Sunday, May 27, 2007

हमें गुलामी ज्यादा पसंद आती है

भारत के ज्यादातर लोगों को अभी गुलामी ज्यादा पसंद आती है। गुलामी की प्रवृत्ति यानी किसी की जय-जयकार से ही काम बन सकता है, ऐसा सोचने वाले लोग बहुत ज्यादा हैं। और, ये बात हर दूसरे-चौथे दिन अखबारों-टलीविजन चैनलों में दिखने वाली खबरों से साबित होती रहती है। कल की दो बड़ी खबरें हैं। पहली खबर है वसुंधरा राजे अन्नपूर्णा देवी बन गई हैं और राजे के ही राज में आडवाणी, राजनाथ और अटल बिहारी को भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश बनने का मौका मिल गया। वरना तो, प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी अटल बिहारी बाजपेयी मानुष भर ही रहते। राजे के राज में भगवान बनने का मौका मिला तो, फिर वो क्यों कुछ कहते, भगवान भला भक्तों को कुछ कहते हैं।

ये थी बीजेपी राज की खबर। दूसरी खबर है महाराष्ट्र के कांग्रेसी राज से। विलासराव देशमुख को भी कुछ भक्त मानस वाली जनता ने भगवान श्रीकृष्ण बना दिया। और, इस भगवान के जन्मदिवस के समारोह में बॉलीवुड की अप्सरा थोड़ा देर से पहुंची तो, भक्त मानस वाली जनता नाराज हो गई और अप्सरा पर चप्पलें फेंकनी शुरू कर दी।

खैर, ये दोनों खबरें बहाना भर हैं मैं जो बात रखने की कोशिश कर रहा हूं वो, ये कि भारत के ज्यादातर लोगों को अभी भी जय-जयकार से ही आगे जाने का रास्ता दिख रहा है। यानी गुलामी में ही राजसी ठाट के मजे लिए जा सकते हैं ये सोचने वाले बहुतेरे हैं। चलिए ये बात कैसे साबित होती है। वसुंधरा को अन्नपूर्णा देवी का दर्जा देने वाले कौन हैं ये हैं राजस्थान में बीजेपी के एक विधायक। विधायकजी राजे को देवी सिर्फ इसलिए बता रहे हैं कि राजस्थान में उनका भी राज ठीक-ठाक चलता रहे। इसका विरोध भी हो रहा है यहां तक कि खुद बीजेपी नेता जसवंत सिंह की पत्नी ने राजे और आडवाणी, राजनाथ, अटल को देवी-देवता दिखाने वाले कैलेंडर के प्रकाशक के खिलाफ धार्मिक भावनाएं भड़काने का मामला दर्ज करा दिया है। लेकिन, अब तक बीजेपी के किसी बड़े नेता ने राजे से ये नहीं पूछा कि उनके राज में ये क्या हो रहा है।

महाराष्ट्र में यही काम कांग्रेस के लोग कर रहे हैं। पूरी मुंबई में विलासराव देशमुख के अलग-अलग स्टाइल के चित्र किसी न किसी नेता के साथ चिपके हुए हैं। सभी उनको जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं। मंत्रालय जाने वाली सड़क पर ये ज्यादा इसलिए लगे हैं विलासराव भी अच्छे से जान जाएं कि उनकी गुलामी की मानसिकता वाले कितने लोग हैं जो, जय-जयकार कर उनसे कुछ पाना चाहते हैं। और, ये रोग सिर्फ राज्यों में नहीं है। कांग्रेस में तो इसलिए भी कोई कुछ नहीं बोलने वाला क्योंकि, गुलामी से लड़कर देश को आजाद कराने वाली कांग्रेस आजादी के बाद सिर्फ और सिर्फ गुलामी को पालने-पोसने में लगी है। गुलामी का ये चक्र इंदिरा गांधी-संजय गांधी के समय में चरम पर था।

आपातकाल के बाद इस मानसिकता के लोगों को थोड़ा धक्का लगा लेकिन, बाद में पता चला कि ये धक्का इसलिए था कि उन्हें गुलाम नहीं मिल रहे थे। जो, उनकी जय-जयकार करते। जब उन्हें ज्ञान हुआ कि बिना राज के राजा नहीं बना जा सकता। तो, ये राजा के खिलाफ दूसरे को तैयार करने लगे जो, पुराने गुलामों के खिलाफ नारे लगा सकें। खैर इन्हें सत्ता मिली नए गुलाम भी मिले। किसी गुलाम ने लालू प्रसाद यादव की भक्ति में लालू चालीसा लिखी। लेकिन, ये उसी समय हुआ जब लालू डेढ़ दशक तक एक राज्य के मुख्यमंत्री (राजा) थे। अब वसुंधरा औऱ विलासराव का राज है इसलिए अब दूसरे गुलामों ने वसुंधरा को देवी और विलासराव को देवता बना दिया।

