डालनी होगी। बुद्धदेब बाबू ने रेड कार्पेट बिछाया तो, सस्ती जमीन, सस्ता मजदूर पसंद करने वाले उद्योगपतियों की मनमांगी मुराद पूरी हो गई। टाटा-अंबानी से लेकर देश-दुनिया के सारे बड़े उद्योगपति राइटर्स बिल्डिंग के सामने लाइन लगाए खड़े हो गए। टाटा देश की सबसे सस्ती कार कोलकाता में ही बनाना चाहते हैं तो, मुकेश अंबानी को कोलकाता से ही पूरे बंगाल में रिटेल चेन फैलाने का आसान रास्ता दिखा जिससे वो, किसानों से सस्ते में खरीदकर उन्हीं को बेचकर मुनाफा कमा सकते। लेकिन, बात यहीं बिगड़ने लगी। क्योंकि, इन सभी को बंगाल में अपने उद्योग लगाने-अपनी दुकान खोलने के लिए जमीन चाहिए थी। और, इस जमीन पर काबिज थे वो लोग, जिन्होंने पहले ज्योति बसु और फिर बाद में बुद्धदेब बाबू को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाया था। ये वो लोग थे जिनको लेफ्ट ने जमीन देकर पहले कैडर बनाया और फिर उसी कैडर को भरोसा दिलाकर बार-बार सत्ता में आते रहे। लेकिन, जब उनकी चुनी लेफ्ट की सरकार ने उनको दी जमीन, उद्योगपतियों के लिए मांगनी शुरू की तो, मामला पलट गया। उन्होंने जमीन देने से साफ इनकार कर दिया। और, अपनी जमीन बचाने के लिए जान लेने-देने पर उतारू हो गए। राजनीति भी उनके साथ खड़ी हुई और सिंगुर और नंदीग्राम में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति बनाने वाला लेफ्ट कैडर ममता बनर्जी की अगुवाई में खड़ा हो गया और उसके सामने पुलिस-सत्ता से लैस लेफ्ट का कैडर गोली चलाने लगा।


दरअसल आज से तीस साल पहले जब पश्चिम बंगाल में लेफ्ट ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था तो, सामंतवाद को हटाने और सबको जमीन की बराबर हिस्सेदारी देने का ही नारा बुलंद हुआ था। लेफ्ट की ये अपील काम कर गई और 21 जून 1977 को लंदन से ऊंची पढ़ाई करके लौटा 64 साल का कामरेड ज्योति राज्य का मुख्यमंत्री बन गया। बसु को सत्ता में पहुंचने की वजह साफ मालूम थी और बसु की सरकार ने सबसे पहले राज्य में भूमिहीन किसानों को जमीन बांटना शुरू किया। बसु सरकार ने राज्य में 13 लाख एकड़ जमीन गरीबों और भूमिहीन किसानों को बांट दी। ये रिकॉर्ड है, ऐसा काम देश का कोई राज्य नहीं कर पाया है। पश्चिम बंगाल ही देश का पहला राज्य था जहां सत्ता के विकेंद्रीकरण की शुरुआत हुई और सबसे पहले त्रिस्तरीय पंचायत राज लागू हुआ। यही वजह है कि आज पश्चिम बंगाल में खेती की जमीन का 83 प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही छोटे किसानों के पास है। और ये किसान किसी भी कीमत पर उद्योगों के लिए अपनी जमीन देने कौ तैयार नहीं हैं। वो, जान देने को तैयार हैं लेकिन, जमीन किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं है। नतीजा सिंगुर, नंदीग्राम, पुरुषोत्तमपुर, आसनसोल जैसे हालात राज्य के हर उस हिस्से में बन रहे हैं जहां सरकार उद्योग लगाना चाहती है। सिंगुर में टाटा को कार फैक्ट्री के लिए जमीन देना इज्जत का सवाल बन गया है। टाटा को भी बंगाल में मुनाफा ही मुनाफ दिख रहा है इसलिए 18 साल बाद कोलकाता में दूसरा ताज होटल खुलने जा रहा है। टाटा इतने मेहरबान हैं इसलिए राज्य सरकार का साफ कह रही है कि किसी भी कीमत पर ये मौका छोड़ा नहीं जा सकता। राज्य के उद्योग मंत्री निरुपम सेन का कहना है कि टाटा को राज्य में निवेश के लिए रास्ता तैयार न कर पाना बहुत बड़ी भूल होगी। शायद इसीलिए इस रास्ते में आने वाले हर किसी को जान से हाथ धोना पड़ सकता है। इसका सबूत है सीपीएम के जोनल हेड सुरीद दत्ता का नाम, सिंगुर में तापसी मलिक की हत्या और बलात्कार के मामले में सामने आना। तापसी मलिक सिंगुर की जमीन बचाओ समिति की सदस्य थी।