खैर बात कांग्रेसियों की हो रही थी। आजादी की लड़ाई वाली पार्टी का नाम बदनाम कर रहे इन लोगों में गुलामी के सबसे ज्यादा अवशेष मिलते हैं जो, अक्सर उभर कर सामने आ जाते हैं। उत्तर प्रदेश में जब कांग्रेस को पिछली विधानसभा से तीन सीटें कम मिलीं तो, मीडिया में हल्ला मचा कि राहुल बाबा फेल हो गए। लेकिन, राहुल बाबा क्यों फेल होने लगे जब गुलामों की पूरी टीम किसी भी फेल होने को अपने सर लेने और कुछ भी बढ़िया होने पर राहुल बाबा का चमत्कार बताने के लिए तैयार खड़ी हो। फिर क्या था राजकुमार राहुल और साम्राज्ञी सोनिया ने कहा कि उन्होंने तो कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की पूरी कोशिश की लेकिन, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन किसी लायक न होने से पार्टी का ये बुरा हाल हुआ है। अब कोई इनसे ये पूछने वाला तो, था नहीं कि मैडम उत्तर प्रदेश का संगठन किसने बनाया है। लेकिन, कोई पूछता भी कैसे जब संगठन के लोगों ने ही ये मान लिया कि वही खराब हैं मैडम और राहुल बाबा ने तो बहुत मेहनत की थी।

मामला सिर्फ इतना भर नहीं है ये गुलामी का रोग इतना मजा देने लगा है कि हर जगह जय-जयकार करने वाले चापलूसों की फौज खड़ी है जो, जानते-बूझते भी किसी गलत को सही मानने को सिर्फ इसलिए तैयार खड़ी है कि इससे उसका गुलामी का रुतबा तो कायम है और उसके नीचे कुछ गुलाम मिल रहे हैं। विद्रोह सिर्फ वही कर रहा है जिससे नीचे के गुलाम छीने जा रहे हों। लेकिन, क्या इसी के लिए अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ इतना खून बहा। इतने शहीदों के घर दीपक बुझ गए।

नेताओं के जरिए ये बात मैंने रखने की कोशिश की। सिर्फ इसलिए कि ये लोग ज्यादा जाने समझे जाते हैं। और, इससे लोगों की समझ में बात जल्दी आएगी। लेकिन, सच्चाई यही है कि सिर्फ राजनीतिक दलों में ही नहीं ज्यादातर ऑफिसों में और दूसरी जगहों पर भी गुलामों, जय-जयकार करने वालों की फौज खडी है। इसीलिए विलासराव, वसुंधरा, राहुल, सोनिया जैसे लोग गुलामों को पाल-पोसकर बड़ बनते जा रहे हैं। और, ब़ड़े बनने की इच्छा तो सबमें होती है। तो, सब गुलाम बन रहे हैं, गुलाम बना रहे हैं औऱ बड़े बन रहे हैं।

Sunday, May 20, 2007

उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक फेल हुए हैं

यूपी के चुनाव नतीजे बीजेपी की हार नहीं है। ये हार है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की। संघ के विचारों के यूपी के जातियों में बंटे धरातल पर फेल होने की। यूपी के चुनाव को बीजेपी की हार बताना RSS के और कमजोर होने का रास्ता बना रहा है। यूपी चुनाव में मायावती के पूर्ण बहुमत पाने के बाद RSS ने बीजेपी की हार की जो वजह बताई वो ये कि बीजेपी ने आधे मन से हिंदुत्व का रास्ता अपना लिया। और, मायावती ने इंदिरा गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के फॉर्मूले से चुनाव जीत लिया।

दरअसल उत्तर प्रदेश में हुआ ये परिवर्तन सिर्फ बीजेपी की हार जितना सीधा सा नहीं है। ये कुछ वैसा ही परिवर्तन है जैसा यूपी में कांग्रेस के खिलाफ 1984 के बाद हुआ था। 1984 में भी इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति की लहर न आई होती तो, शायद कांग्रेस को चेतने का समय मिल जाता। लेकिन, 1984 में कांग्रेस को बहुमत मिल गया तो, गदगद कांग्रेसी टिनोपाल लगा कुर्ता पहनकर मंचों पर गला साफ करने में जुट गए। उत्तर प्रदेश की अंदर ही अंदर बदलती जनता का कांग्रेसियों को अंदाजा ही नहीं लग रहा था। इसका सही-सही अंदाजा RSS को लग रहा था। वजह ये थी कि कांग्रेसी नेता मंचों पर थे -- बरसों की विरासत के साथ और RSS लोगों के पास जमीन में जुटकर काम कर रहा था।

उस वक्त जो दो बातें थीं। कांग्रेसी नेताओं से जनता ऊब चुकी थी और समाज में पिछड़ी और दबी-कुचली जातियां ऊपर उठने की कोशिश कर रही थीं। संघ ने अपनी विचारधारा से लोगों को जोड़ने की कोशिश की। साथ ही पिछड़ी-दबी-कुचली जातियों को साथ लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश की। कोशिश काफी हद तक सफल भी रही। लेकिन, मंडल आंदोलन ने RSS और बीजेपी की काम बिगाड़ना शुरू कर दिया।

1989 में RSS-बीजेपी ने समय की नजाकत समझी और मंडल-कमंडल का गठबंधन हो गया। दोनों को फायदा हुआ लोकसभा में जनता दल को 143 सीटें मिलीं और बीजेपी को 89। बीजेपी के लिए बड़ी उपलब्धि थी 1984 में सिर्फ दो संसद सदस्यों वाली पार्टी के पास लोकसभा में 89 सांसद हो गए थे। RSS की राजनीतिक शाखा उत्थान पर थी आगे संघ के प्रिय आडवाणीजी की रथयात्रा निकली और पार्टी और आगे पहुंच गई 1991 में अयोध्या (भगवान राम) ने बीजेपी को 119 सीटें दिला दीं।

बीजेपी उत्तर प्रदेश और पूरे देश में जम चुकी थी। कई राज्यों में सरकारें भी बन गई थीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की मेहनत काफी हद तक काम पूरा कर चुकी थी। 1999 में एक स्वयंसेवक के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद बचाखुचा काम भी पूरा हो गया।

बस यहीं से बीजेपी के कांग्रेस बनने की शुरुआत हो गई। अब RSS ने बीजेपी से अखबारों-टीवी चैनलों की बहसों में किनारा करना शुरू कर दिया। स्वेदशी जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद जैसे संघ के सभी अनुषांगिक संगठन बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मुद्दों पर बीजेपी के खिलाफ नारा लगाने लगे थे। अटल-आडवाणी और सिंघल-तोगड़िया की मुलाकात अखबारों की सुर्खियां बनने लगी। अब बीजेपी-RSS को ये पता नहीं लग पा रहा था कि अंदर-अंदर जनता कैसे बदल रही है। पता तब लगा जब इंडिया शाइनिंग का नारा फ्लॉप हुआ और कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सत्ता में आ गई।

लेकिन, तब तक RSS-VHP-SWADESHI JAGARAN MANCH बीजेपी से पूरी तरह दूर हो चुका था। और, यूपी में बीजेपी का वोटर बीजेपी से। वो उत्तर प्रदेश ही था जहां से कांग्रेस गायब हुई तो, आजतक वापसी का इंतजार कर रही है। उत्तर प्रदेश में संघ के ज्यादातर दिग्गज अब बीजेपी में थे और संघ को ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अब एजेंडा तय करने का काम संघ नहीं बीजेपी के ऊपर छोड़ देना चाहिए। लेकिन, मुश्किल वही कि एजेंडा तय करने वाले बीजेपी के नेता अब मंचों पर थे और जमीन पर काम करने वाले बचे-खुचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वयंसेवा में लग गए थे। कोई ऐसा प्रेरणा देने वाला नेता भी उन्हें नजर नहीं आ रहा था।

संघ ने बीजेपी को छोड़कर अपनी शाखाएं लगानी शुरू कर दीं लेकिन, शाखाओं में मुख्य शिक्षक के अलावा ध्वज प्रणाम लेने वाले भी मुश्किल से ही मिल रहे थे। वजह ये नहीं थी कि लोगों को संघ की विचारधार अचानक इतनी बुरी लगने लगी थी कि वो शाखा नहीं जाना चाहते थे। वजह ये थी कि उन्हें ये दिख रहा था कि उन्हें शाखा से निकालकर बीजेपी विधायक सांसद के चुनाव में पर्ची काटने पर लगाने वाले RSS के प्रचारक सत्ता की मलाई काटने में लगे थे।