30 साल के लाल सलाम का परिणाम ये हुआ कि दुनिया भर में क्रांति का झंडा लहराने के लिए कॉलेज कैंपसों में मार्क्स-लेनिन के नारे बुलंद करने वाली लेफ्ट के रिकॉर्ड शासन वाले राज्य में सबसे पहले कॉलेज कैंपस पर ही हमला हुआ। एजुकेशन सिस्टम फेल हो गया है। पुराने वामंपथी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इकट्ठा होकर मार्क्स लेनिन के सिद्धांत पढ़ा रहे हैं लेकिन, बंगाल के कॉलेजों में गुंडागर्दी और सीपीएम के कैडर के अलावा कुछ नहीं बचा है। यहां तक कि सीपीएम और सीपीआई के अलावा दूसरे लेफ्ट संगठनों की छात्र शाखाएं भी अगर कैंपस में कुछ करने की कोशिश करती हैं तो, उसे पुलिस के साथ मिलकर सीपीएम-सीपीआई के कैडर के गुंडे दबा देते हैं। इसलिए सरकार को चेताने वाली विरोध की युवा ताकत नहीं रह गई।


लेफ्ट सरकार ने किसानों को जमीनें तो, बांट दीं। लेकिन, उनकी फसल लोगों तक, मंडियों तक बिकने के लिए पहुंच सके। इसका इंतजाम नहीं हो सका। जिसका नतीजा ये हुआ कि बंगाल में जमीन वितरण तो, हो गया लेकिन, वहां का एक भी किसान पंजाब के किसान की तरह कोई ऐसा मॉडल नहीं पेश कर सका। जिससे राज्य की बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के मौके भी बनते। लगातार सरकार बनाने के लिए ऐसी बुनियादी सुविधाओं के लिए विकास को, सत्ता के मद में चूर वामपंथियों ने कभी मुद्दा ही नहीं बनने दिया। जमीन पाए गरीबों, किसानों को अपनी चुनी हुई सरकार पर पूरा भरोसा भी था। लोकिन, इस सरकार के राज में पूरे बंगाल में ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम का जिस तरह से बंटाधार हुआ। उससे पहले से वहां जमी कंपनियों ने भी दूसरे राज्यों का रुख कर लिया। लेकिन, लेफ्ट उस समय भी नहीं चेता। क्योंकि, बंगाल अकेला राज्य था जिसके आदर्श के बूते वो पूरे देश में अपनी विचारधारा की दुहाई देते घूमते थे। हालात, ये हुए कि देश में सबसे पहले मेट्रो रेल और ट्रॉम गाड़ी जैसी अत्याधुनिक यातायात सुविधा की शुरुआत करने वाले कोलकाता में भी जमाने के रफ्तार को पकड़ने वाली सड़कें भी नहीं रह पाईं। राज्य के दूसरे हिस्सों में तो सड़कों का विकास ना के बराबर हो पाया। आज कोलकाता का सीवेज सिस्टम शायद देश के किसी भी शहर की तुलना में सबसे खराब है। बुनियादी सुविधाओं का हाल ऐसा है कि अंग्रेजों को जमाने से ही संपन्न बंगाल के गांवों में आज तक बिजली नहीं पहुंच सकी है। राज्य में चालीस लाख से ज्यादा पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार हैं। जो, राज्य के पढ़े-लिखे नौजवानों का सत्तर प्रतिशत है।


सच यही है कि बुद्धदेब भट्टाचार्यकी ये बात एकदम सही है कि पश्चिम बंगाल हो या फिर कोई भी राज्य उसे विकास के लिए, युवाओं को रोजगार देने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना ही होगा। क्योंकि, तीस साल के खेती के अनुभवों से कम से कम बंगाल में तो विकास नहीं ही आया है। लेकिन, सवाल यही है कि क्या बुद्धदेब जिस तरह से इंडस्ट्रियलाइजेशन के पक्ष में उद्योगपतियों की तरफदारी में खड़े हैं क्या वो, जनता के खिलाफ जाता नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल के ही ईस्ट मिदनापुर के सालबोनी गांव में अपना स्टील प्लांट लगाने जा रही JSW स्टील और राज्य के ही दूसरे हिस्से में टाउनशिप बनाने आ रही DLF का मॉडल अपनाया गया होता तो, शायद ही उद्योगों के आने के इस तरह से विरोध होता, जैसे आज लोग जमीन न देने के लिए जान भी देने पर उतारू हैं। लेकिन, गुजरात और महाराष्ट्र से विकास की दौड़ लगाने में जुटे बुद्धदेब उद्योगपतियों की शर्त पर राज्य के उस तबके की जमीन बांटने चल पड़े, जिसका पूरा परिवार सिर्फ उसी जमीन के भरोसे अपनी रोटी पा रहा था। JSW स्टील को ईस्ट मिदनापुर में करीब 4,500 एकड़ जमीन चाहिए जिसमें से 450 एकड़ कंपनी गांव के 700 किसान परिवारों से करीब तीन लाख रुपए एकड़ के भाव पर खरीद रही है। किसानों को जमीन की कीमत के बराबर के शेयर भी कंपनी में मिलेंगे और घर के एक सदस्य को नौकरी भी। अब भला इस औद्योगीकरण का विरोध कोई क्यों करेगा।