RSS-बीजेपी के कैडर/नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठ गया था। ये जब ब्राह्मणों को अपना वोटबैंक समझकर दूसरों को लुभाने में लगे थे। तो, पिछले दो दशक से उत्तर प्रदेश में हाशिए पर पहुंच गया ब्राह्मण बीएसपी कोऑर्डिनेटर के साथ बैठकर मुलायम के गुंडाराज के खिलाफ स्ट्रैटेजी तैयार कर रहा था। 1991 से कमल निशान पर ही वोट डालता आ रहा पक्का संघी वोटर भी 2007 में पलट गया और इलाहाबाद की शहर उत्तरी जैसी सीट से भी कमल गायब हो गया। ये वो सीट थी जहां हर दूसरे पार्क में 2000 तक शाखा लगती थी और हर मोहल्ले में दस घर ऐसे होते थे जहां हफ्ते में एक बार प्रचारक भोजन के लिए आते थे। अब सुविधाएं बढीं तो, प्रचारकों को स्वयंसेवकों के घर भोजन करने की जरूरत खत्म हो गई। और, इसी के साथ संघ का सीधे स्वयंसेवकों के साथ संपर्क भी खत्म हो गया। सीधे संपर्क का यही वो रास्ता था जिसके जरिए संघ ने राम मंदिर आंदोलन खड़ा किया था।

ये एकदम सही नहीं है कि राम मंदिर आंदोलन खड़ा होने से संघ से लोग जुड़े। संघ-बीजेपी के लोग भी इस भ्रम में आ गए कि जयश्रीराम के नारे की वजह से ही लोग बीजेपी-संघ के साथ खड़े हो रहे हैं। जबकि, सच्चाई यही थी कि जब संघ के स्वयंसेवक लोगों के परिवार का हिस्सा बन गए थे, जब लोगों के निजी संपर्क में थे, जब उनके दुखदर्द परेशानी में उनके साथ खड़े थे तो, संघ का हर नारा बुलंद हुआ। लेकिन, जब संघ के लोग सत्ता के लोभी होने लगे। जब संघ के स्वयंसेवक सिर्फ विधानसभा/लोकसभा टिकट, पेट्रोलपंप/गैस एजेंसी के लिए संघ कार्यालयों से झोला लेकर निकलने लगे तो, संघ की शाखाओं में सिर्फ टिकटार्थी और सत्ता से सुख पाने के लोभी ही बचे। जाति के समीकरण ज्यादा हावी हुए लेकिन, इस बार अंदर ही अंदर।

जब बीजेपी विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ तो, भी RSS, बीजेपी के साथ कहीं नहीं दिख रहा था। बीजेपी का व्यवहार लोगों में ये भ्रम पैदा कर रहा था कि कहीं बीजेपी-समाजवादी पार्टी का कहीं अंदर ही अंदर कोई समझौता तो नहीं हो गया है। और, मायावती दहाड़ रही थी- मेरे सत्ता में आने के बाद गुंडे या तो जेल में होंगे या प्रदेश से बाहर। बचे-खुचे संघ के स्वयंसेवक भी बहनजी के कार्यकाल को मुलायम से बेहतर बता रहे थे।

अब भी बीजेपी और संघ के लोग नेता और स्ट्रैटेजी बदलकर 2009 का लोकसभा का चुनाव जीतने का भरोसा पाल रहे हैं। लेकिन, ये साफ है कि अगर संघ सचमुच चाहता है कि बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में बेहतर करे तो, उसे लोगों से संपर्क जोड़ने होंगे और अपने मूल काम स्वयंसेवक तैयार करने पर ही जोर-शोर से लगना होगा। नेता तैयार करने का काम बीजेपी पर ही छोड़ देना ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन, संघ अभी भी अपने मूल काम को छोड़कर इस समीक्षा में लगा हुआ है कि बीजेपी की हार की वजह आधे मन से हिंदुत्व को अपनाना है। दरअसल बीजेपी की हार की वजह ये है कि उसका कोई आधार नहीं रहा। ये आधार बीजेपी को संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों से मिलता रहा है। इसलिए, RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में बीजेपी को चुनाव में हार के लिए जिम्मेदार ठहराना संघ का सच्चाई से आंख मूंदने जैसा लग रहा है। सही बात तो ये है कि उत्तर प्रदेश में RSS के स्वयंसेवक, RSS का सिस्टम फेल हुआ है।

Sunday, May 13, 2007

किधर ले जाएगा ये ‘मेट्रो’ का रास्ता

मैं पहली बार किसी फिल्म पर लिख रहा हूं। ऐसा नहीं है कि इसके पहले ऐसी अपील वाली कोई फिल्म नहीं देखी हो। फिल्म बहुत अच्छी है। लेकिन, पेज-3 के बाद 'मेट्रो' की कहानी ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि आखिर 'मेट्रो' का रास्ता किधर जाएगा। इसीलिए मैं ये लिख रहा हूं और ये फिल्म की समीक्षा बिल्कुल नहीं है।

कहानी बंबई नगरिया की है। ज्यादातर उन्हीं लोगों की कहानी है जो, छोटे शहरों से 'मेट्रो' में कमाई करने के लिए आते हैं। कमाई इतनी हो सके कि उनके अपने छोटे शहर में रूतबा कायम हो सके और 'मेट्रो' में किसी तरह दो बेडरूम का फ्लैट लिया जा सके। इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत ये है कि छोटे शहरों से आकर महानगरों में बसने वाले (या कुछ समय के लिए रहने वाले ) लोगों में से चालीस प्रतिशत को ये अपनी कहानी लगती है या फिर साठ प्रतिशत मेरे जैसे लोगों को इस कहानी के पात्र अपने आसपास नजर आते हैं। फिल्म है इसलिए मजबूरी है कि एक साथ ही सारे पात्रों को जोड़कर दिखाना पड़ता है।

फिल्म की कहानी पेज-3 की कहानी को ही आगे बढ़ाती है। एक हैंडसम-स्मार्ट रेडियो जॉकी के गे होने को कहानी का हिस्सा बनाने से कुछ पुरानी बात को ही दुहराने जैसा लगता है लेकिन, शायद ये हमारे समाज में इतनी जगह बना चुके हैं कि हम इन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते । लेकिन, फिल्म में कोंकणासेन का वो डायलॉग इस गे समाज को ध्यान में रखना होगा कि आपकी जिंदगी और आपकी मर्जी है कि आप कैसे जियें लेकिन, किसी की जिंदगी खराब करने का अधिकार नहीं मिल सकता ।
फिल्म में शिल्पा शेट्टी यानी शिखा की भूमिका और कहानी के अंत में पति की सारी काली करतूतों के बाद शिखा के पति को ही अपनाने की कहानी चुभती है। लेकिन, फिल्म में दिखा बदलाव साफ संदेश देता है कि शिखा अपने पति को नहीं अपनाती वो अपनी बच्ची के उस पिता को अपनाती है जो, इसकी बच्ची को बहुत प्यार करता है।

फिल्म में शरमन जोशी यानी राहुल का किरदार शायद आज की भागती-दौ़ड़ती 'मेट्रो' की जिंदगी का सबसे व्यवहारिक चरित्र है। जो, अपनी सफलता के लिए कुछ भी करने को तैयार है। लेकिन, खुद उस गंदगी से उतना ही दूर है। लेकिन, जब दूसरों की गंदगी खुद उसी के हिस्से में आ जाती है तो, फिर जिस तरह से वो सबकुछ छोड़ देने को तैयार हो जाता है। वो 'मेट्रो' में रह रहे लोगों के उस छोटे शहर के आदमी के बचे हुए जमीर की वजह से है जो, मेट्रोज में जिंदगी की जद्दोजहद में चुक जाने के बाद भी कभी-कभी जाग उठता है।

कंगना रनाउत यानी निशा इस फिल्म का अकेला ऐसा चरित्र है जो मुझे किसी भी जगह पर सही नहीं लगा। निशा एक ऐसी लड़की है जो, मेट्रोज के ज्यादातर ऑफिसेज में मिल जाएगी। हो, सकता है कि इतना फिल्मी चरित्र न हो। ऐसा ही कुछ मिलता-जुलता चरित्र है शाइनी आहूजा का। जो, ये जानते हुए भी शिल्पा शेट्टी को प्रोवोक करने की कोशिश करता है कि वो शादीशुदा है। फिल्म में इसे शिल्पा की बदतर हुई जिंदगी से सही साबित करने की कोशिश की गई है।

फिल्म की जान है इरफान का चरित्र। जो, कहता है कि चांस तो लेना ही पड़ेगा। कोंकणा को ये समझाने वाला डायलॉग कि सड़क पर गाड़ी निकालोगे ही नहीं तो, रेड-ग्रीन सिग्नल कहां है इसका पता कैसे चलेगा। इरफान यानी मोंटी की ये बात भी संदेश देती है शादियों में होती देर के बाद क्या-क्या मुश्किलें आ सकती हैं। 35 साल का ऐसा आदमी जिसने किसी लड़की को छुआ न हो, उसका व्यवहार तो ऐसा ही होगा न जैसे परदे में रहने वाली चीज के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की इच्छा। ये कहीं से भी किसी व्यक्ति के चरित्र को आंकने का पैमाना नहीं हो सकता कि वो कैसे विपरीत लिंग के लोगों को देखता है।