लेकिन, क्या बंगाल के वामपंथी शासक सचमुच में राज्य के लोगों का भला चाहते हैं और उनके विकास के बारे में सोचते हैं। देश में माओवादी आंदोलन की शुरुआत करने वाले कानू सान्याल ऐसा नहीं मानते। कानू सान्याल कहते हैं कि सीपीएम ने सत्ता पाने के सिर्फ पांच सालों तक ही अच्छा काम किया। उसके बाद उन्होंने कभी भी राज्य के लोगों का भला नहीं किया। बंगाल के बहुचर्चित जमीन सुधार (लैंड रिफॉर्म) आंदोलन की शुरुआत करने वाले सान्याल का कहना है कि सीपीएम और यहां तक कि सीपीआई पूरी तरह से जमीन सुधार के पक्ष में कभी रहा ही नहीं। अपने घर से सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) आंदोलन चला रहे सान्याल की बात काफी हद तक इसलिए भी सही लगती है कि पश्चिम बंगाल देश का वो राज्य है जहां ग्रामीण इलाकों में साल के कुछ महीनों में हर दिन सबसे ज्यादा लोग भूखे सोते हैं। भुखमरी के लिए बदनाम उड़ीसा इस मामले में दूसरे नंबर पर है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के जून 2004 से जून 2005 के बीच हुए सर्वे के मुताबिक, बंगाल गांवों में 10.6 प्रतिशत घरों में साल के कई महीनों में खाने को नहीं मिलता है।


बुद्धदेब भट्टाचार्य अब उद्योगों की वकालत उसी तरह कर रहे हैं जैसे, आज से तीस साल पहले कामरेडों ने खेती के जरिए विकास का नारा देकर दुनिया में सबसे लंबे समय तक चुनकर चली वामपंथी सरकार का तमगा हासिल कर लिया। लेकिन, क्या ये तमगा आज से कुछ साल बाद भी उपलब्धि के तौर पर जाना जाएगा या फिर ये सत्ता पर कब्जे के रिकॉर्ड के लिए ही जाना जाएगा। क्योंकि, बुराई न तो, आज के उद्योगों के जरिए विकास के मॉडल में है और बुराई न तो, तीस साल पहले के लिए खेती, ज्यादा से ज्यादा लोगों को जमीन बांटकर विकास के मॉडल में थी। लेकिन, सवाल यही है कि क्या वामपंथी विकास के किसी भी फॉर्मूले पर एक साथ काम करने के लिए अपने को कभी तैयार कर पाएंगे। खासकर बुद्धदेब के इस नए वामपंथी फॉर्मूले (उद्योगों के जरिए ही विकास हो सकता है) पर। क्योंकि, तीस साल पहले जमीन सुधार के जरिए विकास के फॉर्मूले पर तो, सारे वामपंथी एक थे। आज तो, तीस साल पहले जमीन सुधार के आंदोलन में पला-बढ़ा वामपंथी—इस नए बुद्धदेब स्टाइल के वामपंथी विकास के मॉडल के एकदम खिलाफ खड़ा है। जहां लाल सलाम नारा नहीं जमीन की खूनी लड़ाई में बदल गया है।

2 comments:

  1. वाह!!
    बढ़िया विश्लेषण बंधु!!
    आभार!

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  2. Anonymous12:14 PM

    बंगाल के बाहर रहते हुए भी यहाँ की राजनीति का दिशात्मक विश्लेषण कर पाना वाकई साराहनीय कार्य है! कोलकाता में रहते हुए जहाँ तक मैने देखा है, कुछ लोगों में लाल झंडे के प्रति अन्धी आस्था है, कुछ इसके बारे में सोचते ही नहीं (कोऊ नृप होय हमें का हानी) और कुछ अगर दुखी होते भी हैं तो विकल्पहीनता के कारण मजबूर हैं ! अन्धों की रेवड़ियाँ, बताशे सब बँट रहे हैं कहाँ तक देखा जाय! जिसका काम है देख कर हमें दिखाना (हमारे "तेज़" समाचार चैनल), उसके बारे में तो त्रिपाठी जी अपने पिछले ब्लॉग में ही बोल चुके हैं (टी.आर.पी. ... )। अधिक क्या लिखूँ ! विशेष विश्लेषण के लिये साधुवाद ।

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