फिल्म में के के का चरित्र खांटी पुरुष का चरित्र है जो, ये तो चाहता है कि वो बार-बार दूसरी लड़की-महिला के बिस्तर में खुशी तलाशकर लौटे और उसकी बीवी हर बार उसके साथ नई शुरुआत के लिए राजी हो जाए। लेकिन, जब बीवी उसी की वजह से किसी जगह भावनात्मक आश्रय तलाशने लगे तो, उसके पुरुष मन को ये डंक लग जाए कि मेरी बीवी किसी दूसरे के बिस्तर पर सोई, भले ही वो उस पति की तरह अपना जमीन बेचकर न आ रही हो। ऐसा नहीं है कि मैं बीवी के किसी दूसरे के साथ जाने को सही ठहराने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन, अगर कोई पति इस तरह का व्यवहार करे तो, बीवी से अच्छे व्यवहार की उम्मीद तो नही करे।

अब मेरी परेशानी की बात कि आखिर ये 'मेट्रो' का रास्ता जाता किधर है। फिल्म संवेदनशील थी, फिल्म में अच्छे-बुरे पहलू दिखाकर लोगों को संवेदना जगाने और उसे सही दिशा में ले जाने की कोशिश है। लेकिन, मैं जिस हॉल में फिल्म देख रहा था। वहां, बड़ा दर्शक वर्ग फिल्म के हर ऐसे दृश्य में जहां संवेदना जगाने की कोशिश थी, वहां वो छिछली टिप्पणियां कर रहे थे। यानी साफ है कि समाज को अपने बीच में ऐसी घटनाएं आसानी से पचने लगी हैं। यहां तक कि टूटते परिवारों की बात भी उन्हें संवेदनशील नहीं बनाती। मेट्रो में रह रहा ये नौजवान एक शादीशुदा आदमी के अलग-अलग लड़कियों से संबंध पर न सिर्फ हंस रहे थे बल्कि, इच्छा जाहिर कर रहे हैं कि काश मुझे भी ऐसा मौका मिलता।

फिल्म में के के मेनन यानी शिल्पा के पति जैसे चरित्र वाले लोग समाज में बढ़ रहे हैं तो, कंगना रनाउत यानी निशा जैसी चरित्र वाली लड़कियां भी बढ़ी हैं। शायद इसीलिए जब इनके ऊपर बीतती है तो, ये खुद रोते हैं अपनी संवेदना के साथ खिलवाड़ होने पर समाज को दोष भी देते हैं- आत्महत्या करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, बगल में ऐसी घटना पर वो हंसते हैं कि ये तो, हर रोज की बात है।

बस मुझे यही डर लगता है कि सारे बड़े-छोटे शहर अगर 'मेट्रो' की राह पर ही चल निकले तो, येरास्ता किधर जा रहा है। क्योंकि, 'मेट्रो' तो फिल्म थी, उसे दर्शक जुटाने थे फिल्म चलानी थी। इसलिए फिल्म खत्म होते-होते सब अच्छा हो गया। लेकिन, 'मेट्रो' में रह रहे लोगों की जिंदगी कोई तीन घंटे की फिल्म तो है नहीं। जिंदगी एक बार 'मेट्रो' के तैयार किए रास्ते पर चल निकली तो, हाल बेहतर मुश्किल से ही हो पाता है। इसलिए चिंता यही है कि आखिर किधर जाएगा 'मेट्रो' का ये रास्ता। फिर भी उम्मीद के लिए फिल्म में मोंटी यानी इरफान का वही डायलॉग याद करता हूं कि चांस तो लेना ही पड़ेगा।

Friday, May 11, 2007

यूपी के चुनाव बीजेपी-कांग्रेस के लिए सबक

यूपी में मायाराज हो गया है। और, ये सबसे बुरी खबर दिखती है मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी के लिए। लेकिन, नतीजे आने के बाद माया मैडम का गुणगान करने वाले बीजेपी औऱ कांग्रेस नेताओं के लिए ये बड़ा सबक है क्योंकि, देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अपना कोई वोटबैंक ही नहीं रह गया है।
यूपी का जनादेश सचमुच सबसे बुरी खबर मुलायम सिंह यादव के लिए ही लेकर आया है। मुख्यमंत्री रहते हुए माया मेमसाहब से उन्होंने जो व्यक्तिगत दुश्मनी पाल ली थी। अब मायाराज होने से उन्हें अपने सारे कारनामों का तगड़ा हिसाब देना पड़ सकता है। और, चुनाव के पहले से ही हाथी की चिंघाड़ से डरा सपा का कार्यकर्ता शायद ही अपने नेताजी के साथ मुखर होकर खड़ा हो सके। लेकिन, मुलायम के लिए अच्छी खबर ये है कि उनकी जमीनी ताकत बढ़ी ही है भले सीटें कम हुई हों। मुलायम को दो हजार दो के चुनाव से दो प्रतिशत ज्यादा 27 प्रतिशत वोट मिले हैं।

मुलायम से यूपी का राज छिना तो, ब्राह्मण-दलित-अति पिछड़ों के हाथी की सवारी से साफ है कि ये फॉर्मूला चलता रहा तो, 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी का कमल खिलने में बहुत मुश्किलें हैं। अब बीजेपी को ये भी सोचना होगा कि वो आडवाणी के ही नेतृत्व की ओर फिर मुंह ताके या फिर नए नेतृत्व की तलाश करे। साथ ही सवाल ये भी है कि क्या आडवाणी हिंदुत्व और जयश्रीराम के नारे के दम पर ही सत्ता तलाशता रहेगा। या फिर अपने कैडर-कार्यकर्ता को मजबूत करके दिल्ली की गद्दी पर मजबूती से काबिज होने की कोशिश करेगा। वैसे बीजेपी के लिए बुरी खबर ये है कि हिंदुत्व के नाम पर अब तक उसके पाले में आता रहा उसका ब्राह्मण-बनिया वोटबैंक भी इस बार बसपा के साथ सरक गया है। साफ है कि माया मेमसाहब ने बीजेपी का वो हाल कर दिया है जो, कांग्रेस का 1989 के बाद हुआ था। यानी साफ है कि देश की दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के पास अब अपना कोई वोटबैंक नहीं रह गया है।

राजनीति में राहुल बाबा अभी बच्चे ही हैं ये भी इन चुनावों ने साबित किया है। राहुल गांधी को उनके जनता से पूरी तरह कट चुके सलाहकारों ने जो समझाया -- और उसके बाद जो वो बोले -- उससे वो भी कांग्रेस से जुड़ने से पहले ही कट गए। जो, राहुल गांधी के रोड शो में आई भीड़ को कांग्रेस की तरफ आता वोटबैंक समझकर कांग्रेस के लिए वोट डालने का मन बना रहे थे। कुल मिलाकर इन चुनावों से ये बात और पुख्ता हो गई कि फिलहाल तो कांग्रसे बस यूपी के दो जिलों सुल्तानपुर-रायबरेली की ही पार्टी बनकर रह गई है। वैसे कांग्रेस के लिए अच्छी खबर ये है कि माया मैडम को पूर्ण बहुमत मिल गया है। लेकिन, ये अच्छी खबर तभी रहेगी जब पार्टी राज्य में सत्ता की भागीदारी के सुख की तलाश छोड़कर अगले पांच साल कार्यकर्ताओं को खड़ा करने में लगाए। लेकिन, मायावती जिस तेवर में नजर आ रही हैं उसमें दोनों राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी-कांग्रेस के लिए यूपी से होकर दिल्ली जाने वाला रास्ते की मुश्किलें बहुत बढ़ गई हैं। और, मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने जो, कुशल प्रशासक और खांटी नेता जैसे तेवर दिखाएं हैं उससे दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का आने वाले लोकसभा चुनाव और कठिन हो सकता है।

Sunday, May 06, 2007

नेताओं की करतूत से लोकतंत्र पर हावी नौकरशाही

उत्तर प्रदेश में चुनाव बिना किसी गड़बड़ी के पूरा हो रहा है। सिर्फ आखिरी सातवां चरण बाकी है। ये सब हो सका है चुनाव आयोग की सख्ती से। निस्संदेह चुनाव आयोग को बधाई मिलनी चाहिए। शुरू से ही सात चरणों में चुनाव कराए जाने पर आयोग की दबी जुबान से ही सही आलोचना भी हो रही थी।लेकिन, चुनाव आयोग ने साफ कह दिया कि देश के सबसे बड़े प्रदेश में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए ये जरूरी है।सेना और दूसरी पैरामिलिट्री फोर्सेज को चुनाव आयोग ने लोकतंत्र की पहरेदारी में लगा दिया। फर्जी वोट डालने वाले दूर से ही नमस्ते करते दिखे। और, जिन्होंने इसके बाद भी हिम्मत दिखाई वो, जवानों की बूट की ठोकर खाने के बाद सुधरे।

लेकिन, क्या सचमुच उत्तर प्रदेश के चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और हुए भी हैं तो क्या ये निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की मजबूती दिखा रहे हैं। दो छोटे उदाहरण हैं जिनसे साफ है कि चुनाव निष्पक्ष भले ही हुए हों। लोकतंत्रपिसता नजर आ रहाहै और, इसके लिए जिम्मेदार नेता ही हैं।उन्होंने नौकरशाही को ऐसा मौका दिया कि अब उनसे भी मामला संभालते नहीं बन रहा। नौकरशाही के हावी होने के दोनों उदाहरणनेताओं से ही जुड़े हैं। पहला उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद का ही नाम मतदाता सूची से गायब है। सलमान खुर्शीद कांग्रेस के बड़े नेता हैं और लुइस तो खुद ही फरुखाबाद की कायमगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं। अब सवाल ये कि क्या चुनाव आयोग की ये जिम्मेदारी नहीं बनती कि फर्जी वोट न पड़े इसके साथ ही वो ये भी सुनिश्चित करे कि जो वोट देने के लायक हैं वो वोट डाल सकें। और, अगर खुद चुनाव लड़ने वाले का ही नाम मतदाता सूची से गायब है तो, फिर ये कैसे माना जा सकता है कि चुनाव निष्पक्ष हैं क्योंकि खुद प्रत्याशी ही अपने पक्ष में वोट नहीं डाल सकता। लुइस खुर्शीद और सलमान खुर्शीद का आरोप है कि कायमगंज विधानसभा में पैंसठ हजार वोट फर्जी जुड़े हैं जबकि, असली वोटरों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया गया है।

दूसरा मामला सपा नेता अमर सिंह से जुड़ा है। अमर सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह ने माना है कि उनकेबड़े भाई अमर सिंह दो-दो जगह से वोट डालने की हैसियत में हैं। क्योंकि, उनका नाम गाजियाबाद के अलावा आजमगढ़ के पैतृक घर से भी वोटर लिस्ट में शामिल है। ये दो बड़े उदाहरण हैं जो, साफ कर देते हैं कि चुनाव निष्पक्ष नहीं हुए हैं। हां, इतना जरूर हुआ कि बिना वोटर लिस्ट में नाम और हाथ में मतदाता पहचान पत्र के लोगों को वोट नहीं डालने दिया गया। लेकिन, अब इस बात की जिम्मेदारी किसकी होगी कि बूथ के बाहर से भगाए गए लोग फर्जी वोटर थे या फिर उनके भी नाम सलमान और लुइश खुर्शीद की तरह मतदाता सूची से पहले से ही साफ कर दिया गया था। और, कई ऐसे वोटर भी थे उत्तर प्रदेश की एक ही या अलग-अलग विधानसभा में कई-कई वोट डाल रहे थे।

कई घरों में तो हाल ये था किलोकसभा और नगर निगम चुनावों में वोटडालने वाले ही इस चुनाव में वोटर लिस्ट से बाहर कर दिए गए थे। मतदात पहचान पत्र उनके पास थे भी तो, सेना के कड़क जवाने के सामने जिरह करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। शायद यही वजह रही कि किसी भी चरण में मतदान का प्रतिशत पचास के नीचे ही रहा। कई घरों में तो घर का मुखिया घर के लोगों दूर से ही छोड़कर आया क्योंकि, उसका नाम वोटर लिस्ट से ही गायब हो गया था।

दरअसल ये पिछल साठ सालों से नेताओं की करतूत थी। जिसका खामियाजा अब देश का लोकतंत्र भुगत रहा है। और, इन नेताओं ने लोकतंत्र का इतना मजाक-फायदा उठाया है कि लोकतंत्र के लोग भी चुनाव आयोग की ज्यादतियों को व्यवस्था की सफाई का हिस्सा मानकर चुप बैठे हैं। सच्चाई ये है कि व्यवस्था की सफाई के साथ ही नौकरशाही के हावी होने की शुरुआत भी हो गई है।पूरा चुनाव भर नौकरशाही तानाशाही पर उतारू रही और व्यवस्था की बरबादी के नेता सहमे रहे। और, फिर नेताओंके पीछे रहने वाली जनता कैसे बोल पाती।
अब तक उत्तर प्रदेश का जनादेश जिधर जाता दिख रहा है, उससे लग रहा है कि जल्द ही देश के इस सबसे बड़े प्रदेश के लोगों को एक बार फिर से सेना की संगीनों के साये में ज्यादा बिगड़े नेताओं में से कम बिगड़े नेता का चुनाव करना होगा। इसलिए जरूरी ये है कि आगे से चुनाव आयोग के भरोसे बैठने की बजाए लोग ही लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। क्योंकि, नौकरशाही को लोकतंत्र की लगाम थामने की छूट मिल गई तो, लोकतंत्र और निष्पक्षता दोनों ही तानाशाही की भेंट चढ़ जाएंगे।

हिन्दू मंदिर, परंपराएं और महिलाएं निशाने पर क्यों

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